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हार्दिक आभार आदरणीय अर्चना त्रिपाठी जी !
हार्दिक आभार आदरणीय अनिता जैन जी !
अच्छी कथा लिखी आपने पिता के बोये खुद्दारी के बीज सुलतान सिंह के मन में अंकुरित हो चुके है | और जहां तक मेरा अल्प-ज्ञान कहता है कथा मूल रूप से निम्न सम्वादों से आरम्भ होती है ---
"क्यों सुल्तान, क्या तुम्हारी यह पोशाक मेरे दिये वस्त्रों से अधिक कीमती और सुंदर है"!
"नहीं मैडम कदापि नहीं,मेरी यह पोशाक आपके दिये वस्त्रों का मुक़ाबला किसी भी द्रष्टिकोण से नहीं कर सकती"!
"फ़िर क्या वज़ह थी जो तुमने मेरी दी पोशाक नहीं पहनी"!
“मैडम ,मेरे पापा की सदैव एक ही आकांक्षा थी कि उनका परिवार ईद और दीवाली पर हमेशा नये वस्त्र पहने और वह भी मेहनत की कमाई से"! बाकी का सब फ्लेशबैक में कहा गया है | अतः कथा काल-खंड दोष से मुक्त है | बाकी का गुरुजन बताएँगे | सादर
हार्दिक आभार आदरणीय सुधीर द्विवेदी जी !
खुद्दारी भी कोई चीज होती है साहब। उत्तम। बच्चा है मगर डगमगाया नहीं। यह तो हमारा बाप निकला। सशक्त लेखनी। नवोदितों के प्रेरणा ( अगर कोई लेना चाहे तो )
हार्दिक आभार आदरणीय प्रदीप नील जी !
एक बच्चे की खुद्दारी को लेकर प्रदत्त विषयानुरूप लघुकथा प्रभावित करती है आ० तेजवीर सिंह जी I मेरी हार्दिक बधाई प्रेषित है. लेकिन यह रचना अभी भी कसावट मांग रही है I लघुकथा में पात्रों की भाषा का उनकी आयु, रुतबे और सामाजिक स्तर के अनुरूप होना नितांत आवश्यक होता है I आपकी लघुकथा के दो संवादों की तरफ ध्यानाकर्षण चाहूँगा:
//"नहीं मैडम कदापि नहीं,मेरी यह पोशाक आपके दिये वस्त्रों का मुक़ाबला किसी भी द्रष्टिकोण से नहीं कर सकती"!//
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“मैडम ,मेरे पापा की सदैव एक ही आकांक्षा थी कि उनका परिवार ईद और दीवाली पर हमेशा नये वस्त्र पहने और वह भी मेहनत की कमाई से"!
एक सात-आठ साल के बच्चे (जोकि हिन्दू बाप और मुस्लिम माँ की संतान है, और जिसकी माँ किसी के घर नौकरानी है) के मुख से "कदापि", "अन्यथा", "वस्त्र", "दृष्टिकोण", "सदैव" और "आकांक्षा" जैसे भरी भरकम शब्द सही नहीं लग रहे I
हार्दिक आभार परम आदरणीय योगराज प्रभाकर जी !आपकी लघुकथा पर उपस्थिति और टिप्पणी दौनों ही मेरे लिये आशीर्वाद हैं!आपके विचारों से मैं शत प्रतिशत सहमत हूं!कहीं कहीं लघुकथाकार, लघुकथा के पात्रों पर हावी हो गया है!उसी का परिणाम है कि लघुकथा अपने गंतव्य से भट्क गयी है!भविष्य में इस बात का पूरा ध्यान रखूंगा!सादर!
बच्चे की उम्र को देखते हुए कहा जा सकता है कि वह बहुत ज्यादा समझदार है और साथ ही सात-आठ वर्ष की आयु में ही उसे अपने स्वर्गीय पिता की कही बातें बखूबी याद है . शीर्षक को सार्थक करती प्रस्तुति आदरणीय तेज वीर जी .
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