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नववर्ष आपके लिए नवहर्ष ले कर आए , यही दुआ है
जी आदरणीया रीता जी आभारी हूँ , मुक्त-कंठ से की गई इस प्रशंसा के लिए।
दम्भ धवस्त होने के लिए ही होता है , देर सवेर।
जिस दिन हम अच्छी और कम अच्छी लघुकथा में अंतर करना सीख जाते हैं , उसी एक दिन हम यकीकन ही अच्छे लेखक भी बन जाते हैं।
आपने लघुकथा के मर्म को समझा , अभिवादन स्वीकारें।
प्रदत्त विषय पर बढ़िया रचना , कभी कभी अनजाने में ही सही , सच निकल ही जाता है मुख से | बधाई आपको
जी शुक्रिया विनय जी।
सच निकल ही जाता है , मगर वो विनय कुमार सिंह होते हैं जो इस सत्य को पहचान पाते हैं
धन्यवाद ब्रदर
बढ़िया कथानक ...कभी कभी सच खुद ही जुबान पर आ जाता है. लघुकथा का असली आनंद कही और अनकही के बीच झूलता है आ० प्रदीप जी.. सबकुछ और बढ़िया हो जाता गर अनकही कही ना होती ... //“ और मैं क्या देश को खाने कीे... “// लघुकथा तो यहीं पर समाप्त हो जाती है..आगे तो शब्दों की बर्बादी है.. सादर.
बहुत आभारी हूँ सीमा जी , रचना-विवेचन के लिए आपने समय निकाला, और इसे सराहा।
"और बढ़िया हो जाने की संभावना " से मुझे नई ऊर्जा मिली। सच बताऊँ अभी तक सिर्फ बढ़िया से संतुष्ट रहता था।
और हाँ , आपने कितना सही कहा कि . //“ और मैं क्या देश को खाने कीे... “// लघुकथा तो यहीं पर समाप्त हो जाती है..आगे तो शब्दों की बर्बादी है.."
शब्दों की बर्बादी के लिए मां सरस्वती से क्षमा चाहता हूँ। उन लोगों से भी जो अक्सर कहते रहते हैं " मुझे शब्द नहीं मिल पा रहे "
वो बेचारे क्या जानें कि उनके हिस्से के शब्द तो इस नालायक ने बर्बाद कर डाले :)
पुन : शुक्रिया
आदरणीय प्रदीप नीलजी, आपकी प्रस्तुति से कोई प्रभावित हुआ या नहीं, यह इस तथ्य पर निर्भर करता है कि प्रस्तुतीकरण किस आयाम के सापेक्ष है. मंच के आयोजन विशेष उद्येश्य के साथ आयोजित होते हैं. अनायास ही लघुकथा लिख देने में तथा किसी प्रदत्त शीर्षक पर आयोजन के विन्दुओं को संतुष्ट करते हुए रचनाकर्म करने में महती अन्तर आप जैसे मुखर रचनाकार को न हो तो बड़ा ही क्षोभ होता है. आपकी प्रस्तुत लघुकथा अनकहे विन्दु को समझने का आह्वान करती है, परन्तु, आप, जैसा कि आपकी टिप्पणियों से प्रतीत हो रहा है, अन्यथा वाचाल हैं जो आयोजन की अपनी प्रस्तुति के अलावे स्वयं को जैसे साबित करना चाहता है ! ऐसा क्यों आदरणीय ?
आप अपेक्षाकृत नये सदस्य हैं. हम सब आपको अबतक सुनते रहे हैं. नये सदस्य से एक सीमा तक हर कुछ सुनना इस मंच का आचरण भी है तो कर्तव्य भी है. किन्तु, आदरणीय, अब आपको इशारा करना अत्यावश्यक प्रतीत हो रहा है.
इस आयोजन में अबतक पोस्ट हुई आपकी सभी टिप्पणियाँ देख गया हूँ. आप मंच के उद्येश्य को ही नहीं, वातावरण को भी सही ढंग से समझें. यह उचित होगा. तदनुरूप आपकी टिप्पणियाँ होनी चाहिये. दूसरे, अपनी बातें एक सीमा के आगे करना या करते रहना उचित नहीं. इसे आत्मश्लाघा कहते हैं जो सार्थक रचनाकर्म की सान्द्रता का व्युतक्रमानुपाती हुआ करती है.
सादर
बहुत ही मान और सम्मान के योग्य सौरभ जी,
मुझे खेद है कि मैंने मंच को ठीक से नहीं समझा और इस उत्सव को गोष्ठी समझ कर अपनी राय लगभग हर रचना पर प्रकट की . बहुत सद्स्यों को बुरा भी लगा होगा , उनसे भी क्षमा चाहता हूं . पर इतना जरूर कहूंगा कि किसी भी सम्मानित सदस्य की रचना पर टिप्पणी किसी तरह की दुर्भावना से नहीं की . आप जैसे विद्वान लेखकों के चरणों में बैठ कर जो सीखा, जो समझा , बस वही लिखा वहां .
आपने मेरी रचना पर पूरे एक पैराग्राफ की टिप्पणी दी, आभारी हूं . आप ने बहुत ही सुंदर विवेचना की मेरी कथा की .यूं ही मार्गदर्षन करते रहें , यही प्रार्थना है .
आदरणीय प्रदीप नील जी, भान हो रहा है कि आप मुझे गलत समझ रहे हैं. प्रत्येक रचना पर टिप्पणी करना सदा स्तुत्य है. किन्तु जिस फ़्लेमबोयन्सी में आपकी टिप्पणियाँ आयी हैं, उससे तनिक परहेज करें. यही उचित भी होगा. आदरणीय, हम सब भी शाब्दिक किलोल करते हैं. खूब करते हैं. किन्तु उसमें आत्मसंयम के साथ-साथ ’अथ योगानुशासनम्’ की गरिमा रहती है.
आप इस मर्म को समझ जायें हमारा इतना भर ही आग्रह है.
और जहाँ तक पाराग्राफ भर की टिप्पणी या बड़ी टिप्पणी का सवाल है तो, आदरणीय, यहाँ पन्ने भर की टिप्पणियाँ आती हैं. लेकिन वाही-तबाही के साथ नहीं.
सादर
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