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'किया' को 'करी' कर दें तो लिंग दोष मिट जायेगा. हर शे'र बढ़िया है. आप रंग में आगये हैं.
नयी पौध को देख कर लहलहाते
किया याद हमने हमारी मुहब्बत,
वाह वाह सर , साफ़ साफ़ कहिये ना कि.........याद आ गया मुझको गुजरा ज़माना .....
बहुत खूब सर, क्या साफगोई है , अच्छी ग़ज़ल उम्द्दा प्रस्तुति |
शेष धर जी ... आपकी कहने पर ये दूसरी वाली ...
खुदा की है ये दस्तकारी मुहब्बत
है किसने मेरे घर उतारी मुहब्बत
है बदली हुई वादियों की फिजायें
पहाड़ों पे हे बर्फ़बारी मुहब्बत
अमीरों को मिलती है ये बेतहाशा
गरीबों को है रेजगारी मुहब्बत
ज़माने के झूठे रिवाजों में फंस कर
लुटी बस मुहब्बत बिचारी मुहब्बत
है दस्तूर कैसा ज़माने क देखो
सदा ही है पैसे से हारी मुहब्बत
फटेहाल जेबों ने धीरे से बोला
चलो आज कर लो उधारी मुहब्बत
शुक्रिया शेष धर जी ...
है बदली हुई वादियों की फिजायें
पहाड़ों पे हे बर्फ़बारी मुहब्बत
वाह वाह !!
भास्कर जी ... शुक्रिया ...
भाई वाह
अमीरों को मिलती है ये बेतहाशा
गरीबों को है रेजगारी मुहब्बत
बधाई
शुक्रिया धर्मेन्द्र जी ...
दिगंबर ने अम्बर पहन कर करी है
दिशाओं - विमाओं से यारी- मुहब्बत..
दिल को छूते शे'र... बधाई...
सलिल जी आपका बहुत बहुत आभार ... आने ग़ज़ल को पसंद किया तो दिल में उर्जा सी भर आई ....
वाह दिगंबर साहब , पुनः एक उम्द्दा प्रस्तुति | दाद कुबूल कीजिये ....
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