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नारी क्यों रोती है

सुंदर छवि पा,

नयन भर आंसू , नारी क्यों रोती है ?

 

मधुपों की प्रियतमा,

जग में जो अनुपमा,

शशि की किरणों की बाँहें थाम

कमलिनी निशा में खिलती है –

सुंदर छवि पा,

नयन भर आंसू , नारी क्यों रोती है ?

 

सागर की उत्ताल तरंगें,

चट्टानों से टकराती लहरें,

होती हैं क्यों छिन्न-भिन्न !

क्या है यह नज़रों का भ्रम

क्षितिज की मृगतृष्णा लिये,

धरा गगन को छूती है –

सुंदर छवि पा,

नयन भर आंसू , नारी क्यों रोती है ?

 

क्यों इच्छाओं का अंत नहीं ?

क्यों तृष्णा यह बढ़ती है ?

क्यों दूर सितारा जगता है,

जब सारी धरती सोती है –

सुंदर छवि पा,

नयन भर आंसू , नारी क्यों रोती है ?

 

( अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर – मौलिक एवम अप्रकाशित रचना )

 

 

 

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Comment by विजय मिश्र on March 18, 2013 at 12:58pm

स्वभाव से सदय और द्याद्र है नारी , भाव प्रधान जीवन इनका अंग है , मौन इनकी अभिव्यक्ति है और अतिरेक में अश्रु  ही शब्द बनते हैं और इसलिए शायद रोती है -नारी . प्रश्न करती हुई बढती यह कविता अनेक प्रश्नों का स्वेम में उत्तर है . सुंदर कविता प्रस्तुति , कुन्तिजी !

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on March 10, 2013 at 7:40pm

मेरे विचार से नारी के रोने का कारण हम पुरुष वर्ग हैं, जिसने आज तक नारी को उसके समानता का अधिकार नहीं दिया!

पुरुष की ही इच्छा तृष्णा आदि का अंत नहीं है इसीलिये तो आपने भी लिखा है-

क्यों इच्छाओं का अंत नहीं ?

क्यों तृष्णा यह बढ़ती है ?

क्यों दूर सितारा जगता है,

जब सारी धरती सोती है –

सुंदर छवि पा,

नयन भर आंसू , नारी क्यों रोती है ?

aadarneeya kuntee jee aapkee peeda wajib hai.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 9, 2013 at 2:17am

आदरणीया कुन्ती जी, आपकी रचना के मूल प्रश्न का उत्तर यह रचना स्वयं देती है.

क्यों इच्छाओं का अंत नहीं ?

क्यों तृष्णा यह बढ़ती है ?

क्यों दूर सितारा जगता है,

जब सारी धरती सोती है –

आपके कवि की संवेदना सत्यानुगामिनी है. तभी उसका स्वर स्पष्ट है. सगढ़ सोच से संवर्धित इस रचना के लिए अतिशय बधाइयाँ.

शुभेच्छाएँ.. .

Comment by mrs manjari pandey on March 8, 2013 at 10:27pm

आदरणीया कुंती मुखर्जी जी बधाई प्रश्नों की झड़ी लगाकर बात स्वीकार करवाने की . आज की स्थिति के लिए कोई और नहीं हम नारियां ही ज़िम्मेदार हैं

Comment by Vinita Shukla on March 8, 2013 at 9:09pm

मार्मिक और प्रभावी रचना. बधाई.

Comment by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on March 8, 2013 at 6:57pm

सुन्दर रचना ... 

Comment by ram shiromani pathak on March 8, 2013 at 4:01pm

आदरणीया, आपकी रचना मन को छू गई।

बधाई। आशा है आपकी ऐसी ही और कविताएँ

पढ़ने को मिलेंगी।

सादर,

Comment by राजेश 'मृदु' on March 8, 2013 at 12:57pm

अंगारों को

रख आंचल में

पल-पल आशा

बोती है

नयन कहां

इनके रोते हैं

ये धरती को

धोती है

ये है स्‍वाहा

यही स्‍वधा है

और त्रयी की

ज्‍योति है

सुंदर रचना हेतु बधाई

Comment by vijay nikore on March 8, 2013 at 12:22pm

आदरणीया, आपकी रचना मन को छू गई।

बधाई। आशा है आपकी ऐसी ही और कविताएँ

पढ़ने को मिलेंगी।

सादर,

विजय निकोर

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