For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ग़ज़ल- पर सुगम होगा सफ़र, लगता है // --सौरभ

दिन उगे का तो पहर लगता है
यों अभी थोड़ी कसर, लगता है..

साँस लेना भी दूभर लगता है
क्या ये मौसम का असर लगता है

क्या हुआ साथ चलें या न चलें
पर सुगम होगा सफ़र, लगता है

घोर आपत्तियों के मौसम में  
मौन तक आज मुखर लगता है

जोश अंदाज़ रवां दौर लिये  
मकबरा शांत इधर लगता है  

लोग दीवार उठायेंगे ही    
छत बना यार अगर लगता है

जब सभी पास रहें हँस-मिल कर
घर तभी प्यार का घर लगता है

बह रही शांत नदी के मन में  
एक उल्टी है लहर लगता है

सांत्वनाएँ जो मिलीं कुछ यों मिलीं
अब निवेदन से भी डर लगता है
*************

-सौरभ

(मौलिक व अप्रकाशित)

Views: 929

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by CHANDRA SHEKHAR PANDEY on April 16, 2014 at 1:13pm

लाजवाब ग़ज़ल और सार्थक परिचर्चा के लिए आभार, हार्दिक बधाई सर।

Comment by ram shiromani pathak on January 15, 2014 at 9:59am

सांत्वनाएँ जो मिलीं कुछ यों मिलीं 
अब निवेदन से भी डर लगता है //

बहुत सुन्दर ग़ज़ल  के लिए बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय सौरभ जी । .... सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 14, 2014 at 3:26pm

सभी सुधी पाठकों के प्रति सम्मान और कृतज्ञता के भाव साझा कर रहा हूँ जिन्होंने अपने अमूल्य समय में से कुछ पल इस ग़ज़ल को दिये. आप सबों की सदाशयता के लिए हार्दिक आभार.

एक तथ्य जिसकी तरफ़ सभी सम्मानित पाठकों का ध्यान चाहूँगा. इस ग़ज़ल के माध्यम से मैंने अपने ग़ज़ल सीखने के तौर को कुछ और विस्तृत करना चाहा था, एक प्रयोग करते हुए !

वस्तुतः ग़ज़लों में शब्दों के अक्षरो की मात्राओं के गिराने की परंपरा है. इस परंपरा में शब्दों का वास्तविक अर्थ न बदल जाये का होना बहुत मायने रखता है. यानि, इसके लिए भी एक मान्यता यह है कि मात्रा के गिरने से उस अक्षर का अर्थ न बदले. ध्यातव्य है कि किसी शब्द के पहले और अंतिम अक्षर की मात्राओं के गिराने की सुविधा मिलती है.
जैसे दीवाली - दिवाली, दीवाना - दिवाना आदि जैसे कई-कई शब्द हैं.

मैंने भी अपनी इस ग़ज़ल में इसी तौर पर दूभर शब्द का प्रयोग किया जिसके दू को बह्र के अनुरूप गिरा कर सुधी पाठकों से पढ़ने की अपेक्षा की थी.
आंचलिक भाषाओं में दूभर को भले दुभर कह दिया जाता हो लेकिन हिन्दी में यह शब्द दूभर ही है. यह मुझे अच्छी तरह से ज्ञात है. मैंने दूभर के दुभर रूप को इस ग़ज़ल के हुस्नेमतला में जान-बूझ कर इस्तमाल किया.

यहाँ ओबीओ पर तो कोई चर्चा ही नहीं हुई जबकि यह एक सीखने-सिखाने का मंच है, लेकिन यह स्पष्ट करूँ कि नशिस्तों और गोष्ठियों में मेरे द्वारा इस ग़ज़ल को पढ़े जाने के बाद इस पर अवश्य आवश्यक चर्चा हुई और बेहतर चर्चा हुई. इस ग़ज़ल की कहन पर भरपूर वाहवाहियाँ मिलीं, लेकिन साथ ही कतिपय श्रोताओं ने इस पर मुझे स्पष्ट तौर पर कहा कि दूभर शब्द को जैसे भी बाँधा गया हो, यह आपका यानि मेरा प्रयोग ही है.

आदरणीय एहतराम इस्लाम साहब ने तो साफ़ तौर पर कहा कि यह शेर वाकई ज़ानदार है लेकिन इसमें दूभर को आप दुभर की तरह इस्तमाल कर रहे हैं तो यह शुरुआती दौर है इसकी घोषणा अवश्य कर दीजिये. एक बहुत पते की बात उन्होंने कही, वो ये कि, क़ायदे से तो शब्दों की मात्राओं को तो गिराना ही नहीं चाहिये. अलबत्ता, है, हो, हूँ, था, थी या ऐसे कई शब्द या सर्वनाम या क्रियापद के शब्द जिनके गिराने से वाक्य बनाने में सहूलियत होती है, उनको गिराना समझ में आता है, ऐसी परिपाटी का प्रचलन हुआ ही इसीलिए कि कहन को प्रस्तुत करने में आसानी हो. इसी तर्ज़ पर तो बहुवचन आदि के लिए अवश्यक मात्राएँ गिरायी जाती हैं. अन्यथा शब्दों के अक्षर बार-बार गिराने से जितना हो सके बचना चाहिये भले उस तरह का प्रयोग किसी ने क्यों न किया हो.
यह वाकई बड़ी पते की बात कही उन्होंने.
अर्द्धवार्षिक पत्रिका ’ग़ज़लकार’ के सम्पादक दीपक रुहानीजी ने भी यही कहा कि शब्दों के ऐसे प्रयोग स्पष्ट हो कर कह दिये जाने चाहिये. यदि कोई इसे स्वीकार कर ले तो आपके माध्यम से एक उदाहरण बन जायेगा. कई और श्रोताओं ने भी अपने-अपने विचार साझा किये. इसी क्रम में वीनसजी का यह कहना था कि ऐसा प्रयोग चूँकि मैं कर रहा हूँ तो मुझे इसकी ज़िम्मेदारी लेनी पड़ेगी.

एक बात मैं अवश्य साझा कर दूँ कि शब्दों की महत्ता और उनकी अक्षरी के प्रति मैं कितना आग्रही हूँ यह इस मंच के सुधी पाठक भली-भाँति परिचित हैं.
 
ऐसे प्रयोगों से एक ख़तरा तो अवश्य यह रहता है कि आगे चल कर शब्दो की अक्षरी बदल जाये या विकृत हो जाये. इस लिहाज़ से पहले से भी कई शब्द हैं जिनमें से एक दो का ऊपर मैंने ज़िक़्र भी किया है, इसके साथ तिरा, मिरा आदि जैसे पचासों शब्द हैं जो शब्दों की अक्षरियों का खुल्लम्खुल्ला मज़ाक उड़ाते दीखते हैं. लेकिन ऐसे प्रयोग चूँकि बड़े शायरों ने कर रखे हैं तो ’पाप उनके सर मेरे नहीं’ कह-कह कर बाद के गज़लकार ऐसे शब्दों का ’पाया-मुण्डा’ खाते रहते हैं.

इसके परिप्रेक्ष्य में उर्दू साहित्य एक अज़ीब तरीका अपनाता है जो अन्य भाषाओं के लिहाज से अलहदा है. उर्दू शब्दकोशों में शब्द अपने उच्चारण और विन्यास (हिज्जे पढ़ें) के लिए किसी पुराने अथवा मान्यता प्राप्त शाइर द्वारा अपनाये गये लिहाज का मुखापेक्षी हुआ करता है. ऐसा अन्य भाषाओं में शायद ही होता है.
ऐसा कुछ करना उन शाइरों की महत्ता बताता है या शब्द-विज्ञान के तौर पर इस भाषा की कमी, इस बहस में मैं नहीं पड़ना चाहूँगा, लेकिन जो है सो है.

उपरोक्त आशय के परिप्रेक्ष्य में मुझे यह भी कहना है कि मात्राओं के गिराने के मान्यता प्राप्त नियम नहीं मिले, बस सारा कुछ अपनायी गयी परंपराओं पर ही आश्रित है. यही कारण है कि शब्दों के उच्चारणीय प्रयोग पूरी तरह से प्रयुक्तकर्ताओं पर निर्भर करते हैं. यह किसी नये रचनाकारों वह भी उन रचनाकारों जो कि उर्दू के लिहाज से वाकिफ़ नहीं है, परेशानी खड़ी कर देता है.  

मैं अब इस तथ्य पर एक बात अवश्य कहूँगा, कि शब्दों की गरिमा के प्रति मैं स्वयं भी कोई खिलवाड़ नहीं चाहूँगा. लेकिन ग़ज़ल में प्रयुक्त शब्दों की मात्राओं के गिराने की प्रथा में कोई ठोस या तथ्यपरक नियम का न होना पहले भी कई परेशानियाँ प्रस्तुत करता रहा है तो अब भी प्रस्तुत कर रहा है. अज़ीब सी स्थिति पहले भी बनती थी, अज़ीब सी स्थिति अब भी बन रही है.

मैं इस ग़ज़ल के हुस्नेमतला को अपने पास रखता हूँ.

फिलहाल, ऐसे शब्दों का अनुकरण न किया जाय. कारण कि, ऐसे में आगे चल कर शब्दों की अक्षरियों में विकृति के आने की संभावना बलवती हो जाती है.
सादर
 

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on January 8, 2014 at 10:14pm

घोर आपत्तियों के मौसम में  
मौन तक आज मुखर लगता है   वाह !!

जब सभी पास रहें हँस-मिल कर 
घर तभी प्यार का घर लगता है   वाह, बेहतरीन !!

बेहद सुन्दर ग़ज़ल, आदरणीय |

हार्दिक बधाइयाँ |

Comment by ajay sharma on January 7, 2014 at 11:07pm

लोग दीवार उठायेंगे ही    
छत बना यार अगर लगता है..........behatreen .............

Comment by AVINASH S BAGDE on January 7, 2014 at 11:00pm

घोर आपत्तियों के मौसम में  
मौन तक आज मुखर लगता है ...wah!

लोग दीवार उठायेंगे ही    
छत बना यार अगर लगता है ..sahi aashanka...


बह रही शांत नदी के मन में  
एक उल्टी है लहर लगता है ....bahut umda
सांत्वनाएँ जो मिलीं कुछ यों मिलीं 
अब निवेदन से भी डर लगता है ....sateek निवेदन karati शानदार gazal आदरणीय सौरभ सर 

Comment by MAHIMA SHREE on January 7, 2014 at 7:44pm

घोर आपत्तियों के मौसम में  
मौन तक आज मुखर लगता है

बह रही शांत नदी के मन में  
एक उल्टी है लहर लगता है

सांत्वनाएँ जो मिलीं कुछ यों मिलीं
अब निवेदन से भी डर लगता है ..... वाह क्या कहने है ... शानदार आदरणीय सौरभ सर .. हार्दिक बधाईयाँ , सादर


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on January 7, 2014 at 10:46am

सभी अश'आर खूबसूरत और मुकम्मिल हुए हैं, मगर मन्दरजा शेअर का लब्बो-लुबाब एकदम मुनफ़रिद है और यह बहुत कुछ कहता है:

//लोग दीवार उठायेंगे ही    
छत बना यार अगर लगता है //

पूरी की पूरी ग़ज़ल दिल को सुकून पहुँचाने वाली है. दिल से बधाई प्रेषित है आदरणीय सौरभ भाई जी. 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 7, 2014 at 6:58am

आदरणीय सौरभ भाई सदर अभिनन्दन , यूँ तो सम्पूर्ण ग़ज़ल आनंद दाई है पर यह शेर अत्यधिक मन को भा गया . हार्दिक धन्यवाद .

जब सभी पास रहें हँस-मिल कर
घर तभी प्यार का घर लगता है

Comment by कल्पना रामानी on January 6, 2014 at 11:38pm

वाह, वाह बहुत ही आनंद दाई गजल! उत्साह और सकारात्मकता से भरपूर

आदरणीय सौरभ जी, बहुत बहुत बधाई आपको-

ये शेर  विशेष  पसंद आए।

जब सभी पास रहें हँस-मिल कर
घर तभी प्यार का घर लगता है

बह रही शांत नदी के मन में  
एक उल्टी है लहर लगता है

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . . विविध
"आदरणीय जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय । हो सकता आपको लगता है मगर मैं अपने भाव…"
13 hours ago
Chetan Prakash commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . . विविध
"अच्छे कहे जा सकते हैं, दोहे.किन्तु, पहला दोहा, अर्थ- भाव के साथ ही अन्याय कर रहा है।"
16 hours ago
Aazi Tamaam posted a blog post

तरही ग़ज़ल: इस 'अदालत में ये क़ातिल सच ही फ़रमावेंगे क्या

२१२२ २१२२ २१२२ २१२इस 'अदालत में ये क़ातिल सच ही फ़रमावेंगे क्यावैसे भी इस गुफ़्तगू से ज़ख़्म भर…See More
yesterday
सुरेश कुमार 'कल्याण' commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post गहरी दरारें (लघु कविता)
"परम् आदरणीय सौरभ पांडे जी सदर प्रणाम! आपका मार्गदर्शन मेरे लिए संजीवनी समान है। हार्दिक आभार।"
yesterday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . . . विविध

दोहा सप्तक. . . . विविधमुश्किल है पहचानना, जीवन के सोपान ।मंजिल हर सोपान की, केवल है  अवसान…See More
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post गहरी दरारें (लघु कविता)
"ऐसी कविताओं के लिए लघु कविता की संज्ञा पहली बार सुन रहा हूँ। अलबत्ता विभिन्न नामों से ऐसी कविताएँ…"
yesterday
सुरेश कुमार 'कल्याण' posted a blog post

छन्न पकैया (सार छंद)

छन्न पकैया (सार छंद)-----------------------------छन्न पकैया - छन्न पकैया, तीन रंग का झंडा।लहराता अब…See More
yesterday
Aazi Tamaam commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल के
"आदरणीय सुधार कर दिया गया है "
Tuesday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post गहरी दरारें (लघु कविता)
"आ. भाई सुरेश जी, सादर अभिवादन। बहुत भावपूर्ण कविता हुई है। हार्दिक बधाई।"
Monday
Aazi Tamaam posted a blog post

ग़ज़ल: चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल के

२२ २२ २२ २२ २२ २चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल केहो जाएँ आसान रास्ते मंज़िल केहर पल अपना जिगर जलाना…See More
Monday
सुरेश कुमार 'कल्याण' posted a blog post

गहरी दरारें (लघु कविता)

गहरी दरारें (लघु कविता)********************जैसे किसी तालाब कासारा जल सूखकरतलहटी में फट गई हों गहरी…See More
Monday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

शेष रखने कुटी हम तुले रात भर -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

212/212/212/212 **** केश जब तब घटा के खुले रात भर ठोस पत्थर  हुए   बुलबुले  रात भर।। * देख…See More
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service