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कमी है कौन सी कुदरत के कारखाने में ,


कमी है कौन सी कुदरत के कारखाने में ,
उलझ के रह गया इन्सान जो आबो -दाने में .

वोह जिसके दम से उजाला है मेरी आँखों में ,
उस्सी की आज कमी है गरीब खाने में .

मेरे नसीब में लिखी है ठोकरे शयेद ,
जो भूल बैठा हूँ तुझको भी इस ज़माने में .

समझ रहा था जिसे मै गरीब परवर है ,
उस्सी ने आग लगे है आशियाने में .

हटा जो मर्कज़े हस्ती से देखीय "रिज़वान",
भटक रहा है वही दरबदर ज़माने में .

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Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on May 22, 2012 at 12:41pm

रिजवान जी, बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल कही है, टंकण की त्रुटियाँ कई जगह परिलक्षित है एडमिन से कहकर ठीक करा लें , इस खुबसूरत अभिव्यक्ति पर दाद कुबूल करें |

Comment by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on May 20, 2012 at 9:06am

रिजवान भाई बहुत उम्दा ग़ज़ल और खूबसूरत फिक्र ! ये शेर तो लाजवाब है :मेरे नसीब में लिखी है ठोकरें शायद ,
जो भूल बैठा हूँ तुझको भी इस ज़माने में . दाद कुबूल करे!

Comment by Ashok Kumar Raktale on May 20, 2012 at 8:50am

रिजवान जी
          सादर,
                 कमी है कौन सी कुदरत के कारखाने में ,
                 उलझ के रह गया इन्सान जो आबो -दाने में .
वाह! बहुत सुद्नर गजल. बधाई.
 

Comment by MAHIMA SHREE on May 18, 2012 at 9:55pm

कमी है कौन सी कुदरत के कारखाने में ,
उलझ के रह गया इन्सान जो आबो -दाने में .

बहुत बढ़िया रिजवान जी बधाई आपको




सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 18, 2012 at 9:29pm

बहुत बहुत उम्दा ग़ज़ल है हर शेर शानदार है एक दो टंकण त्रुटियाँ हैं ठीक कर सकते हैं 

Comment by Nafis Ansari on May 18, 2012 at 9:23pm

बहुत खूब माशा-अल्लाह पूरी ग़ज़ल उम्दा है  रिज़वान 

Comment by AVINASH S BAGDE on May 18, 2012 at 9:05pm


वोह जिसके दम से उजाला है मेरी आँखों में , 
उस्सी की आज कमी है गरीब खाने में . wah!janab......

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 18, 2012 at 5:14pm

कमी है कौन सी कुदरत के कारखाने में , 
उलझ के रह गया इन्सान जो आबो -दाने में 

uljhan suljhe na , badhai

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