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सच्चे सुख तलाश में मानव मन मरीचिका में भटकता फिरता है..किन्तु अपनों से दूर सुख भी सुख कहाँ...
वाह ज्योत्सना जी सुख तलाश में भटकते व्यक्ति का सजीव चित्रण. हार्दिक बधाई इस कथा के लिए..
सुन्दर विषय व सार्थक प्रस्तुति आ. ज्योत्सना जी , बहुत बहुत बधाई।
आदरणीया ज्योत्सना कपिल जी आपकी लघुकथा सौरभ पाण्डेय जी की लघुकथा से मेल खाती हुई सी बनी है। इस सुख की तलाश में इंसान जीवनभर भटकता है लेकिन सच्चा सुख मिल ही नहीं पाता है। समय के साथ सुख के प्रकार भी बदल जाते हैं। बधाई स्वीकार करें।
यदि मन खुश है जिस हालात में खुश है वही सुख है वर्ना तो ये एक मृगतृष्णा है जिसके पीछे भागने से दौलत तो मिल जाती हैं आत्मिक खुशी अर्थात सच्चा सुख नहीं मिलता बहुत अच्छी लघु कथा हुई प्रिय ज्योत्स्ना जी ,हार्दिक बधाई
आदरणीया ज्योत्स्ना जी, बहुत बढ़िया लघुकथा हुई है. वाकई सुख की परिभाषा परिस्थितियों अनुसार बदल जाती है. इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.
भौतिक सुख और आत्मिक सुख को समझाती सुंदर लघु कथा
आदरणीया ज्योत्सना कपिलजी, मैं अभी थोड़ी देर पहले ही अपनी प्रस्तुति पर आयी टिप्पणियों पर अपनी बातें कह रहा था. आपकी लघुकथा का उसी आलोक में सामने आना चकित भी कर रहा है और अच्छा भी लग रहा है.
आपकी सहभागिता केलिए हार्दिक धन्यवाद.
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