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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा"अंक २८ (Closed with 649 Replies)

परम आत्मीय स्वजन,

 

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" के २८ वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार मेरी दिली ख्वाहिश थी कि ऐसा मिसरा चुना जाय जिसकी बह्र एकदम नयी हो अर्थात इस बह्र पर पिछला कोई मुशायरा आयोजित न हुआ हो| मिसरा भी ऐसा हो जिसके काफिये और रदीफ सामान्य होँ| बड़ी मशक्कत के बाद जो मिसरा मुझे मिला वो भारत के महान शायर जनाब बशीर बद्र साहब की एक गज़ल का है जिसकी बह्र और तकतीह इस प्रकार है:

"खुद राह बना लेगा बहता हुआ पानी है"

२२१ १२२२ २२१ १२२२

मफऊलु मुफाईलुन मफऊलु मुफाईलुन
(बह्र: बहरे हज़ज़ मुसम्मन अखरब)
रदीफ़ :- है
काफिया :- आनी (पानी, निशानी, कहानी, जवानी, जानी आदि)


मुशायरे की शुरुआत दिनाकं २७ अक्टूबर शनिवार लगते ही हो जाएगी और दिनांक २९ अक्टूबर दिन सोमवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा |

अति आवश्यक सूचना :-

  • "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" के इस अंक से प्रति सदस्य अधिकतम दो गज़लें ही प्रस्तुत की जा सकेंगीं |
  • शायर गण एक दिन में केवल एक ही ग़ज़ल प्रस्तुत करें
  • एक ग़ज़ल में कम से कम ५ और ज्यादा से ज्यादा ११ अशआर ही होने चाहिएँ.
  • शायर गण तरही मिसरा मतले में इस्तेमाल न करें.
  • माननीय शायर गण अपनी रचनाएँ लेफ्ट एलाइन एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें.
  • वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें.
  • नियम विरूद्ध एवं अस्तरीय रचनाएँ बिना किसी सूचना से हटाई जा सकती हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी. .

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

 

फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो २७ अक्टूबर दिन शनिवार लगते ही खोल दिया जायेगा, यदि आप अभी तक ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार से नहीं जुड़ सके है तो www.openbooksonline.com पर जाकर प्रथम बार sign up कर लें |



मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन

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Replies to This Discussion

ज़हेनसीब, जी ज़रूर! आपसे मुलाक़ात के दिन मैंने गिनने शुरू कर दिए हैं, आप जब भी हुक्म करें.

बड़ी हैरत की बात है मेरे लिए कि आज तक मैं इस बात से गाफिल रहा कि आप भोपाल सूबे की सरज़मीं से हैं. ऊपर वाले की मेहरबानी होगी अगर आपकी सुहबत से कुछ सीखने को मिले. कुछ रोज़ कब्ल जनाब डॉक्टर आज़म (आसान अरूज़ के लेखक) से मुलाक़ात हुई थी और वो मेरे घर भी तशरीफ़ लाए थे. सीखने की कदोकाविश में भोपाल के ही जनाब मुस्लिम सलीम साहेब (जो खुद भी एक शाइर और  अखबारनवीस हैं) के घर खानूं गाँव भी पहुँच गया और अब उनसे भी अच्छी रब्त कायम हो गयी है. 

सादर! 

खुश्‍बू-ए-मुहब्‍बत की इक पौध लगानी है।..nek khayal...wah!

सुरसा सी ज़रूरत हैं बेटे की मगर बेटी 
चुपचाप ही रहती है कितनी वो सयानी है।..is sher pe nat-mastak hu.

मानिन्‍द परिंदों के मिलते हैं बिछुड़ते हैं 
जन्‍मों की कसम खाना, किस्सा या कहानी है ।..wah janab wah...

चर्चा न करूँ क्‍यूँ कर दुनिया से मुहब्‍बत की   
सच्‍ची है मुहब्‍बत तो क्‍या बात छुपानी है।..khoobsurat.

जाते हुए लम्‍हों का भरपूर मज़ा ले लो 
इक बार गयी रुत ये कब लौट के आनी है।...kya seekh de gaya ye sher..wah-wah.

अपने ही किनारों से मंजि़ल का पता लेगा
खुद राह बना लेगा, बहता हुआ पानी है। ..Tilak raj Kpoor sahab...ek behatareen gazal baraso bad padhi...wah..

 

शुक्रिया अविनाश जी।

आदरणीय तिलक जी, हर अश'आर ज़िंदगी की हकीकत को बयां कर रहा है, इस बेहतरीन गज़ल पर दिली दाद कबूल फरमायें.

धन्‍यवाद अरुण जी।

दुनिया ने वफाओं पर बन्दूक क्यों तानी है
कहते थे की वफायें रब की ही निशानी है

रफ़्तार-ए-ज़िन्दगी की कैसी ये कहानी है
साँसों की हकीकत है धड़कन कि जबानी है

इक बीज वो लाया है कि शाख बनायेगा
मुट्ठी भर मिटटी है ,चुल्लू भर पानी है

मशगूल हैं जाने किस मश्गले में यारों
इक पूल बनाना है दीवार गिरानी है

ज्यादा नहीं माँगा है हमने कभी खुदा से
अब ओस को ही चख के ,प्यास बुझानी है

पत्थर में ढूंढते हैं रब की शक्ल-ओ-सीरत
फजूल इबादत है मरहूम जवानी है

उसने किसी तोहफे से मुझको नहीं नवाज़ा
नज्मो की मुहब्बत है ग़ज़लों की निशानी है

लहरों से नाखुदा का राब्ता है कैसा
कश्ती भी बचानी है रोटी भी कमानी है

इक याद की खुश्बू से घर महक गया है
क्या इत्र की सीसी है क्या रात की रानी है

रूह से काग़ज़ तक अपना कलम कहेगा
खुद राह बना लेगा बहता हुआ पानी है

इस ज़मीन पे और उस नील आसमां तक
इक "मीर" का ज़ज्बा है "ग़ालिब" की बयानी है

भाई नीलांश जी, आपकी ग़ज़ल के भाव बहुत उन्नत हैं. मगर बह्र-ओ-वजन बहुत जगह हाथ छुड़ा-छुड़ा कर भाग रहा है. कई जगह भाषाई और व्याकरण सम्बन्धी त्रुटियाँ भी बदमजगी पैदा कर रही हैं. (मसलन चौथे शेअर में "पुल" की जगह "पूल", नौवें शेअर में "शीशी" की जगह सीसी", दसवें शेअर में कलम के साथ "कहेगा" का प्रयोग इत्यादि)   - ज़रा ध्यान दें. बहरहाल इस सद्प्रयास हेतु में दिली बधाई स्वीकार करें.

आदरणीय योगराज जी ,सर्वप्रथम माफ़ी चाहूँगा ,देर से आने का,मेरे ब्राउज़र में कुछ खराबी आ गयी थी,

आपका मार्गदर्शन मेरे लिए आशीर्वाद स्वरुप है ,मैं आगे से वर्तनी और व्याकरण पर ध्यान रखूँगा ,और ग़ज़ल को और भी अच्छी तरह से सिखने का प्रयास करूँगा ,

नीलांश भाई...बहुत सुंदर प्रयास..हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिये

आदरणीय धर्मेन्द्र जी आपका बहुत आभार

अच्‍छा प्रयास है। जारी रखें। प्रधान सम्‍पादक जी की बात का भी ध्‍यान रखें। ग़ज़ल पर पकड़ धीरे-धीरे ही आती है।

आदरणीय तिलक जी ,बहुत आभार आपका ,आपके मार्गदर्शन का सदैव आकांक्षी हूँ,और सदैव सिखने को प्रयासरत रहूँगा 

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