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आदरणीय प्रतिभा जी धन्यवाद प्रेषित करती हूँ आपके इस विश्लेषात्मक टिप्पणी हेतु . आपने कथ्य भाव को पकड़ा आभार .
केवल नौकरों की सोहबत ही नहीं टीवी सीरियल/कार्टून भी बच्चों की भाषा व् व्यवहार में बदलाव ला रहे हैं आ० रीता जी,आपने बहुत अच्छे विषय पर लिखा. लघु कथा की अंतिम पंक्ति ही इसका सार है जिसको पढ़कर हम भी अपने जीवन को रीवाइंड करके फर्क महसूस कर सकते हैं की न्यूक्लियर फेमिली में हमने क्या खोया है |
दिल से बहुत बहुत बधाई लीजिये इस सशक्त प्रस्तुति पर |
धन्यवाद आदरणीय राजेश कुमारी जी . ये बात बिलकुल सही है कि नार्मल सी परवरिश की खातिर बच्चों का अपने दादा-दादी ,नाना-नानी से संसर्ग बना रहे .संयुक्त परिवार की अनिवार्यता नहीं है .बुनियादी वैल्यूज बच्चे वहीँ से सीखते हैं जीवन की .
लघुकथा अपने उद्देश्य में सफल है। बधाई स्वीकारें आदरणीया रीता जी
सुन्दर लघु कथा बनी है रीता जी. कभी कभी घर के अलावा महोल्ले के बच्चे जहा एक साथ खेलते है वहा से भी गलत भाषा सीख लेते है. बुजर्गो के महत्व को कथा मे बखुबी से ढाला है आपने. ईस कथा के लिऐ बधाई स्वीकार करे.
धन्यवाद आदरणीय मदनलाल जी ,आपने अपने विचार प्रस्तुत किये .
धन्यवाद आदरणीय धरमेंद्र जी .
संयुक्त परिवार की महता को उजागर करती सुंदर लघु कथा के लिए बधाई आद रीता गुप्ता जी
लघुकथा
दुनियादारी (शीर्षक )
'बेटा निशा को २१०० तो देदेना ,तुम्हारे पापा के देहावसान के बाद की बाद पहली बार आई हैं '
माँ नेअनुनय करते हुए बेटे आनंद से कहा
"हुह!!!!२१०० दे तो दूँ फिर तो आदत पड़ जायेगी इसे और फिर कल करोडो की जायदाद में भी हिस्सा मांग लेगी |जायदाद सिर्फ बेटो की होती बुदबुदाते हुए उसने पत्नी को लिफ़ाफ़े में ११०० डालकर देते हुए कहा " जा छोटी को दे आ "
माँ ने गले लग रोती बिटिया से फुसफुसाते हुए पुछा " क्या दिया भाभी ने लिफाफे में "
माँ को नजर आरहे थे बहु की कमीज़ में ठुसे कुछ नोट जो उसने दरवाज़े के पीछे खड़े होकर अपनी कमीज में छिपा लिए थे
"माँ ५००० "
और बेटी ने वापिस लौटते हुए उसी लिफाफे में रखे एकमात्र ५०० का नोट को भतीजे के हाथ रखते हुए कहा"" भाभी अबके आप मायके हो आना माँ को मेरे पास छोड़ कर , मेरा आना नही हो पायेगा अब जल्दी से"
नीलिमा शर्मा निविया
मौलिक अप्रकाशित रचना
करारी चोट करती इस लघुकथा हेतु बधाई स्वीकार करें आदरणीय नीलिमा शर्मा जी| कई ऐसे प्रोजेक्ट होते हैं जिनमें sanction का 20-25% ही वास्तविक कार्यों में खर्च होता है, अब यह घरों में भी होने लगा|
बहुत खूब आ. नीलिमा जी। बेटियों के प्यार को कहां समझ पाते हैं लोग। हर रिश्ते को पैसे से ही तोला जाता है। सुन्दर लघुकथा। बधाई बहुत बहुत।
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