श्री अविनाश बागडे
(१)
कुण्डलिया
जीवन जिसको हम कहें कहीं धूप या छांव .
हिचकोले खाती चले लहरों पर ये नाव .
लहरों पर ये नाव ,किनारे मिल जातें हैं।
अपना-अपना भाग,कभी हम हिल जातें हैं।
कहता है अविनाश,धनिक या होवे निर्धन
रहे भाग की छांव चले है जिससे जीवन .
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(२)
छन्न पकैया ...
छन्न पकैया छन्न पकैया . जलता रेगिस्तान .
छांव मिले तो लगता जैसे , मिले हमें भगवान .
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छन्न पकैया छन्न पकैया , जीवन का ये गाँव
आते - जाते रहते जिसमे , सदा धूप और छांव .
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छन्न पकैया छन्न पकैया ,दिखे रेत ही रेत .
गर्म हवाएं चलती जैसे , मास्टरनी की बेंत .
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छन्न पकैया छन्न पकैया , काश! यहाँ ये होता,
निर्मल-निर्झर और निरंतर , बस पानी का सोता .
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छन्न पकैया छन्न पकैया ,बंगला गाड़ी कार .
ये ही तो मृगमरीचिका , ना जीवन का सार।
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छन्न पकैया छन्न पकैया , पानी छोड़े साथ।
बढ़ा रेत का आयतन , पर्यावरण अनाथ ..!
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छन्न पकैया छन्न पकैया , जहाँ रेत ही रेत .
चलो उगाये हरियाले के , वहां सुनहरे खेत .
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छन्न पकैया छन्न पकैया ,सुन ले ऐ ! अविनाश।
करनी तेरी कर जाएगी , बस! तेरा ही नाश!!!!
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(३)
रोला ...
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रेत रेत ये रेत ,यहाँ पर कम है पानी
खतरों के हमसफ़र , लोग है रेगिस्तानी
सदा हमारी आस, जहाँ मुंह की खाती है .
देती जल का भास, मरचिका कहलाती है।
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कुण्डलियाँ (दोहा+रोला 2)
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जीवन जिसको बोलते कहीं धूप या छांव .
सुख-दुःख जिसके साथ में, ऐसा है ये गाँव।
ऐसा है ये गाँव , के जिसकी बात निराली।
मरूथल या बागान , दिवस या रातें काली ।
कहता है अविनाश, ढूंढ़ते हैं हम मधुबन .
जाने कब कट जाय ,ये रेगिस्तानी जीवन!!!
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श्री वीनस केसरी
(प्रतियोगिता से अलग)
मनहरण घनाक्षरी = १६/१५ वर्ण, अंत में दीर्घ
जिंदगी सराब लगें खुशी जैसे आब लगें, दिखे हर ओर पर मिलना मुहाल है
डूबें उतरायें हम, सहराओं में मजे से, ये भी कहते फिरें कि जिंदगी वबाल है
अस्लियत जान लें सराब की अगर हम, गम हमें छू भी पाए, ऐसी क्या मजाल है
सहरा के सफर में राहबर चुन लीजै, इसी में है अक्ल मंदी, आपका क्या ख्याल है
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श्री कुमार गौरव अजीतेन्दु
(१)
दोहे
थोड़ी सी जलराशि के, आगे रेत विशाल |
मर्त्यलोक में जिंदगी, का ऐसा ही हाल || (१)
जलते रेगिस्तान में, आशा का नहिं अंत |
असुरों के भी देश में, मिल जाते हैं संत || (२)
कंकड़ियों का गाँव ये, बढ़ा रहा है रेत |
बहता शीतल जल कहे, अब तो जाओ चेत || (३)
जल पनघट से सूखता, तरुओं, प्राण समेत |
वारिद भी लाचार है, नहीं बुलाए रेत || (४)
जो मिथ्या अभिमान में, ले जल से मुँह मोड़ |
उसको दुनिया छोड़ दे, सारे नाते तोड़ || (५)
जल के तीरे रेत ही, है दुनिया की रीत |
कर संगत संगे बजे, सुख-दुख का संगीत || (६)
जन दे डर के रेत से, त्राहिमाम सन्देश |
ढाढस देता जल कहे, अभी बचा मैं शेष || (७)
कुदरत ने फिर से किया, जीवों पर उपकार |
देखो तो मरुभूमि से, फूट पड़ी जलधार || (८)
दुनिया में भी दीखते, कैसे-कैसे दृश्य |
पानी स्वागतयोग्य तो, बालू है अस्पृश्य || (९)
देखत मन के नैन से, मुख से निकले बोल |
बिन दहकत मरुभूमि के, नहिं पानी का मोल || (१०)
उर्वरता को काटते, बंजरता के नाग |
पानी को रक्षित किये, नवतरुओं के भाग || (११)
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(२)
घनाक्षरी
पानी में डुबो-डुबाओ, रेत के न पास जाओ,
पानी है अमीर भाई, रेत तो गरीब है |
पानी मोती से भरा है, पेड़ों से समां हरा है,
मीनों का भी आसरा है, रेत तो गरीब है |
प्रेयसी का हाथ होगा, वासना में माथ होगा,
पानी में ये साथ होगा, रेत तो गरीब है |
कोई नहीं था तुम्हारा, रेत ने दिया सहारा,
सोचे बिना भूलो सारा, रेत तो गरीब है ||
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(३)
घनाक्षरी
भव के भरम तले, मन का मिरग चले,
सोचे थकूँ थोडा भले, तर जाऊँ जल से |
इतना सरल कहाँ, पग-पग जल कहाँ,
फैला है अनल यहाँ, ठगा जाए छल से |
सत को रे नर जानो, साधुओं की बात मानो,
मन को एकाग्र करो, भक्ति, आत्मबल से |
सुखद ये लोक होगा, नहीं कोई शोक होगा,
रम्य परलोक होगा, खिलोगे कमल से ||
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श्री रविकर (रविकर फैजाबादी)
(पहली प्रस्तुति)
दो सवैये
(मत्तगयन्द)
निर्जन निर्जल निर्मम निष्ठुर, नीरस नीरव निर्मद नैसा ।
निर्झर नीरज नीरद नीरत, नीमन नैमय नोहर कैसा ?
है मनुजाद मनोरथ दुष्ट, मरे मनई चिड़िया पशु भैंसा ।
तत्व भरे बहुमूल्य बड़े, "सिलिका " कण में पर बेहद पैसा ।।
निर्मद=हर्ष शून्य ; नैसा =खराब नीरत=नहीं है ; निर्झर-नीरज-नीरद = झरना-कमल-बादल ; नीमन=अच्छा ; नैमय=व्यापारी ; नोहर=दुर्लभ ; मनई=मानव ; मनुजाद=मनुष्य को खाने वाला राक्षस ; सिलिका = रेत, बालू , इलेक्ट्रानिक्स उपकरणों का आधारभूत तत्व
(सुंदरी)
फुफकार रहे जब व्याल सखे, नुकसान नहीं कुछ भी कर पाए ।
मरुभूमि बनाय बिगाड़ रहा, नित रेतन टीलन से भरमाये ।
*निरघात लगे सह जाय शरीर, फँसे मृग मारिच जीवन खाए ।
पर नागफनी *टुकड़ा जब खाय, बचा जन जीवन जी हरसाए ।।
*मारक हवा के थपेड़े
(नागफनी का गूदा खाकर मरुस्थल में अपने प्राण बचाए जा सकते हैं -)
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(२)
(द्वितीय प्रस्तुति)
कुंडलियाँ
चश्में चौदह चक्षु चढ़, चटचेतक चमकार ।
रेगिस्तानी रेणुका, मरीचिका व्यवहार ।
मरीचिका व्यवहार, मरुत चढ़ चौदह तल्ले ।
मृग छल-छल जल देख, पड़े पर छल ही पल्ले ।
मरुद्वेग खा जाय, स्वत: हों अन्तिम रस्में ।
फँस जाए इन्सान, ढूँढ़ नहिं पाए चश्में ।।
मरुकांतर में जिन्दगी, लगती बड़ी दुरूह ।
लेकिन जैविक विविधता, पलें अनगिनत जूह ।
पलें अनगिनत जूह, रूह रविकर की काँपे।
पादप-जंतु अनेक, परिस्थिति बढ़िया भाँपे ।
अनुकूलन में दक्ष, मिटा लेते कुल आँतर ।
उच्च-ताप दिन सहे, रात शीतल मरुकांतर ।।
रेतीले टीले टले, रहे बदलते ठौर।
मरुद्वेग भक्षण करे, यही दुष्ट सिरमौर ।
यही दुष्ट सिरमौर, तिगनिया नाच नचाए ।
बना जीव को कौर, अंश हर एक पचाए ।
ये ही मृग मारीच, जिन्दगी बच के जीले ।
देंगे गर्दन रेत, दुष्ट बैठे रेती ले ।
मृगनैनी नहिं सोहती, मृग-तृष्णा से क्षुब्ध ।
विषम-परिस्थित सम करें, भागें नहीं प्रबुद्ध ।
भागें नहीं प्रबुद्ध, शुद्ध अन्तर-मन कर ले ।
प्रगति होय अवरुद्ध, क्रुद्धता बुद्धी हर ले ।
रहिये नित चैतन्य, निगाहें रखिये पैनी ।
भ्रमित कहीं न होय, हमारी प्रिय मृग-नैनी ।।
चश्में=ऐनक / झरना
चटचेतक = इंद्रजाल
रेणुका=रेत कण / बालू
मरुद्वेग=वायु का वेग / एक दैत्य का नाम
मरुकांतर=रेतीला भू-भाग
जूह =एक जाति के अनेक जीवों का समूह
आँतर = अंतर
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(तृतीय-प्रस्तुति )
सवैया
लूट रहे ज़र-ज़ोरु-ज़मीन भिड़ें खलु दुष्ट करें मुँह काला ।
भीषण रेगिसतान-मसान समान लगे मम देश विशाला ।
मारिष मानुष मोद मिले, मगदा मकु मोंहिं मिले मणि-माला ।
दुष्टन के दशद्वारन को दशबाहु दहाय मिटा दनु-हाला ।।
मारिष = सूत्रधार मगदा = मार्ग दिखने वाला मकु=कदाचित / चाहे
मणि-माला = रुद्राक्ष दशद्वारन = दश द्वार / देह द्वार दशबाहु = शिवशंकर
दोहे
हवा-हवाई रेत-रज, भामा भूमि विपन्न ।
रेतोधा वो हो नहीं, इत उपजै नहिं अन्न ।।
रेत=बालू / वीर्य
उड़ती गरम हवाइयाँ, चेहरे बने जमीन ।
शीश घुटाले धनहरा, कुल सुकून ले छीन ।।
(शीश घुटाले = सिर मुड़वाले / शीर्ष घुटाले धनहरा = धन का हरण करने वाला )
भ्रष्टाचारी काइयाँ, अरावली चट्टान ।
रेत क्षरण नियमित करे, हारे हिन्दुस्तान ।।
कंचन-मृग मारीचिका, विस्मृत जीवन लक्ष्य ।
जोड़-तोड़ की कोशिशें, साधे भक्ष्याभक्ष्य ।|
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श्री अशोक कुमार रक्ताले
(१)
रुपमाला छंद (हर पंक्ति में २४ मात्राएं,१४ पर यति अंत में पताका)
भ्रूण ह्त्या,पाप जानो, है न कन्या भार,
मोह कैसा पुत्र का है,दो उसे भी प्यार,
बाढ़ होगी परिवार की,है नहीं आधार,
आज कन्या से बसा है,पूर्ण ही संसार
पुत्र से सेवा मिलेगी,व्यर्थ का है लोभ,
मृग मरीचिका मनुष्य की,हो न कोई क्षोभ,
मातु बाबा का जगत में,पुत्री रखे ध्यान,
मान रे मानव यही है,सत्य तू पहचान.
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(२)
दोहे (चार चरण विषम चरण १३,१३ मात्रा,
सम चरण ११,११ मात्रा सम चरणान्त गुरु लघु)
धवल स्वर्ण उज्वला सी,दमके मरू कि रेत,
प्यासा मृग भी भागता,तहं जल छवि को देख
दूर तक एक बूंद भी,मिल उसे नहीं पाय,
आँख पर मरीचिका का, समुद्र ही लहराय
होए मूर्छित मूर्ख बन,मन ही मन पछताय,
प्राण तजे खोल आँखे,बस निरखता जाए
देखकर मृत्यु धरा भी,चैन उसे नहि आय,
कोसती मरू कोख को,जो नीर न दे पाय
रेतीली इस धरा पर, हो नीर भरे कुंड,
विहगों के हों बसेरे,मृगों के यहाँ झुण्ड
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(३)
घनाक्षरी
मनहरण(३१ वर्ण. १६ और १५ वर्ण पर यति,८,८,८,७ कि संरचना और अंत में गुरु)
रेतीले पथ पर भी, सागर लहराता है, जब कर्मठता छोड़,मनु खुशी पाता है.
झूठी चमक दमक,छल मानव मन यहाँ,खुले नेत्र दर से भी,देख नहीं पाता है.
खुश होता है दूर के,ढोल सुहावने देख,मन ही मन उत्सव,भी खूब मनाता है,
रोता विलापता खूब, हकीकतें जानकर, आता सत्य के समीप,और पछताता है,
जनहरण(३१ वर्ण. ३० वर्ण लघु अंत एक गुरु)
तप तप कर यह पथ चमक उठत,झलक नजर जलकण भ्रम कर दे,
सकल जगत मनुज निरखत जलधि,छवि तरसत छुअन अगन भर दे,
जबहि यह सबक समझ धरत पग,मिलल मनुज जनम सफल कर ले,
नयन दरस मति भरम छल समझ,फिर करि करम जगत मन हर ले,
भर = केवल
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श्रीलक्ष्मण प्रसाद लडीवाला
(१)
प्रथम रचना दोहे
अथाह जल भूगर्भ में, रखे रेत की शान ,
आते ये पञ्च तत्व में,रखना इनका मान ।
जेठ की दुपहरी में, जलता यह संसार,
जलता यह संसार है,बरसे जो अंगार |
पगतले की माटी को,सेक रहा दातार,*
छाया देते पेड़ की, हमको है दरकार |
पत्थर के डूंगर खड़े, जंगल रहे न बेर,*
ठंडी छाँव कैसे मिले, करे ईश से टेर |
जो चाहो कल्याण तो, करो न कोई देर,
छाँव मिले आराम हो,फिर लगाओ पेड़ |
सिर पर नहीं पाग*है, कट गये सारे पेड़,
कट गये सारे पेड़ अब,चरे न कोई भेड |
चाहो अमृत पान तो, करो न जल बर्बाद,
करो न जल बर्बाद अब,करो बाँध आबाद |
मृग मरीचिका जिन्दगी, भ्रम का पकडे हाथ,
कष्ट भरी यह जिन्दगी, वृक्ष मित्र रख साथ |
वृक्ष मित्र का साथ रख, रखना इनका मान,
साथ निभा फल देत है, कर गये गुरु बखान |
पशु-पक्षी की जिन्दगी, पेड़ पर ही डेरा,
पेड़ बिना सब जीव मरे,किसे नहीं बेरा |
उड़ते पक्षी ढूंढ़ रहे, हरे पेड़ की छाँह,*
हरे पेड़ की छाँव में, जीव करे निर्वाह ।
*दातार =भास्कर *बेर =फल
*पाग =(पगड़ी) * छाँह =छाँव
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(२)
आजादी का जश्न ? (दोहे)
पँछी चिन्तित हो रहे, देख नगर की भीड़,
हरे वन अब नहीं रहे,कहाँ बने अब नीड |
काँटे सारे पेड़ झट, आंव देखा न तांव,
छाले नंगे पाँव में, नहीं रही अब छाँव |
पेड़ बिना पर्यावरण, नहीं कभी रह पाय,
गाडी चले धुँआ उड़े, प्राण कहाँ रह पाय |
मरू देश में निकल रही,सरस्वती की धार,
यमुना निर्मल ना रही, करते हाहा कार |
मेघ से जल जब बरसे,पानी का हो मान,
पवित्र न गंगा जल रहा, यह भरी अपमान |
आजाद हुआ देश तो, दिल हुआ गुलजार,
मृग तृष्णा साबित हुआ, मन का यह गुब्बार |
मृग मरीचिका ही रहा, आजादी का जश्न,
जल तक से महरूम हुए, कौन करे अब प्रश्न |
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(३)
दोहे
भूतल में न जल रहा, पेड़ करे क्या छाँव
नल कूपों में जल नहीं, देख हमारे गाँव |
पनघट अब दिखते नहीं, खाली है नल कूप,
धरती का जल दौह कर,करो न और कुरूप |
सड़क किनारे पेड़ नहीं,तन को कही न छाँव,
पंछी यहाँ आवे नहीं, नहीं रहा अब चाव |
जंगल में ही नाचते, नागिन हो या मोर,
जंगल ही जब ना रहे, कहाँ मचाये शौर |
मृग मरीचिका सी लगी, जले विरह की आग,
जंगल जंगल भटकते, इच्छाधारी नाग |
हंसती धरती रो पड़ी, उसकी पीड़ा मौन,
बदरा बैरी हो गये, सुध लेवे अब कौन |
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श्री विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी
॥दोहा छंद॥
(प्रत्येक चरण में 13,11=24मात्रायें)
हरी भरी धरती बनी,मानों रेगिस्तान।
छोड़ पखेरू उड़ चले,जैसे तन को प्रान॥
बिहगों को संदेश दे,भेज रहा है थार।
वन विनाश अब बंदकर,मुझे करो गुलजार॥
सारी धरती रेतमय,अम्बर में भी रेत।
दूर क्षितिज में भटकता,हरियाली का प्रेत॥
चार वृक्ष हैं यों खड़े,ज्यों वृद्धा के दांत।
नहीं सहायक भोज्य में,हिलकर दें संताप॥
सूनी इस मरूभूमि में,चंद वृक्ष लहराय।
भ्रष्ट देश को चंद जन,जैसे रहे जगाय॥
यहां कहां अब नीर है,चहुंओर उड़े बस रेत।
निज करनी का फल मिला,फिर भी नहीं सचेत॥
यह है मृगमारीचिका,या हम समझे नीर।
या दोनों ही मिल गये,संकट ये गम्भीर॥
पागल मृग सम है मनुज,मरु में पानी आस।
नीर नहीं मिलता कभी,और बढ़े पर प्यास॥
प्यासा ही मृग मर गया,अपना किया विनाश।
ऐसे ही मनु मर रहा,धोखा हुआ विकास॥
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श्रीमती राजेश कुमारी जी
(प्रतियोगिता से बाहर)
(१)
कुंडलिया छंद
धोखा है ये आँख का ,मनुज समझ ना पाय
छाया वो संतुष्टि की,बाहर खोजत जाय
बाहर खोजत जाय ,लिए दिल में अँधेरा
अपने हिय में झाँक ,वहीँ है प्रभुवर तेरा
प्यासे को दिखलाय ,मरुस्थल खेल अनोखा
मृग को तो भरमाय ,खुली आँखों का धोखा
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(२)
(प्रतियोगिता से अलग )
" बरवै "
बरवै (चार चरण : विषम चरण - १२ मात्रा व सम चरण -७ मात्रा सम चरणों का अंत गुरु लघु से )
हे असंतुष्ट मानव ,यूँ मत भाग
मृग मरीचिका है ये ,सुन अब जाग
दर-दर क्यों भटक रहा ,तज निज गाँव
रेगिस्तान में मिले ,कैसे छाँव
अंतर घटक में बसी ,सागर स्रष्टि
बाहर ढूंढता फिरे ,निर्मल वृष्टि
नाभी में कस्तूरी ,पर बहि खोज
रेत में है जल भ्रमित ,होता रोज
ढक ले चादर उतने , पैर पसार
समझ गया जो उसका , बेड़ा पार
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श्री संदीप पटेल "दीप"
(१)
दोहे
१.
रेतीले टीले उड़ें, हवा चले जिस ओर
नेताओं की जात से, दिखें अलग हर भोर
२.
तृष्णा बढ़ बढ़ जा रही, देख सरस जलधार
किरण प्रभाकर की छले, तड़प उठे नर-नार
३.
सत्ता मृग मारीचिका, बाँधे केवल आस
आस बाँध के भागती, दिखें नहीं फिर पास
४.
मरू में पानी खोजना, ज्यों आंधी में दीप
संत स्वयं में खोजना, ज्यों सागर में सीप
५.
बंजर धरती में मिले, अति शीत अरु ताप
ह्रदय शुष्क हो नेह बिना, पाए दुःख संताप
६.
बिन पानी के धूल हैं , माटी हो या प्यार
रेत उड़े जस "थार" में ,पग पग चुभते खार
७.
प्रेम बिना मन को मिले, टीस और धुत्कार
हरियाली पानी बिना, मरुस्थल संसार
८.
बिन सजनी के हो गया, बंजर मन का बाग़
प्रेम पुष्प मुरझा गया, विरहा की है आग
९.
नागफनी से यार हैं, ध्यान रखो ये आप
दूर रहें अच्छे रहें, गले लगाना पाप
१०.
घास फूस तक सूखती, दर दर उड़ती रेत
बिन पानी के हो रहे, बंजर सारे खेत
____________________________________
(२)
सभी आदरणीय गुरुजनों, अग्रजों और सम्मानीय सदस्यों को सादर प्रणाम सहित
आज मंच में मेरी दूसरी प्रस्तुति घनाक्षरी छंद के रूप में कर रहा हूँ
देख देख बढ़ रही तृष्णा हमारी आज
मरु में जो बह रहा, जल है मारीचिका
रेत रेत चहुँ ओर, नागफनी सब ठौर
कैसे आया जल यहाँ, छल है मारीचिका
मन रुपी मृग भागे, लालसा में धीर त्यागे
बड़ा ही मायावी देखो, खल है मारीचिका
माया रुपी ख्वाब पाले, अंधे होते आँख वाले
अँखियों को ठगता जो, पल है मारीचिका
_______________________________________________
(३)
सात सोरठे
मोह बिछाए जाल, मन मृग उलझे धीर तज
तृष्णा बनती काल, बढ़ बढ़ जाती पीर अज
मरुथल उड़ती धूल, पग पग में कांटे चुभे
नागफनी का फूल , थके पथिक के मन लुभे
असमंजस की बात, मरुथल में पानी बहे
माया खल की जात, आँखों को ठगती रहे
चाँद उतरता थाल, बालक को मोहित करे
ठगता माया जाल, स्वर्ण बने हिरना फिरे
वस्त्रों की ले खाल, निर्धन भी दिखता धनी
लालच बनता काल, जड़ से ज्ञानी की ठनी
प्यासे को है आस, हराभरा मरुथल बने
बुझे पथिक की प्यास, पानी से माटी सने
सत्ता का है लोभ, हाथ जोड़ दर पर खड़े
करे एक पल क्षोभ, दूजे पल अकड़े लड़े
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श्री संजय मिश्र "हबीब"
"रूपमाला छंद"
(प्रतियोगिता से पृथक)
उड़ रहे सब पात बनकर, रख न पाया दाब।
रेत के तूफान में फंस, श्वांस खोते ख्वाब॥
कंठ, आँखें जल रही हैं, ज्वाल बनकर, प्यास !
नाचती मुख पर सजाये, क्या अजब उल्लास॥
बह रही जो सुप्त धारा, उर लिए कुछ बिम्ब।
मिल रहा आभास है वह, काल का प्रतिबिम्ब॥
बन प्रदूषण सर्प, मानो, मारता है दंश।
नष्ट कर पर्यावरण तू, मेटता निज वंश॥
हाथ अपने लिख रहा क्यूँ, सृष्टि का अवसान।
चेत अब भी वक़्त है रे, हे मनुज नादान॥
जाग मद से, नींद तज कर, आप घोषित भूप !
उठ बचा ले शेष हैं जो, हर्ष के प्रतिरूप॥
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(२)
कुण्डलिया (दो दृष्टिकोण)
प्रतियोगिता से पृथक
(1)
मरीचिका मुखरित हुई, हरियाली है मौन।
धुंकती धरती की व्यथा, यहाँ सुने कब कौन?
यहाँ सुने कब कौन, चीर उर किसे दिखाये?
अपने ही जब पूत, समझ सब कुछ भरमाये!
सम्हलें रहते वक़्त, वक़्त न बने विभीषिका।
रोपें हरियर स्वप्न, मिटाने को मरीचिका॥
(2)
मन मरु आँगन हो गया, अंधड़ चारों जून।
अंजन रीता नेह का, अँखियाँ कितनी सून॥
अँखियाँ कितनी सून, तमस बन द्वेष बिखरता!
खोता जाता सत्य, सहम कर स्वयं प्रखरता॥
काँटों के सँग होड, पुष्प का चीथे दामन।
ऐसे ही इनसान, बना बैठा अपना मन॥
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सादर
संजय मिश्रा 'हबीब'
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श्री अरुण कुमार निगम
दुर्मिल सवैया ( 8 सगण ,अर्थात 8 X IIS )
मृग नैन बड़े कजरार कहे , मरुभूमि जलाशय हैं छलके
नहिं जान सके पहचान सके , अति सुंदर जाल बिछे छल के
यह मोह बुरा यह लोभ बुरा , सब भस्म हुए इसमें जल के
भ्रमजाल में फाँस गई तृसना,नहिं स्त्रोत मरुस्थल में जल के ||
(तृसना = तृष्णा)
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श्री उमाशंकर मिश्रा
छप्पय (प्रथम चार चरण रोला ११,१३, अंतिम दो चरण उल्लाला १५,१३,)
(प्रतियोगिता से बाहर )
चिलचिला रही धूप, जले धरती का तन है
धू धू चले समीर, लगे पानी का भ्रम है
आँखों में हों दृश्य, लहरता जल संगम है
बढ़ती जाए प्यास, हिरन का भागे मन है
मानव ख्वाब है देख रहा,लेकर चाह खुशियों की
मन चाह पर है भाग रहा, आशक्ति क्षल विषयों की
************************************************************************
इं० अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'
प्रतियोगिता से अलग)
छंद मदन/रूपमाला
(चार चरण: प्रति चरण २४ मात्रा , १४, १० पर यति चरणान्त में पताका)
तप गए थे रेत में हम, प्यास थी भरपूर
स्वच्छ जल सुन्दर जलाशय, तब दिखा कुछ दूर
थे बने प्रतिबिम्ब उलटे, आसमां में मीत
देख जिसको तृप्त आँखें, प्रीति गाये गीत.
पग थके चल दूर फिर भी, थे चकित धर माथ
प्यास ज्यों की त्यों हमारी, कुछ न आया हाथ
थे ठगे से रह गए हम, खो गयी थी शक्ति
कामना ही है फँसाती, ज्ञान से ही मुक्ति.
***********************************************************
श्री रवि कुमार गिरि
घनाक्षरी छंद
(१).
हिन्द की पावन भूमि , उत्तर में हरियाली,
पश्चिम में रेत देखो , धरती मुस्कात हैं !
सर हैं हिमालय सा, सागर पखारे पाव ,
मरूभूमि वीरों वाली, यही खास बात हैं ,
देखिये रेतों के टीले, जल के लहर जैसी
चाहत पानी के लिए, देखो भागे जात हैं ,
भारत की धरती ये , सबसे अलग दिखे ,
प्रभु की सौगात बड़ी, अपने ये साथ हैं !
_____________________________________
(२)
घनाक्षरी छंद
कण - कण जीवन के , संग संग नैनन में ,
ये प्यासे मन विकल , इसकी ये चाह हैं ,
.
नदियों सा दिख रहा , पेड़ दिखे यहाँ वहां ,
मन को विस्वास यही , वहां देखो छाह हैं ,
.
इधर उधर गए , फिर से ठहर गए ,
रेत ही बस रेत हैं , मन में ये आह हैं ,
.
यही तो जीवन सत्य , जिसने समझ लिया ,
इश्वर को पाने वाली , यही अच्छी राह हैं ,
**************************************************************
श्री योगेन्द्र बी० सिंह आलोक सीतापुरी
छंद कुंडलिया - (दोहा + रोला)
हरियाली करती भ्रमित, मृग भटके उस ओर|
जहाँ तपन होती प्रबल, मृगमरीचिका घोर|
मृगमरीचिका घोर, दिखे मरुथल में पानी|
प्रतिबिंबित आकाश, समझ पाते हैं ज्ञानी|
कहें सुकवि आलोक, करिश्मा खाम-खयाली|
दिवा स्वप्न की भाँति, मरुस्थल में हरियाली||
आलोक सीतापुरी
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(२)
मत्तगयन्द सवैया
( चार चरण प्रति चरण सात भगण + दो गुरु )
आय मरीचिक छाँह दिखे प्रतिबिम्ब क छाँह छहावति नाही
भागति भागति रोइ रहा जल देखि रहा मुल पावति नाही
झील लखै हिरना मनवा जन आतप प्यासि बुझावति नाही
हे गणतंत्र प्रनाम तुम्हें तुम काहू क भूख मिटावति नाहीं||
छाँह : छाया, छहावति : शीतलता देना, मुल : लेकिन, लखै : देखना, हिरना : हिरण, मनवा : मन ,
काहू : किसी की भी, आतप : तपन, प्रनाम : प्रणाम
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श्रीमती सीमा अग्रवाल
दोहे
(प्रतियोगिता से पृथक )
झूठे जल की खोज में ,क्यों भटके दिन रात
पर दुख में जो जल बहे, वो अनुपम सौगात
प्रगतिवाद नित सींचता ,ख़ुदग़र्जी के खेत
रिश्ते फिसले हाथ से ज्यों मुट्ठी से रेत
धूप छाँव सी दिख रही ,छाँव दिखे ज्यों धूप
बिन चिंतन बिन मनन के,जीवन अंधा कूप
जाल बिछे हैं मोह के,माया के हर ओर
मृग मरीचिका में फंसी ,जीवन की हर भोर
क़ुदरत के सब रूप हैं,सागर या मरुदेश
उत जल की लहरें उठें, इत सिकता आवेश
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श्री पियुष द्विवेदी ‘भारत’
प्रथम प्रविष्टि दोहा
मृगमरीचिका अब मिले, जीवन के हर क्षेत्र !
वैद्य गुरु नेता सबसे, धोखा पाते नेत्र !
वैद्य धर्म निज भूलकर, करन लगा व्यापार !
प्रथम बढ़ाता रोग को, फिर करता उपचार !
करता नही गुरु भी अब, जरा-सा विद्यादान !
प्रति-पुस्तक के भाव से, बेच रहा है ज्ञान !
ज्ञान भी ऐसा देत कि, कुछ ना सद्गुण आय !
ज्ञानोद्देश्य एक हुवा, धन कैसे उपजाय !
झूठ गुण्डई बेशर्मी, जिसमे मिले समान !
‘भारत’ युग में आज के, नेता वो इंसान !
जन को दे महंगाई, लूटत लाख हज़ार !
नेता ही अब कर रहा, लोकतंत्र पर वार !
मृगमरीचिका प्रेम में, स्वारथ लाया खास !
भाई-भाई शत्रु हुवे, खतम हुवा विश्वास !
मृगमरीचिका और भी, जीवन राह अनेक !
नर वही बचता इनसे, जिसमे दृढ़ सुविवेक !
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श्री सौरभ पाण्डेय
कुण्डलिया
(प्रतियोगिता से बाहर)
डोरी और भुजंग सा, मरीचिका का ज्ञान
द्वैत निपट अद्वैत में, अंतर होता भान
अंतर होता भान, समझ कहिये गहरी हो
छँटता वृत्ति विभेद, चेतना जब निखरी हो
’एक’ सदा आधार, मरु की सीख ये कोरी
"जीवन-मृग को साध, मनस को दे कर डोरी.."
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श्री अब्दुल लतीफ़ खान
दोहे
दृश्य मरुस्थल का कहे , बिन पानी सब सून .
प्यासा मानव पी रहा , मानव का ही ख़ून ..
रेत का यह सागर तो , लगता नरक समान .
किस मारग जाए पथिक, नहीं दिशा का ज्ञान ..
सूरज आग उगल रहा , बढ़ता जाए ताप .
वन बिना यह जीवन है , जैसे इक अभिशाप ..
शीत लहर के गुण नहीं , यह जग रेगिस्तान .
दया-प्रेम की बात अब , केवल ओस समान ..
वादों की मरू भूमि में , जनता हुई हलाल .
राज-नीति वेश्या भई , नेता भये दलाल ..
तपती रेत मरुस्थल की , कहती मन की पीर .
इस याचक को दे ख़ुदा , शीतल नीर समीर ..
हर मरुथल उपवन बने , ऐसा करें उपाय .
पंथी को छाया मिले , मीठे फल सब पांय ..
तृषित मानव भटक रहा, कहीं न शीतल नीर .
मरू भूमि सी यह दुनिया, बात बड़ी गंभीर ..
आओ मानें जंगल को , हम अपना भगवान ..
धरती माँ देगी तभी , जीवन का वरदान ..
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डॉ० प्राची सिंह
दोहा छंद (१३,११) के दो पद , अंत में पताका.
(प्रतियोगिता से बाहर )
थार ज्ञान मारीचिका, उलझा प्रादुर्भाव /
साक्ष्य खोजते बुद्धजन, धुँध में छिपे अलाव //१//
पगचिन्हों का मोह तज, कर्मठ जीवन होय /
संचय, ढेरी रेत की, काल कर्म संजोय //२//
मरुधर में ज्यों जल छले, प्यासे को दे आस /
त्यों ही जग के मोह सब, वृथा हरें हर श्वाँस //३//
मोह बंध सब रेत हैं, पल पल फिसले जायँ /
क्षण भंगुर सा चैन दे, मन अंतर भरमायँ //४//
जल रहता निश्छल सदा, हो सागर या ताल /
बिम्बित करता सत्य को, हर युग में हर हाल //५//
इन्द्रि पिपासा न बुझे, माया का यह खेल /
ज्ञान पिपासा जब जगे, आनंदित हर मेल //६//
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श्री धर्मेन्द्र शर्मा
दो दोहे
(प्रतियोगिता से अलग)
नेता नेता कहकशां, जन मरुधर की रेत
सत्ता की चौपाल से, दिखें हरे से खेत
तपती धरती आग सी, पर कीकर की छाँव
चकाचौंध सब दूर हो, बढ़ें ज्ञान के पाँव
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आदरणीय अम्बरीश जी सभी रचनाओं को एक मंच पर बेहतरीन तरीके से सजाने हेतु हार्दिक आभार |
धन्यवाद आदरेया राजेश कुमारी जी !
धन्यवाद अनुज, आज रविवार को कुछ अवसर मिल गया तो यह आवश्यक कार्य संपन्न हो गया !
आदरणीय अम्बरीश श्रीवास्तव जी, संकलन के तोहफे का इंतज़ार तो हर बार रहता है, पर इस बार इंतज़ार का मौका ही नहीं आया. हार्दिक आभार इस शीघ्र संकलन के लिए.
धन्यवाद डॉ० प्राची जी !
शुभ-शुभ.. . शीघ्रता को सम्मान के साथ बधाई.
स्वागत है आदरणीय .....आपकी बधाई 'शीघ्रता' को ससम्मान प्रेषित कर दी गयी है :-)
सादर
:-))
आपकी संलग्नता, तत्परता और साहित्य प्रेम को बारम्बार नमन
स्वागत है आदरणीय लक्ष्मण जी, हार्दिक आभार !
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