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अच्छी लघुकथा हुई है आदरणीया ज्योत्स्ना जी । काश ऐसा सुखांत जीवन में भी देखने को मिलता । बधाई इस प्रस्तुति के लिए ..
बहुत खूब ज्योत्स्ना जी, लघुकथा सन्देशप्रद है, इस लघुकथा ने भामाशाह की याद दिला दी|
हालाँकि जितना मैंने पढ़ा है भामाशाह ने स्वयं की सम्पति महाराणा प्रताप को दान नहीं की थी, बल्कि उन्ही की सम्पति कहीं सम्भाल कर रखी थी, जो उन्हें समय पर लौटा दी| ऐसा कुछ होता तो यह लघुकथा शायद आ० योगराज जी सर की कसौटी पर थोड़ी और उच्च हो सके|
आदरणीया ज्योत्सनाजी
इस देश में कितने ही मुनीम अपनी ईमानदारी और परिश्रम के बल पर अपने मालिक से भी अधिक प्रतिष्ठा पाये और दौलत कमाये। बंशीलालजी भी उनमें से एक है, उस सीढ़ी को नहीं भूला जिसके सहारे वह यहाँ तक पहुँचा था। यह कथा एक सच्चाई भी है। हार्दिक बधाई इस प्रस्तुति पर।
पहचान (लघु कथा )
“माँ जी, मुँह ढक लीजिये... अन्दर सभी लाशें इतनी बुरी तरह जली हुई हैं बहुत ज्यादा दुर्गन्ध है”
“आपके सभी पहचान वाले बारी-बारी से आ चुके हैं कोई नहीं पहचान पाया फिर आप कैसे पहचानेंगी?” मोर्चरी के स्टाफ ब्वाय ने पूछा|
“वो सब पहचान वाले थे न!! सभी को दुर्गन्ध भी आ रही होगी मुँह भी ढक रखा होगा ... पर मैं माँ हूँ न उसकी... और माँ को कभी अपने खून में दुर्गन्ध नहीं आती”कहकर वो तीव्र क़दमों से अन्दर चली गई|
“बिना पहचाने मुआवज़ा थोड़े ही मिलेगा बुढ़िया को... ही ही ही” खींसे निपोरते हुए धीरे से कानों में फुसफुसाते हुए वो दोनों अटेंडेंट भी पीछे-पीछे चल दिए
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
अच्छी लघुकथा है आ० राजेश कुमारी जी, बधाई स्वीकारें। अंतिम पंक्ति को और धारदार बनाया जाना चाहिए था।
आ० योगराज जी, आपसे समीक्षा पाकर लघु कथा सार्थक हुई आपको पसंद आई बहुत- बहुत आभार|अंतिम पंक्ति उन असंवेदन शील हृदय वाले लोगों की है ..जो सब को एक ही नजर से देखते हैं उस माँ को सिर्फ उस नजर से देख रहे हैं कि वो मुआवजे के लिए ही शिनाख्त कर रही है , उसकी भावना उसकी ममता को समझ नहीं रहे हैं इस लिए उसका उपहास उड़ा रहे हैं अंतिम वाक्य को एक कमेन्ट की तरह देखिये आदरणीय यदि फिर भी आपको कोई बदलाव की गुंजाइश दिखती है तो परामर्श पुनः दीजिये |
आपकी अंतिम पंच लाईन कहानी में प्राण फूंक देती है . बधाई दीदी .
आपका बहुत बहुत शुक्रिया भाई जी ,मेरा लिखना सफल हो गया .
संवेदनहीनता दिखाने का एक बढ़िया प्रयास इस लघुकथा के माध्यम से हुआ है, बधाई आदरणीया राजेश जी.
आ० गणेश जी ,लघु कथा के मर्म को छू कर आई होंसलाफ्जाई करती आपकी इस प्रतिक्रिया हेतु दिल से आभार लघु कथा सार्थक हुई
मॉर्च्युअरी (शवख़ाना) से ईश्वर न करे किसी का पाला पड़े. जैसा असंवेदनशील वातावरण वहाँ हुआ करता है कि मन में पूरे समाज के प्रति घृणा व्याप जाती है. डॉक्टर तो डॉक्टर वहाँ के अटैण्डेण्ट तक जिस तरह से घड़ियाल-सा मुँह बाये रहते हैं, कि एक संवेदनशील मन चीत्कार कर उठता है.
ऐसे किसी विन्दु पर आपकी कलम चली है, इसकेलिए आप साधुवाद की पात्र हैं, आदरणीया राजेश कुमारीजी.
सादर
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