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आदरणीय चंद्रेश जी , आपने कथा के सार को हज चंद शब्द में उद्धृत कर दिये ।आपसे सदा हौसला मिलता हैं मुझे । आभार आपको हृदयतल से ।
कथा का मर्म समझकर मेरा हौसला बढाने के लिये तहे दिल से आपको आभार आदरणीया नीता जी ।
रचना बहुत बढ़िया और विषयानुरूप हुई है, जिस हेतु हार्दिक बधाई आ० कान्ता रॉय जी। पूर्व में भी मैं निवेदन कर चुका हूँ कि हल्का विराम-चिह्नांकन रचना की सम्प्रेषणीयता पर कुठाराघात सिद्ध हुआ करता है जो उसे अप्रौढ़ स्वरूप दे देता है, अत: इस पहलू पर रचनाकार का अति सजग होना आवश्यक है। लेकिन वही अनावश्यक डॉट्स, विराम चिन्हों का लापरवाही से उपयोग - अब क्या कहा जाए ?
क्षमा सर जी , आगे से अब ये गलती ना होगी । सादर नमन !
सर जी , गलती मै हमेशा वहीं करती हूँ जहाँ पर संशय में पडती हूँ । आपके मार्गदर्शन तले ही मैने लेखन को जाना है लेकिन अभी भी बहुत बाकी है । पग -पग आपकी जरूरत को महसस करती रहती हूँ । मैं अब ये जानना चाहती हूँ कि क्यों डॉट्स गलत हो गये वहाँ , जबकि मैने संयुक्त संवादों के समुह में इसका प्रयोग होते पढा है । क्या इसके उपयोग के भी कुछ नियम होते है ? या हमें डॉट्स के उपयोग करना ही नहीं चाहिये लघुकथा लेखन के दौरान ? सादर निवेदन है कि मेरा आज ये भ्रम भी आप दूर करें ।
आभार आदरणीया ज्योत्सना जी तहे दिल से कथा पर मेरा हौसला बढाने के लिये ।
आदरणीय कान्ता रॉय जी हार्दिक बधाई,आपकी लघुकथा ने झंडे गाढ दिये!समाज के एक विपरीत चरित्र के व्यक्ति द्वारा मदद करना, उस परिवार को देवदूत के दर्शन करा दिये!बहुत ही बेहतरीन विषय पर बेहद सुन्दर लघुकथा!
हा हा हा हा .....सदा ही आप मुझे प्रोत्साहन करते आये है आदरणीय तेजवीर सिह जी । ये मुझे बेहद प्रिय है आभार आपको तहेदिल से ।
" छुपी रुस्तम कौन ?" ......मैं ? कहाँ ! देखिये ना , कहाँ बन पाई आदरणीया अरचना जी , जैसा कि इसे बनना चाहिये था ! हमारे मैथिली में कहते है इसको कि "बड सेवे ओछ फल "... अर्थार्त इतने बडे-बडे प्रयासों के बाद बस इतना कम फल !
अगले बार फिर कोशिश करूँगी क्योंकि कहते है कि कोशिश करने वालों क कभ हार नहीं होती है । सादर
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