काव्यकर्म में पदों या पंक्तियों में तुकान्तता का बड़ा महत्त्व है. इनके बिना सार्थक और स्वीकार्य गेय रचनाएँ --अर्थात छंद, गीत, नवगीत आदि-- उचित नहीं मानी जानी चाहिये. कारण कि, गेय रचनओं के लालित्य और प्रस्तुतीकरण में भारी कमी आ जाती है.
अर्थात, काव्यकर्म में मात्र मात्राओं या वर्णों का ही निर्वाह न हो, बल्कि गेय (मात्रिक या वर्णिक) रचनाओं में उनके पदों या उनकी पंक्तियों का अन्त भी नियमानुकूल हो. इस तथ्य का कविगण अवश्य ध्यान रखें.
तुकान्तता के निर्वहन में मात्र अन्त्याक्षर ही नहीं मिलाये जाते बल्कि स्वर के अनुसार भी शब्दों का मिलाना आवश्यक हुआ करता है.
पदों या पंक्तियों के तुकान्त तीन तरह के होते हैं :
1) उत्त्म तुकान्तता
2) मध्यम तुकान्तता
3) निकृष्ट या अधम तुकान्तता
सलाह तो यही दी जाती है कि रचनाओं में गेयता और उच्चारण के अनुसार निकृष्ट या अधम तुकान्तता से उत्तरोत्तर बचने का प्रयास हो.
उदाहरण :
तुकान्तता उत्तम मध्यम निकृष्ट
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।ऽ खाइये, जाइये सूचना, बूझना देखिये, रोइये
।। आवत, जावत जागत, पावत साजन, दीनन
।।। नमन, गमन सुमति, विपति उचित, सुनत
।।।। बरसत, तरसत विहँसत, हुलसत अरुचित, तड़पत
ऽऽ मनाना, जनाना सहारा, सकारा विधाता, पलीता
ऽ। विधान, निधान सुधार, हज़ार सुधीर, कहार
अर्थात, तुकान्त में अंत्याक्षर और उनके स्वर का अनरूप भी अवश्य मिले हों, और जहाँ तक संभव हो, अन्त के ठीक पूर्व का अक्षर भी समवर्णी ही हो. यदि वह समवर्णी न बन पाये तो समान स्वर का तो अवश्य हो. इस कारण कविता सुनने और पढ़ने में सरस और सुगढ़ लगती है.
इस हिसाब से, उत्तम और मध्यम तुकांतता सर्वमान्य और स्वीकार्य हैं.
मात्र स्वर सामिप्य के आधार पर हुई तुकान्तता कर्णकटु लगती है. अतः सर्वमान्य नहीं है. इस तरह की किसी तुकान्तता से जहाँ संभव हो, बचना चाहिये.
वैसे हिन्दी भाषा के काव्यकर्म में अंग्रेज़ी या संस्कृत भाषा की तरह भिन्न तुकान्तता के भी प्रयोग हुए हैं. ऐसी तुकान्तायें पंक्तियों या पदों के शब्द संयोजन के आधार पर ही मान्य या अमान्य हुआ करती हैं.
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ज्ञातव्य : प्रस्तुत आलेख उपलब्ध साहित्य और मान्य सूचनाओं पर आधारित है.
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हार्दिक धन्यवाद भाई
इस आलेख की बड़ी आवश्यकता थी । यह आलेख रचनाकार को सही शब्द चयन में काफी मददगार है, सादर
हार्दिक धन्यवाद आदरणीय राजेश मृदु जी
सादर साभिवादन! नव प्रशिक्षु होने के नाते मैं इस साइट को अपने लिये अत्यंत उपयोगी पाता हूँ। साहित्य के लिये, काव्य रचना के लिये मूलभूत सिद्धांतों को समझना अति आवश्यक है। आदरणीय सौरभ जी केवल धन्यवाद के पात्र नहीं, हम जैसे प्रशिक्षुओं को सदैव उनका आभारी रहना चाहिये।
बहुत ही उपयोगी मंच……
हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय सूर्यकान्त जी.
आपकी रचनाएँ प्रतीक्षित हैं.
अतिआवश्यक, बहुत उपयोगी लेख ..धन्यवाद आदरणीय सौरभ पांडे सर
जय - जय
भाई राहुलजी, सर्वप्रथम आप हिन्दी में कोई तुकान्तता अपनाते ही नहीं. बल्कि पद्य के विभिन्न प्रारूपों में अपनाते हैं. चाहे वो छान्दसिक रचना हो, छन्द आधारित रचना हो, गीत हो या नवगीत हो. इस हिसाब से आपने तुकान्तता के तौर पर तीन तरह की तुकान्तता देखी -
1) उत्त्म तुकान्तता
2) मध्यम तुकान्तता
3) निकृष्ट या अधम तुकान्तता
इस वर्गीकरण से चंचल के साथ पागल, कायल, काजल आदि निकृष्ट श्रेणी की तुकान्तता मानी जायेगी. अतः ऐसी कोई तुकान्तता त्याज्य ही मानी जानी चाहिये. पागल के साथ काजल मध्यम श्रेणी की तुकान्तता होगी. अर्थात स्वीकार्य है.
यह अवश्य है कि चंचल के साथ अंचल की तुकान्तता उत्तम श्रेणी की तुकान्तता होगी.
चतुष्पदी कोई विधा न हो कर पद्य-विधान का एक वर्ग है. चार पदों की कोई रचना चतुष्पदी कहलाती है. मुझे लगता है कि आप चतुष्पदी के तौर पर प्रचलित मुक्तकों या घनाक्षरी या सवैया या कामरूप या रूपमाला या रोला या गीतिका या हरिगीतिका आदि-आदि चारपदों वाली रचनाओं से अर्थ ले रहे हैं. यह अवश्य है कि चार पदों की किसी रचना में एक ही शब्द को दो बार समान्त के तौर पर प्रयोग करना उचित नहीं माना जाता. वस्तुतः ऐसा करता हुआ कोई रचनाकार अपनी अक्षमता ही ज़ाहिर करता है या माना जाता है कि ऐसे रचनाकार के पास शब्दों का अकाल है.
आदरणीय चंचल के साथ कायल आदि तो मध्यम के तुक होने चाहिए ना। यह अधम कैसे है? क्रपया समझाए
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