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अंत में न लडखडाती तो कथा बहुत अच्छी जा रही थी नयना जी। " माँ हमेशा ... "यह पंक्ति न लिखती तो बात ही कुछ और होती आरती जी। बॉस ने गलत शब्द प्रयोग किया। बेचारी निधि की यह महत्वाकांक्षा नहीं आकाक्षां ही थी और यह कोई बुरी बात नहीं। थोड़ा अभ्यास , थोड़ा संयम और बस आपकी लेखनी को धार मिली। कथा आपको कहनी आती है , बधाई ( क्या नहीं कहना यह थोड़ा अभ्यास कर लें )
निवेदन पर ध्यान दीजिएगा
लघुकथा कहने का सद्प्रयास हुआ है आ० नयना जी I किन्तु रचना अनावश्यक विस्तार से बिखरी-बिखरी सी लग रही है I कुछ हिंट दे रहा हूँ, शायद उनसे मेरी बात अधिक स्पष्ट हो जाए:
१. निधि ने कौन सी डिग्री हासिल की, कहाँ से हासिल की - इससे कोई फर्क नहीं पड़ता I
२. गोल्ड मैडल वाली बात न भी की जाती तब भी सन्देश साफ़ था I
३. हैदराबाद की जगह बंगलौर/पुणे/मुंबई/चेन्नई भी होता तो कुछ फर्क पड़ता ? मल्टीनेशनल कम्पनी का ज़िक्र ही काफी नहीं था क्या ?
४. अगर वह इतने बड़े संस्थान से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करके आई थी तो क्या उसको इतनी भी समझ नहीं थी कि बिना प्रोजेक्ट पूरा किये घर चली गई ?
५.नेहा घर आई - फिर वापिस काम पर लौटी ! यहाँ "कालखंड दोष" आ गया न ?
६.//माँ हमेशा कहती रही बेटी अतिमहत्वाकांक्षा मदांध व्यक्ति को पतन की ओर ले जाती है// किसी प्रोजेक्ट को पूरा करने में "अतिमहत्वाकांक्षा" कहाँ से बीच में आ गई ? आई आई टी से निकले हर छात्र के लिए तो बहुत भारी-भरकम पॅकेज और पद सुनश्चित माने जाते है I
"मेरा" कोई मानक नहीं है आ० नयना जी, हम सब विधा के मानकों से बंधे हुए हैं I
हार्दिक बधाई आदरणीय नयना जी !एक बेहतरीन विषय और उतना ही सशक्त प्रस्तुतीकरण!
बढ़िया रचना प्रदत्त विषय पर , और बेहतर हो सकती थी | बधाई स्वीकारें इस सद्प्रयास पर
कर्तव्य वेदी
ससुराल में आते ही आर्थिक संकट देख उस दुल्हन ने अपने सारे गहने उतारे और तत्क्षण उसे ले बाहर बैठक की ओर चल पड़ी।
" क्या तुम मुझे छोड़ दोगी ? मैं तो तुम्हें प्रिय हूँ ना ? ऐसे कैसे कर सकती हो तुम ?"-----आवाज से वह चौक उठी। मुड़ने को हुई कि फिर से वही आवाज ·······!
"कौन हो तुम ? और कहाँ हो ?दिखाई क्यूँ नही दे रहे ? सामने आओ.."
सुधा थोडा घबरा गई थी | नया घर,नया माहौल ,नये रिश्ते ..बहुत ध्यान रख रही थी वो कि कुछ गलती न हो जाए |
तभी फिर वही आवाज़ ..
" क्या तुम्हारा दिल नही टूट गया ऐसा करते हुए ..कितने अरमानों से पसंद किया था तुमने और एक झटके में सब छोड दोगी | तुम्हारा मन देखा था हमने जब हमें छू -छू कर अपने तन पर सजाने की आकांक्षा सीधे आंखों में चमक रही थी |" वह चकित थी। पोटली से बाहर झाँकते ज़ेवर उसकी राह रोके उसे अपने कर्म पथ से भ्रमित करने का प्रयास कर रहे थे। |
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