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आप सही कह रहे है संजय जी |
गणेश, बिलकुल सही है...आपके बिचारों से मैं भी सहमत हूँ.
समर्थन हेतु साधुवाद शन्नो दीदी |
सुजीतजी, मुशायरे में (मंच पर) बैठा हर आदमी शायर होता है. नज़्म पढ़नेवाले या ग़ज़ल कहनेवाले मौज़ूद सामईन और तमाशबीन से अलग हुआ करते हैं. आगे आपका कहना अपनी जगह.
aapki baat se poori tarah sahmat hu......dhanyawad jo aapne ye mudda uthaya.ye sach hai lekhak sirf tippani chahta hai agar pratisaaad (jo lekhak ke lie prasad hota hai)na mile to likhne me maja nahi aata
अभिनवजी .. मैं आप द्वारा इंगित कथित मानवीय गुण या अवगुण को प्रशंसा चाहना न कह कर अनुमोदन की अपेक्षा कहना ज्यादा उचित समझूँगा. आपका कहना सही है कि सीखने-जानने का क्रम मात्र साहित्य परिप्रेक्ष्य ही नहीं व्यवहार के लिहाज से भी बहुगुणित हो जाता है. एकदम दुरुस्त फरमाया है आपने. बशर्ते उक्त लेखक या रचनाकार आत्मसंतुष्टि का शिकार न हो गया हो.
राजेन्द्रजी का अति सुन्दर उदाहरण.. हँसी नहीं रुक पा रही है. यह विड़ंबना ही तो है कि ऐसा घेट्टो (ghetto) पूरे हिन्दी साहित्य का अहित कर चुका है. खैर...
किन्तु, उचित होगा, हम तथ्यों और प्रक्रियाओं का जेनरलाइजेशन न करें. मंडली तो यहाँ नहीं दिखी है अबतक, न ही इसकी आज के संदर्भ में कोई गुंजाइश बनती है, मगर यह अवश्य है कि पाठक और लेखक दोनों के लिहाज से सभी को सावधान और सचेत रहना होगा.
कहना न होगा, बहुत कुछ पोस्ट होते देखता हूँ नये हस्ताक्षरों की ओर से. कई-कई प्रस्तुतियाँ आशा जगाती हैं, तो कभी-कभी ज्यादा उत्साह या बड़बोलापन क्षोभ भी पैदा करता है.
हाँ, हर कुछ की चर्चा अवश्य होनी चाहिये जिसे टिप्पणी या प्रतिक्रिया कहते हैं.
सत्य वचन सौरभ जी , दरअसल २०-२२ वर्षों के काव्य काल में इन पंक्तियों के लेखक की कई रचनाएँ बड़ी बड़ी कथित पत्रिकाओं से छपी कम लौटी ज्यादा हैं | जबकि मैं खुद तबके चर्चित राष्ट्रिय दैनिक "आज" के जमशेदपुर संस्करण में वरिष्ठ उप-संपादक हुआ करता था | और साहित्य समेत कई पन्ने खुद देखता था | कईओं से तब व्यक्तिगत परिचय हुए | पर मैं उनके गुट में अपने स्वभाव के कारण शामिल नहीं हो पाया |अफ़सोस भी नहीं .... कभी किसी को मुक्कल जहां नहीं मिलता ...
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