For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

 

आदरणीय सुधीजनो,


दिनांक -8 अगस्त’ 2015 को सम्पन्न हुए  “ओबीओ लाइव महोत्सव अंक-58” की समस्त स्वीकृत रचनाएँ संकलित कर ली गयी हैं. सद्यः समाप्त हुए इस आयोजन हेतु आमंत्रित रचनाओं के लिए शीर्षक “फंदा” था.

 

महोत्सव अंक-58 में 23 रचनाकारों की विविध विधाओं यथा ग़ज़ल, अतुकांत कविता, तुकांत कविता, दोहा छंद, रोला छंद, कुण्डलिया छंद, ताटक छंद, आल्हा छंद, क्षणिकाएं, हायकू आदि विधाओं में प्रविष्टियाँ प्राप्त हुईं. आयोजन के नियमों का पालन न करती रचनाओं को आयोजन से हटाया गया है और संकलन में स्थान नहीं दिया गया है. यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस पूर्णतः सफल आयोजन के सभी  प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश यदि किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह ,गयी हो, वह अवश्य सूचित करें.

 

विशेष: जो प्रतिभागी अपनी रचनाओं में संशोधन प्रेषित करना चाहते हैं वो अपनी पूरी संशोधित रचना पुनः प्रेषित करें जिसे मूल रचना से प्रतिस्थापित कर दिया जाएगा.


सादर
डॉ. प्राची सिंह

मंच संचालिका

ओबीओ लाइव महा-उत्सव

******************************************************************************

 

 

1.आ० मिथिलेश वामनकर जी

 

उनके हाथों हरदम मूसल, जाने कैसा फंदा है
अपने हिस्से केवल ओखल, जाने कैसा फंदा है

दो-दो बेटे जनमे उसने, पाला पोसा प्यार दिया
फिर भी माँ का गीला आँचल, जाने कैसा फंदा है

आज नवेली दुल्हन के मुख पर शीतल मुस्कान नहीं,
देखा हमने बहता काजल, जाने कैसा फंदा है

जर्द हकीकत ने धो डाले सपनो के संसार यहाँ
दिल रहता है कितना बेकल, जाने कैसा फंदा है

देख सियासत आसमान की, रोती है बंजर धरती
आज नहीं फिर उतरा बादल, जाने कैसा फंदा है

सच्चाई विश्वास हुए गुम इस दुनिया के मेले में
मानवता है कितनी घायल, जाने कैसा फंदा है

एक बहू या हारा इंसा या कातिल हो मतलब क्या
गर्दन पे बस नाचे पागल, जाने कैसा फंदा है

नींद सभी की एक सरीखी, आनी है, आ जाए, फिर
टाट हमें और उनको मलमल, जाने कैसा फंदा है

तहजीबों का मौसम बदला आखिर ये भी बोल दिया-
“बिछिया बिंदिया कंगन पायल, जाने कैसा फंदा है”

जात-पात मज़हब के कारण वो है तन्हां दूर कहीं
मरता हूँ मैं भी तो पल-पल, जाने कैसा फंदा है

जिसने चैन सुकूं लूटा है, इस दुनिया को उलझाया
चल ‘मिथिलेश’ जरा देखें चल, जाने कैसा फंदा है

 

आ० मिथिलेश वामनकर जी की ग़ज़ल पर शेर दर शेर प्रतिक्रया के रूप में प्रस्तुत हुई डॉ० प्राची सिंह जी की ग़ज़ल

 

दोधुर नीयत ओखल मूसल,जाने कैसा फंदा है 

सहते गैर किसी का ये छल, जाने कैसा फंदा है 

 

दौर नया है हवा नयी है, आचरणों पर उठते प्रश्न    

भिंचता बचपन खिंचता आँचल, जाने कैसा फंदा है ?

 

अपनी अपनी दुनिया सबकी, अपने अपने हैं सपने 

बहता काजल या कोई छल, जाने कैसा फंदा है 

 

सपनों के बाज़ार सजे हैं, जेब टटोलें भाई जी 

चीखम चिल्ली दिल की हलचल, जाने कैसा फंदा है ?

 

साजिश की ज़द में हर ज़र्रा, प्रश्न उठे हैं अम्बर पर 

तथ्यों को ओढ़े है अटकल, जाने कैसा फंदा है ?

 

घायल मानवता की मरहम, क्या हम सब बन सकते हैं 

सबकी नीयत पर है साँकल, जाने कैसा फंदा है ?

 

बहुएं, हारे इंसा, कातिल, या फिर हों नौटंकीबाज 

पाश क्रूर निर्मम और अविचल, जाने कैसा फंदा है ?

 

टाट बाँटती सपने मीठे, मखमल बस करवट करवट 

तृष्णा यह मृगछाया केवल, जाने कैसा फंदा है ?

 

कँगना बिछिया पायल बिंदिया, क्यों आरोपित नारी पर 

भाग-सुभाग की बात अनर्गल, जाने कैसा फंदा है ?

 

तोड़ी हमने हर एक बेड़ी, हाथ मिलाये अनगिन बार 

हर प्रयास होता उफ़ निष्फल, जाने कैसा फंदा है ?

 

किसने मायाजाल रचा है, क्यों कर सबको उलझाया 

जटिल पहेली मुश्किल है हल , जाने कैसा फंदा है ?

****************************************************************

 

2.आ० अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी

 

वेलेंटाइन और फ्रेंडशिप डे

ताटंक छंद

फ्रेंडशिप डे पर मजनुओं की, चालाकी चल जाएगी।

जाने कितनी कुड़ियाँ इस दिन, गलत राह अपनाएगी॥

 

गिफ्ट डिनर के फंदे लेकर, रात भयानक आएगी।

लैपटॉप मोबाइल पाकर, मंद मंद मुस्काएगी॥

 

फूल लिए निकलीं कुछ कुड़ियाँ, अपना दिल बहलाएंगी।

माँ से कितनी छूट मिली है, खुले आम दिखलाएंगी॥

 

कुण्डलिया छंद

माला औ’ पगड़ी पहन, लेकर फेरे सात।

नई नवेली नार थी, लौटी जब बारात॥

लौटी जब बारात, चहकता था वो बन्ना।

घुली साँस में गंध, अंग करते ताधिन्ना॥

वधू कुटिल मुँहजोर, और गुंडा हर साला।

फंदा गल में डाल, लगा फोटो पर माला॥

 

दोहा छंद

एक डोर झूला बने, इक फंदा बन जाय।

जिसका जैसा कर्म है, वैसा ही फल पाय॥

 

आठ माह गर्मी उमस, बुरा देश का हाल।

फिर क्यों टाई बाँधकर, होते हो बेहाल

*********************************************************

 

3.आ० कांता रॉय जी **

 

जीवन के इस द्वंद में
फँस गया हूँ फंद में

काली गहरी मन कोठरियां
रेंग रही तन पर छिपकलियाँ
प्राण कहाँ स्पंद में ....
जीवन के इस द्वंद में
फँस गया हूँ फंद में

जग की उलझन कैसा बंधन
चल रे मनवा कर गठबंधन
जोगी परमानंद में ....
जीवन के इस द्वंद में
फँस गया हूँ फंद में

अभिमानी मन ये जग छूटा
दुनिया तजते भ्रम सब टूटा
चैन नहीं आनंद में .......
जीवन के इस द्वंद में
फँस गया हूँ फंद में

सौ पर्दों में चेहरा छुपाये
ज्ञान रोशनी कैसे पाये
फँसा मन मकरंद में .....
जीवन के इस द्वंद में
फँस गया हूँ फंद में

** संशोधित रचना 

********************************************************

 

4.आ० मनीषा सक्सेना जी

 हाइकू फंदा

    १                                      

घर बाहर

दोहरे हुए काम

तारीफ़ फंदा

   २  

तरक्की लाई

शिखर की कामना

नौकरी फंदा

   ३

चुपड़ी रोटी

और ही और चाहें

लालच फंदा

   ४

अच्छी आदतें

मन वचन कर्म

सुदृढ़ फंदा

   ५

निकलें कैसे

छोड़ के खाली घर

गले का फंदा

   ६

जो भी तोड़े  

गढ़े नई संस्कृति

लीक का फंदा

   ७

साजोसामान

वैवाहिक जीवन  

कसता फंदा

   ८

शानोशौकत  

औकात से ऊपर  

डालती फंदा

   ९

सुख से जिया

जिस किसी ने काटा

अज्ञान फंदा

  १०

कोई तो खोलो

खुलता नहीं फंदा

आलसी बन्दा

   ११  

पुराना ढर्रा 

नवीन तकनीक

कैसा तो फंदा

   १२

सभी हों सुखी

कामना बने कर्म  

गर्वीला फंदा

   १३

श्रीमती नैना

उचकाती हैं कन्धा

डालती फंदा

   १४

विलासताएँ

बनती ज़रूरतें

कसती फंदा

   १५

मायानगरी

जाएँ तो जाएँ कहाँ

फंदे ही फंदे

**********************************************************

 

5.आ० पूनम माटिया जी

फंदा ......... बूँद शब्द, अर्थ है सागर

 

छोटी थी जब स्वेटर बुनते 
माँ ने टोका था मुझको,
‘सारा स्वेटर उधड़ न जाए,
ध्यान तो दें ,कहीं गिर न जाए 
बुनते-बुनते ही ये फंदा!!!’ 
छोटी-सी बुद्धि में तबसे 
‘फंदा’ स्वेटर में ही जाना| 

और टोकती थी माँ अक्सर 
‘धीरे-धीरे खाया कर|’ 
छोटे-छोटे ग्रास बनाकर 
ख़ुद भी कभी खिलाती थी| 
‘पानी भोजन-बीच न पीना 
लग जाएगा गले में ‘फंदा’’  
कह-कह कर ध्यान दिलाती थी|

बदल गए सन्दर्भ सभी!
अब सहज समझ न आता है 
क्यों अन्नदाता भारत का 
‘फंदे’ को अपनाता है?
क्यूँ बिलखते बच्चे भूखे? 
क्यूँ बिन-ब्याही बेटी छोड़ 
वो जीवन से हार जाता है?

अचरज बहुत होता है जब 
बिटिया जो जान से प्यारी है,
बेटा भी आँख का तारा है 
पर न जाने क्यों ये ‘फंदा’ 
बन जाता है गले का हार?
‘खाप’ छीन लेती है क्यूँ  
झूठी इज्ज़त की खातिर 
बच्चों से ही उनका प्यार| 

‘फंदा-फंदा’ कहकर अब तो 
शादी नहीं रचाते हैं,
रख परम्पराओं को ताक पे  
जाने कितने बच्चे अब  
बिन-ब्याहे ही रह जाते हैं|
शादी लगती गले का ‘फंदा’
बिन शादी रास-रचाते हैं|

बूँद शब्द, अर्थ है सागर 
जाकि जैसी बुद्धि ठहरी 
वैसा ही तो बांचे है | 
‘फंदा’ क्यूँ समझें हम इसको 
धैर्य से सब सुलझाते हैं| 
जीवन बहे सरिता सी धार 
पथ निष्कंटक, प्रेम बहार 
फंदा-फंदा स्वेटर बुन 
बाकी सब है व्यर्थ-बेकार|

*****************************************************

 

6.आ० तनुजा उप्रेती जी

फंदा

मन के चारों ओर लिपटा है

लड़की होने के भाव का फंदा

या कि होश सम्हालते ही

लड़की बनाए जाने का फंदा

जहाँ तेज चलने पर मनादी है  

खुलकर हँसने की मनाही है

अगर बाहें खुल जाए या कि

ज़रा पिंडली उघड़ जाए तो

बालपन की कोमल देह

वयस्क आँखें नोंच डालें

जहाँ टोफियों का कुत्सित

विषय लोलुप लालच है   

जहाँ स्पर्श में भी एक

जगुप्सा पैदा करती आग है

एक चक्रव्यूह है यह भाव जिसमें 

उम्र के साथ-साथ घेरे बढ़ते जाते हैं

पूरे यौवन भर गले में पड़ा रहता है  

व्यक्ति को लड़की बनाए जाने का फंदा I

*******************************************************

 

7.आ० मनन कुमार सिंह जी

गजल
2122 2122 2122 212
कर रहे जो तुम उसे धंधा बताते हो अभी,
मर रहे हैं लोग तुम चंदा बनाते हो अभी।
मिट गये थे लोग वे चुनके वफ़ा की आरजू,
तुम रहे हो कर जफ़ा,फंडा चलाते हो अभी।
बैठकर कंधा रहे तुम नोच खाते अब उसे,
योग तेरा है नहीं कुछ,ना लजाते हो अभी।
कट गयी थीं बेड़ियाँ ऐसे नहीं रहज़न सुनो,
मुफ़्त के रहवर गले फंदा लगाते हो अभी।
तुम करोगे बाँटकर क्या रे नफा,अब बता,
जा कहाँ सकते कहो झंडे गिनाते हो अभी।
पूछती हैं पीढियाँ अब हाल तेरा,रे बला,
लूटके सब रे सुलभ घरभाग जाते हो अभी।
कर दिया तूने उसे कैसे पहेली* देख लो,
हारकर अब तो हथेली को नचाते हो अभी।

*************************************************************

 

8.आ० गिरिराज भंडारी जी

 

हक़ीक़त से कोसों दूर

स्वप्न जैसा मायावी

हसरतों के सुनहरे तारों से बुने

आँखों को चौंधिया देने वाली चमक लिये

बार बार जलती बुझती रंग बिरंगी रोशनी की आड़ लिये

आपकी तर्क बुद्धि की रक्षा पंक्ति को भेद रहा है

रोज रोज़ कोई न कोई फन्दा

 

स्वेटर के फंदे नहीं हैं ये

कि उधड़ जायें , एक सिरा खींचते ही

सर्र..र.. र.. करके

बहुत महीनी से बुने जाते हैं

आपके दिमाग के बारीक तंतुओं में

चमकीले कीमती सुनहले धागों से

 

चौंधियाये , तर्क शून्य हुये , बेहोशी में जीते लोग

उसे ही जीवन का अंतिम लक्ष्य माने जी रहे हैं  

जिन्हें शुद्धता का ज्ञान न हो ,अशुद्धता का भान कैसे हो

 

कुछ अर्ध विक्षिप्त दिख भी जाते हैं, कभी कभार छटपटाते ,

और बौराये से बुद्धिजीवी

बीमारी का इलाज़ वहाँ खोजते हैं ,

जहाँ है नहीं

 

खुद अपनी सोच तक कौन पहुँचना चाहता है ?

दोष अपने बिना पंख उड़ते अरमानों को कैसे दें ?

 

जो सुना था शायद सच ही सुना था ,यही कि ,

अगर फन्दे सोने के बने हों , लोग खुद ही गले में डाल लेते हैं

फिर छूटने का प्रयास कौन करे  

 

हम आप जाने न जाने  

शिकारी ये बात अच्छे से जानते हैं

*********************************************************

 

9.आ० तेजवीर सिंह जी

 

तुकांत कविता    -   मेरा भारत महान -

मेरा भारत देश महान, गाये हर भारतीय ज़ुबान !

इसकी जग में ऊंची शान, इसका करते सब गुण गान !

हिंदू, मुसलिम , सिक्ख,ईसाई, हिलमिल कर रहते सब भाई !

प्यार मुहब्बत की सच्चाई, सब ने यही बात अपनाई !

धर्म  हमारा  प्रेम, भाईचारा, मिलजुल  करते सब  यहां गुजारा!

शांति  पाठ सबको सिखलाते , मगर युद्ध से नहीं घबराते !

जब  कोई हम पर गुर्राया,चारों खाने चित्त गिराया,

एक कदम  कोई घुस आया, मीलों तक हमने दौडाया !

कर्म सभी के अलग अलग हैं, अलग अलग है सबका धंधा,

अच्छे कर्म को मिले “सलाम”, और बुरे को  मिलता "फ़ंदा!"

**************************************************************

 

10.आ० प्रतिभा पाण्डेय जी

रस्सी का रुदन

मुझ रस्सी के टुकड़े को
कितना जान पाए हो
अलग अलग रूप देकर
अपना काम सधवाया है
कभी मेरी ख़ुशी और रुदन
भी देख पाए हो

सावन में मुझसे
झूला बनाते हो
मै कितना इतराता हूँ
गोरी के बालों को
अपने में उलझाकर
अपनी किस्मत पे मै
झूम झूम जाता हूँ

गर्व अपने होने पर
तब भी होता है मुझे
किसान जब मुझसे
बैलों को बांधकर
हल चलाता है
अन्न उगाकर जग को
खिलाता है

और फिर एक दिन
सारी आत्म मुग्धता
हो जाती है धराशाही
जब तुम मुझसे
फंदा गढ़ते हो
अपनी निराशा
कुंठा और दर्द
मेरे सर मढ़ते हो

ऐसा क्या हो
जाता है तब
कि जो झूलती थी
गाती थी
झूले की पींगें
बढ़ाती थी
एक दिन मुझसे
इतना प्यार जताती है
कि सबको भुलाकर
मुझे गले लगाती है

और वो अन्नदाता
सबको था जो पालता
क्या दुःख उसको
था सालता
मुझको बदनाम करके
वो भी चल देता है
जिसको था जोतता
उसी में मिल लेता है

और मै भौंचक्का ,डरा
अपराधी बना
लटका रहता हूँ
चीरती आँखों को
सहता रहता हूँ
तुम देख सुन न पाओ
पर फूट फूट के रोता हूँ

मुझे काटो तोड़ो जलाओ
कुँए की घिर्री में
खूब घिसाओ
मै अपना जीवन
धन्य मानूंगा
पर मुझपे प्यार
मत जताओ
फंदा बनाके
गले मत लगाओ

***********************************************************

 

11.आ० लक्ष्मण धामी जी

 

गजल
1222
बनाता इश्क  में जीवन  सुनो  इकरार  का फंदा
बिगाड़े घर बहुत से पर तनिक इनकार का फंदा   /1/

बिका करती है अस्मत रोज केवल पेट की खातिर
निवाला  छीन  लेता  है   खुले  बाजार  का  फंदा   /2/

किसी का राज हो इससे भला क्या फर्क पड़ता है
गला सच का  सदा  घोंटे  यहाँ  सरकार का फंदा   /3/

बहुत अच्छी तो लगती हैं विकासों की ये बातें पर
निगलता खेत खलिहानें  नगर विस्तार  का फंदा   /4/

इसी से दोस्ती भी  है इसी से दुश्मनी जग में
न जीने दे न मरने दे जुबाँ की मार का फंदा /5/

मजा आता है रूसने में मगर वो कैसे रूस जाए
न देखा जिसने हो यारो कभी  मनुहार का फंदा   /6/

*न तो हिंदू की चाहत ये न ही मुस्लिम की फितरत ये
मगर  उलझा  के  लड़वाए  हमें  उस  पार  का फंदा   /7/

कथन  है  ये बुजुर्गों  का  बनेगा  देश फिर  सुंदर 
गिरा नफरत के घर थोड़े उठा फिर प्यार का फंदा   /8/

*सुनेंगे दोस्तों के साथ दुश्मन भी ’मुसाफिर’ सच
रखेगा गर न  ढीला तू  किसी अशआर  का फंदा   /9/

हमारी चाहतों में है 'सदन' में काम कुछ तो हो 
मगर  होने  नहीं  देता  दली  तकरार का फंदा  /10/

*संशोधित 

**************************************************************

 

12.आ० राजेश कुमारी जी

 

कुछ क्षणिकाएँ

1.

फंदे से फंदे की  पकड़

निर्माण करती है  

खडी होती है मजबूत इमारत

गलती से एक भी छूटा

सम्पूर्ण ध्वस्त

जीवन में रिश्ते बुनते हुए   

2.

फंदा डाल कर

दरख़्त तोड़ने वाले  

आज अंजाम से नहीं डरते

कल सूरज चाँद पे फंदा

डाल बैठे तो क्या होगा 

3. 

नजाकत भूल गंभीर सतर्क

चल रही  मृगनयनी

वक़्त की मांग यही है   

कौन कहाँ फंदा लिए बैठा हो

दिल फेंक शिकारी..

4.

फंदा एक सा 

एक जीवन उठा कर लाता

एक जमींदोज करता

कितना फर्क है

पनघट की बाल्टी

और फाँसी के फंदे में

*************************************************

 

13.आ० जानकी वाही जी

 

आँखों का काजल राज़ सा गहरा,
आँसुओं की झड़ी है इक फंदा ।
कानों में पड़ती मन्दिर की घण्टियाँ,
कर्कश आवाज़ें चाबुक है इक फंदा ।
मुँह से झरती हँसी की चाँदनी,
गुमशुम चुप्पी है इक फंदा ।
कोमल अहसास छूने का। ,
उलझे धागे सी फिसलन है इक फंदा ।
खुशबू साँसों की उठन बैठन ,
हवा पर भारी है इक फंदा। ।
यादों की खामोश पगडण्डी ,
पॉव की पायल है इक फंदा ।
सुंदर मूरत माटी की,
ये ना जाने,'जान' है इक फंदा ।
सतरंगे मन मोर पाँखों पर,
ज़ीना,मरना चाह है इक फंदा ।

*******************************************************

 

14.आ० सुशील सरना जी

 

आज घर की दीवारों में 
एक अजीब से उदासी नज़र आती है 
कभी कान 
घंटी की आवाज सुनने को आतुर होते हैं 
तो कभी आँखें दरवाजे पर 
किसी का इंतज़ार करती नज़र आती है 
क्यों हैं ये बैचैनी 
क्यों नहीं मेरी स्मृति से वो ओझल हो जाता 
अब मुझे घर में घर का अहसास नहीं होता 
दीवारों पर टंगी तस्वीरें भी 
मेरी उदासी पर अट्हास करती नज़र आती हैं 
पर हाँ शायद एक्वेरियम की मछलियाँ ज़रूर उदास हैं 
मेरी तरह उनसे बात करने वाले की आवाज़ 
उन्हें सुनाई नहीं देती 
मेरी उँगलियों को पकड़ कर 
मुझसे बड़ा बनने वाला मेरा पोता 
अपनी माँ के अहं के साथ 
इस घर को सूना कर के चला गया 
हम दोनों इक दुसरे की जान थे 
जब तक वो था मैंने छड़ी नहीं उठाई थी 
अब छड़ी बिना चला नहीं जाता 
एक बचपन अहं के फंदे में बेबस हो गया 
और एक बंधन मोह के फंदे में कैद हो गया 
न वो अहं का फंदा काट सकता है 
न मैं मोह के फंदे से रिहा हो सकता हूँ 
घर की सूनी दीवारों में 
उसके अक्स नज़र आते हैं 
हर लम्हा बिछुड़न के समय 
उसकी आँखों से बहते अश्क नज़र आते हैं 
मोह के ये कैसे बंधन हैं 
फंदे से लगने वाले ये बंधन भी 
बड़े अज़ीज लगते हैं 
पल पल मिटते जीवन में 
कहीं जीने की उम्मीद लगते हैं

**********************************************************

 

15.आ० सचिन देव जी

 

हास्य-कविता 

फंदों में फंदा बड़ा  फंदा  एक निराला

जीवन भर लटका रहे इसे पहननेवाला

 

करे मोक्ष की प्राप्ति इसपर झूलनेवाला

प्रेत बन भटका फिरे इसको भूलनेवाला

 

बड़े प्यार से फांसता  इसे फांसने वाला

कोई भी बच न सका गोरा हो या काला

 

अपनी गर्दन फांसने खुद आतुर दिलवाला

गाजा-बाजा साथ ले निकला हिम्मतवाला

 

फंदा लेकर हाथ में पग-पग बढ़ती बाला  

चेहरे से ज्योति लगे अन्दर से है ज्वाला

 

इस फंदे की फांस को समझे भोगनेवाला

बड़े-बड़ों का कर डाला इसने झींगा लाला

 

इस फंदे का नाम कवि नही खोलनेवाला

लाख टका जीते इसका नाम बतानेवाला

***************************************************

 

16.आ० सौरभ पाण्डेय जी

 

कुण्डलिया छन्द
1.
फन्दा से यदि अर्थ लो, अनुशासन-सुविचार 
बँधा दिखेगा सूत्रवत, तन-मन से संसार 
तन-मन से संसार, बाँध कर रखना संयत 
नियमबद्ध व्यवहार, आचरण शुद्ध नियमवत 
वर्ना हाथ मलीन, करेंगे मन तक गन्दा 
फिर क्या जीवन लाभ, अगर कस जाये फन्दा ?

 

2.
फन्दा समदर्शी बहुत, बिना भेद बर्ताव 
करता पूरे फ़र्ज़ वह, उसका यही स्वभाव 
उसका यही स्वभाव, अर्थ भी कितने जीता 
सारे विधा-विधान, भाव का मानक फ़ीता 
मानवता का शत्रु, अगर हो जाये बन्दा 
या फिर हो लाचार, झूल जाता है फन्दा

 

3.
लिये सलाई हाथ में, नये-नये पैटर्न 
बुनती जाती औरतें, कितनी थीं कंसर्न 
कितनी थीं कंसर्न, डिजाइन को वो लेकर 
उल्टा सीधा तीन, तीस पर फन्दे देकर 
क्या वो भी था वक़्त, थिरकती नर्म कलाई 
सुबह दोपहर शाम, बितातीं लिये सलाई 

**************************************************************

 

17.आ० लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी

 

झूलते फंदा लगाकर धैर्य जो रखते नहीं

धैर्य रखते कष्ट में भी लटककर मरते नहीं |

 

जान कर अनजान बनता वह नहीं होता सफल

कर्म साधना रत नर फंदा लगा मरते नहीं  |

 

रोड नापे व्यर्थ में श्रम से रहते दूर सदा

मार्ग ह्त्या का चुने सद्मार्ग पर मरते नहीं |

 

लूटते जो देश को फन्दा कभी लगता उन्हें

भ्रष्ट सारे लिप्त जो फंदा लगा मरते नहीं |

 

पहुँच लम्बी आपकी फन्दा नहीं लगता उन्हें

गाय चारा हजम करते शर्म कर मरते नहीं |

 

रोज मरते लटक फंदे से कृषक है आज भी

गाँव जाकर लूट रहे सौदागर मरते नहीं |

**********************************************************

 

18.आ० जवाहर लाल सिंह जी

 

*बड़ा कमजोर बंदा हूँ, मगर क्या खूब फंदा है.

कभी दिखता नहीं लेकिन, ग़जब मजबूत फंदा है

सियासत हो कि फितरत हो, नहीं होती है आजादी,

हरे हर आँख का पानी, बड़ा मगरूर धंधा है

नही होता अगर मजहब, तो क्या धरती नहीं चलती

करे मानव पे बेरहमी, ये धंधा है तो गन्दा है

कभी हम पास होते हैं, कभी हम दूर होते हैं

कभी अपने डराते हैं, कभी दुश्मन का फंदा है

ये माया है सभी कहते, मगर छोड़े नहीं छुटता

है पैसा मैल हाथों का, मगर क्या सच में गंदा है ?

* संशोधित 

*******************************************************

 

19.आ० रवि शुक्ला जी

 

फंदा विषयक बात से आया एक विचार

हम भी लिख कर डाल दें रचना का उपहार

रचना का उपहार, मगर ये हमने जाना

शब्‍दों के बस तीर चलाये हैं बचकाना

कथ्‍य शिल्‍प से हीन छंद का होता छंदा

सादर है स्‍वीकार हमें अनुशासन फंदा

 

फंदा कह कर स्‍वयं ही डाल लिया वरमाल

सालगिरह का जश्‍न भी मना रहे हर साल

मना रहे हर साल झूठ ही रोना रोते

पत्‍नी  से हर  काम बराबर घर में होते

मेरा ये अभिप्राय बने हर अच्‍छा बंदा

शादी को बदनाम करें ना बोले फंदा

*********************************************************

 

20.आ० डॉ० नीरज शर्मा जी 

 

फंदा (आल्हा/वीर छंद )

अब क्या महिमा गाएं इसकी, फंदे के हैं रूप अनेक।

जाने कब क्या यह कर जाए, इसके मन सुख, दुख सब एक ॥

 

जयमाला बन जोड़ दिलों को, सपने दिखलाता रंगीन।

और दिलों में गांठ पड़े तो, हंता बन जाता संगीन ॥

 

हल में जुड़ धरतीपुत्रों को,  देता है फ़सलें भरपूर ।

विपदा आन पड़े तो करता,  फांसी खाने को मजबूर ॥

 

झंडे में बंधकर लहराए, आसमान से करता बात।

लालकिले पर शान बढ़ाता, बुरी नज़र को देता मात ॥

 

पींग चढ़ातीं जब ललनाएं, फंदे को डाली पर डाल।

मौन रहे फिर भी पढ़ लेता, हंसते रोते मन का हाल ॥

 

देशद्रोह , रिश्वतखोरी, औ`, दहशतगर्दी जैसे काम।

जो करते फंदे की जकड़न, में आ जाते उनके नाम ॥

 

बचपन झूला और जवानी , में बनता रस्सी का खेल।

अर्थी पर ले चले बुढ़ापा ,सब उम्रों से इसका मेल ॥

 

लोटे से गलबहियां करके , डूबे जल में बारंबार ।

प्यास बुझाए अपना तन घिस ,और निभाए सिल से प्यार ॥

 

चढ़ा सलाई पर बुनती मां , फंदे पर फंदा जब डाल ।

नरम मुलायम स्वेटर बनकर , ठंड भगाए ,करे निहाल ॥

 

यही प्रार्थना करते रब से , फंदा सदा खुशी का डाल ।

और दुखों से दूर रहें सब , जीवन सबका हो खुशहाल ॥

*****************************************************************

 

21.आ० संजय कुमार झा जी

 

*रखा धरा पर पाँव, लेकर आया फन्दा।
आया चाची काटी , थी वो पहला फन्दा।।
क्रमशः उम्र बढ़ी, तो जन्मा नया - नवल फन्दा।
एक टुटा एक हुआ गौण, फिर आया नव फन्दा।।
नित सुलझाने में दिन बीते, यह कैसा फन्दा।
जीवन का मर्म वो जाना, जो जाना यह फन्दा।।
कर्म वीर कर्मोँ के बल पर , तोड़ दे सारा फन्दा।
नीच कर्म के कारन मानव, खुद डाले फांसी का फन्दा।।
इस जगत के सारे सम्बन्धों में, पड़ा है माया का फन्दा।
उम्र बितालो तुम अपना, पर छूटे ना माया का फन्दा।।
हे कर्म वीर, हे धर्म वीर, आये सारे लेकर यह फन्दा।
जब त्याग देह तुम जाओगे, फिर काम आएगा यह फन्दा।।
अंतिम यात्रा तक छूटे ना, ऐसा साथ निभाए यह फन्दा।
तेरे मृत शरीर के साथ ही, जल जाएगा यह फन्दा।।

*संशोधित 

**************************************************************

 

22.आ० रमेश कुमार चौहान जी

 

(रोला छंद)

*बने अकेले नेकए बुरा सब को जो कहते ।
करते सारे कामए अन्य जैेसे हैं करते ।।
नेकी चादर ओढ़ए बुराई के गोइंदा ।          गोइंदा.गुप्तचर
होते क्यों हैरानए बुने जो खुद ही फंदा ।।

छोड़ दिये घरबारए गांव से अधिक कमाने ।
छोड़ वृद्ध मां बापए चले चैरिटी बनाने ।।
दानी बने महानए ट्रस्ट को देते चंदा ।
होते क्यों हैरानए बुने जो खुद ही फंदा ।।

हर सरकारी भूमिए सभी जन अपनी माने ।
शहर शहर हर गांवए गली में तम्बू ताने ।।
कहां गढ़ायें लाशए आज पूछे हर बंदा ।
होते क्यों हैरानए बुने जो खुद ही फंदा

*संशोधित 

*******************************************************************

 

23.आ० ममता जी

 

तुकांत कविता
प्रिये तुम्हें पता है कि तुम कितनी क्रूर हो,
हर समय सताती हो करती मजबूर हो।

देखो! तुमने शिकार के लिए फंदा सजाया है ,
फिर से नव श्रंगार किया है और मुझे फंसाया है।
मुझे तो तुम वैसे ही घायल किया करती हो,
फिर नई चालों का अवलम्बन क्यों लिया करती हो।
तुम्हारा ऐसे ही प्रेम से देखना मुझे बहुत है बस ,
अपने में मगरूर ये हुस्न ही मुझे बहुत है बस

जाओ उतार दो ये आडम्बर व छद्म की चाल,
फंदे में केवल तड़पता -तरसता है शिकार।

प्रेम में आडम्बर की कब कहाँ गुंजाइश है ,
प्रेम कोमल भावो की ही तो नुमाइश है।

प्रेम में कैद करके की रवायत छोड़ो,
प्रेम में गिरतों को उठाने की ताकत जोड़ो।

*******************************************************************

Views: 4052

Reply to This

Replies to This Discussion

धन्यवाद आ० हर्ष महाजन जी 

ओबीओ लाइव महा-उत्सव-५८ के इस सुन्दर संकलन के लिए प्रिय प्राची जी को हार्दिक आभार सहित शुभकामनायें  तथा आयोजन को सफल बनाने हेतु सभी रचनाकारों  को हार्दिक बधाई. 

धन्यवाद आदरणीया राजेश कुमारी जी 

आभार आदरणीय प्राची सिंह जी,  यदि संभव हो तो कृपया मेरी रचना जो कि क्रम संख्या 6 पर प्रकाशित है उसकी दसवीं पंक्ति में लिखित “वयस्क आँखों” को “वयस्क आँखें”  से पदस्थापित करने का कष्ट करें भूलवश आँखों टाइप हो गया हैI धन्यवाद I  

 

आपकी रचना में निवेदित टंकण त्रुटी को संशोधित कर दिया गया है आदरणीया तनुजा जी 

धन्यवाद 

आदरणीया प्राची बहन ,  आयोजन की सफलता और संकलन के प्रस्तुतिकरण हेतु हार्दिक बधाई . सत्ता ही निवेदन है कि मेरे सातवे और नौवें शेर को संशोधित रूप में प्रतिस्थापित करने कि कृपा करें .

न तो हिंदू की चाहत ये न ही मुस्लिम की फितरत ये
मगर  उलझा  के  लड़वाए  हमें  उस  पार  का फंदा   /7/

सुनेंगे दोस्तों के साथ दुश्मन भी ’मुसाफिर’ सच
रखेगा गर न  ढीला तू  किसी अशआर  का फंदा   /9/

हार्दिक धन्यवाद ....

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी 

आपके द्वारा निवेदित संशोधन कर दिया गया है.

पूरी संशोधित रचना ही यदि भेजी जाए एडिटिंग में थोड़ी आसानी होने है... पंक्ति दर पंक्ति या शेर दर शेर एडिटिंग में गलती होने की संभावना भी रहती है साथ ही समय भी कुछ अधिक लगता है. संकलन की भूमिका में आग्रह है इसका.

सादर 

आरणीया प्राची जी

महा उत्‍सव के सफल आयोजन एवं त्‍वरित संकलन के प्रकाशन पर हार्दिक धन्‍यवाद ।

फंदा विषय पर सभी कवियों की रचनाओं को पुन: एक साथ पढ़ना और भी अच्‍छाा लगा 

विषय पर विविध आयाम एक साथ ही ग्राह्य हो सके जिससे विचारों  को और भी प्रवाह मिला ।

पुन: आभार ।

आदरणीय रवि शुक्ला जी

संकलन का एक बहुत महत्वपूर्ण पहलू है यह.... की एक ही विषय पर विविधता लिए अभिव्यक्तियाँ... पाठक को कई कई आयामों से एक साथ परिचित करवाती चलती हैं..

सजग गंभीर पाठकों के लिए यह सुखद यात्रा एक लर्निंग एक्सपीरिएंस बन कर सामने आती है वहीं गंभीर रचनाकारों को भी अभिव्यक्ति व शिल्प प्रस्तुतीकरण पर खजाना मिल जाता है.

सादर.

अादिरणीया मंच संचालिका सादर अभिवादन, मैं अपनी संशोधित रचना पोस्ट कर रहा हूं, कृपया इसे प्रतिस्थापित करने की कृपा करे -

;रोला छंदद्ध
बने अकेले नेकए बुरा सब को जो कहते ।
करते सारे कामए अन्य जैेसे हैं करते ।।
नेकी चादर ओढ़ए बुराई के गोइंदा ।          गोइंदा.गुप्तचर
होते क्यों हैरानए बुने जो खुद ही फंदा ।।

छोड़ दिये घरबारए गांव से अधिक कमाने ।
छोड़ वृद्ध मां बापए चले चैरिटी बनाने ।।
दानी बने महानए ट्रस्ट को देते चंदा ।
होते क्यों हैरानए बुने जो खुद ही फंदा ।।

हर सरकारी भूमिए सभी जन अपनी माने ।
शहर शहर हर गांवए गली में तम्बू ताने ।।
कहां गढ़ायें लाशए आज पूछे हर बंदा ।
होते क्यों हैरानए बुने जो खुद ही फंदा

निवेदन अनुरूप संशोधन कर दिया गया है आ० रमेश कुमार चौहान जी 

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
" जी ! सही कहा है आपने. सादर प्रणाम. "
3 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय अशोक भाईजी, एक ही छंद में चित्र उभर कर शाब्दिक हुआ है। शिल्प और भाव का सुंदर संयोजन हुआ है।…"
4 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. भाई अशोक जी, सादर अभिवादन। रचना पर उपस्थिति स्नेह और मार्गदर्शन के लिए बहुत बहुत…"
4 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"अवश्य, आदरणीय अशोक भाई साहब।  31 वर्णों की व्यवस्था और पदांत का लघु-गुरू होना मनहरण की…"
5 hours ago
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय भाई लक्षमण धामी जी सादर, आपने रचना संशोधित कर पुनः पोस्ट की है, किन्तु आपने घनाक्षरी की…"
6 hours ago
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"मनहरण घनाक्षरी   नन्हें-नन्हें बच्चों के न हाथों में किताब और, पीठ पर शाला वाले, झोले का न भार…"
6 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। रचना पर उपस्थिति व स्नेहाशीष के लिए आभार। जल्दबाजी में त्रुटिपूर्ण…"
7 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आयोजन में सारस्वत सहभागिता के लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय लक्ष्मण धामी मुसाफिर जी। शीत ऋतु की सुंदर…"
10 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"शीत लहर ही चहुँदिश दिखती, है हुई तपन अतीत यहाँ।यौवन  जैसी  ठिठुरन  लेकर, आन …"
17 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"सादर अभिवादन, आदरणीय।"
17 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"सभी सदस्यों से रचना-प्रस्तुति की अपेक्षा है.. "
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Saurabh Pandey's blog post दीप को मौन बलना है हर हाल में // --सौरभ
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। लम्बे अंतराल के बाद पटल पर आपकी मुग्ध करती गजल से मन को असीम सुख…"
Friday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service