परम आत्मीय स्वजन 62वें तरही मुशायरे का संकलन हाज़िर है| मिसरों को दो रंगों में चिन्हित किया गया है, लाल अर्थात बहर से खारिज मिसरे और नीली अर्थात ऐसे मिसरे जिनमे कोई न कोई ऐब है|
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मिथिलेश वामनकर
वो आइना है मगर मेरे रू-ब-रू ही नहीं
जो रु-ब-रु तो मेरा अक्स हू-ब-हू ही नहीं
जो काफिला-ए-चमन है तो रंगो-बू ही नहीं
हरेक शै जो मयस्सर, तो आरज़ू ही नहीं
ख़ुशी से खूब बरसते रहे बिला मौसम
उठा जो दर्द तो आँखों में आबजू ही नहीं
तमाम उम्र ये आँखों से इस कदर टपका
रगों में दौड़ने को अब जरा लहू ही नहीं
सफ़र ये अब नहीं आसान वासिते मेरे
वो हमसफर है मिला जिस से गुफ्तगू ही नहीं
किसे थी इतनी भी फुर्सत कि नाखुदा बनता
खुदी से मिल गया तो कोई जुस्तजू ही नहीं
ये शह्र किसलिए इतना बदल गया साहिब
कोई भी दोस्त नहीं कोई भी अदू ही नहीं
जबां को वक्ते-जुरूरत पे खोल, ऐ नादां
लबों के साथ अगर साहिबे-रफ़ू ही नहीं
तेरी तलाश में भटका हूँ उम्र भर लेकिन
"मेरी तलाश में मिल जाए तू, तो तू ही नहीं।"
ऐ रेगज़ार-ए-हयात और क्या सितम बाक़ी?
कि गर्द-ए-गम तो बहुत कोई दश्ते-हू ही नहीं
ज़बाने-उर्दू के क्या खुश-नवीस बन जाएँ ?
अदब की दुनिया में क्या वैसे आबरू ही नहीं?
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Saurabh Pandey
टपक पड़े जो इन आँखों से वो लहू ही नहीं ।
रग़ों में आग बहा दे वो जुस्तजू ही नहीं ॥
वो खोमचे को उठाये दिखा तो ऐसा लगा-
वज़ूद के लिए लड़ते हैं जंगजू ही नहीं !
बचा के रखना बुज़ुर्ग़ों की आँख से खुद को
उड़े लिबास तो कहते हैं आबरू ही नहीं ॥
ज़रा सँभल के चला कीजिये सड़क पे जनाब
लगे हैं बोर्ड जो ख़तरों के, फ़ालतू ही नहीं ॥
भटक रहा हूँ शहर में इसी उमीद के साथ
मेरी तलाश में मिल जाए तू, तो तू ही नहीं !
ढली जो साँझ तो पर्वत, ये घाटियाँ मुझसे
लिपट के प्यार भी करती हैं, ग़ुफ़्तग़ू ही नहीं !
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दिनेश कुमार
लबों की प्यास को उम्मीद-ए-आब-ए-जू ही नहीं
जो दस्तरस में नहीं उसकी आरज़ू ही नहीं
फ़िज़ा है सहमी हुई, बाग़बाँ भी हैराँ है
खिले हैं फूल मगर, उनमें रंग-ओ-बू ही नहीं
रहेंगे कैसे सलामत ये मेरे होश-ओ-हवास
दिल-ए-तबाह में जब क़तरा-ए-लहू ही नहीं
ग़मों के दौर ने जीना सिखा दिया मुझको
जिगर के चाक को अब हाजत-ए-रफ़ू ही नहीं
ज़र-ओ-ज़मीं के फ़सादात में ही उलझा है
हुआ ज़माना, बशर खुद से रूबरू ही नहीं
भटकता फिरता है इन्साँ , खुदा मिले कैसे
किसी के दिल में जो सौदा-ए-जुस्तजू ही नहीं
दिलों के आपसी रिश्ते न ख़त्म हो जाएं
उसे भी मेरी तरह शौक़-ए-गुफ़्तगू ही नहीं
जवाँ है तिश्नगी-ए-इश्क़, मयकदे रोशन
न जाने क्यूँ हमें अहसास-ए-हम-सुबू ही नहीं
वो जिस्म बेच के, बच्चों को अपने पालती है
ये कौन कहता है, उस माँ की आबरू ही नहीं
तेरा वजूद कहीं मुझ में है, मैं मानता हूँ
" मेरी तलाश में मिल जाए तू, तो तू ही नहीं "
हर एक क़ैस के दिल का यही ग़ुमान 'दिनेश'
कि दुनिया में मेरी लैला सा शम्अ-रू ही नहीं
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Manoj kumar Ahsaas
जिगर से दर्द गया आँख से लहू ही नहीं
हमारे सीने में अब तेरी आरज़ू ही नहीं
तेरा मिज़ाज़ मिला कशमकश की छाँव मुझे
मेरी निगाह में दुनिया के भ्रम यूँ ही नहीं
तुम्हारे नाम लिखें मेरे सब बयान है तंग
जो दिल में दौड़ रहा उसको कह सकूँ ही नहीं
मेरे ज़ुनूनो इंतज़ार की है बात अलग
मेरी तलाश में मिल जाये तू तो तू ही नहीं
तमाम ठोकरों के बाद दिल ये करता है अब
तेरी हसीन सी दुनिया में मै रहूँ ही नहीं
डगर पे अपनी बिछाये है मैंने काँटे सनम
मेरे सुकून का कातिल मेरा अदू ही नहीं
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Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan"
कहे अगर जो तु इक बार, सांस लूँ ही नहीं।
ज़ुबाँ को सील लगा दूँ मैं, कुछ कहूँ ही नहीं।।
मिलो जो एक दफ़ा मुझसे, अपने पन से ज़रा।
मिलन के बाद तो फिर शायद, मैं दिखूँ ही नहीं।।
ज़रा सुनो तो कभी तुम, बह्र में आओ मेरी।
कसम से और ग़ज़ल कोई, भी पढूँ ही नहीं।।
सुना है छन्द किसी ने, तुम्हें लिखा है वहाँ।
इधर भी ज़िद है कोई गीत, अब सुनूँ ही नहीं।।
अब एक बार जो आये हो, मेरे ख्वाबों में।
इसी जहाँ में रहूँ मैं तो, अब जगूँ ही नहीं।।
तेरी तलाश में जो आवरण, उतार दिया।
"मेरी तलाश में मिल जाए तू, तो तू ही नहीं।"
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गिरिराज भंडारी
रगों में आपकी दौड़ा कभी लहू ही नहीं
वगरना पूरी न हो ऐसी आरजू ही नहीं
रहा है तू ही तो बाइस मेरी अदावत का
खयाल में नहीं जो तू रहा, अदू ही नहीं
अगर न ख़्वाब हो शामिल तो वो हक़ीकत क्या
न हो जो ख़्वाब, हक़ीकत मे रंगो बू ही नहीं
जियें तो कैसे जियें ज़िन्दगी बतायें ज़रा
वो जिनके दिल मे बची कोई जुस्तज़ू ही नहीं
करे है दावा जो सारा जहाँ समझने का
खुद अपनी ज़ात से वो शख़्स रू ब रू ही नहीं
घटे तो कैसे घटे फासिला दिलों का अगर
मिले हैं जब भी, हुई कोई गुफ्तगू ही नहीं
वो बादा खाना नहीं जिसमे तू नहीं शामिल
जो तेरे हाथों से गुज़रे न वो सुबू ही नहीं
तलाश ख़त्म हो जाये वो फिर तलाश ही क्या
"मेरी तलाश में मिल जाए तू, तो तू ही नहीं।"
पलट के वक़्त की मानिन्द मैं न आऊँगा
लहू में मेरे मिली ऐसी कोई खू ही नहीं
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शिज्जु "शकूर"
वो शख़्स जिसकी रगों का लहू, लहू ही नहीं
मनाये लाख मगर वो तो सुर्ख़रू ही नहीं
ये तू है जिसके कहे पर लहू उबलता है
तेरी तरह का यहाँ कोई तुंदखू ही नहीं
तेरे बिना भी बहलता है दिल मेरा आ देख
शिकस्ता दिल को तेरी कोई आरज़ू ही नहीं
तेरे वज़ूद से इन्कार है मुझे ऐ बुत
बस एक तू है मुझे जिसकी जुस्तजू ही नहीं
मैं नाउमीद हुआ जाता हूँ हर एक कदम
“मेरी तलाश में मिल जाए तू, तो तू ही नहीं।"
बनावटी ये जहाँ है बनावटी इसाँ
चमन है फूल भी पर अस्ल रंगो बू ही नहीं
कभी तो चश्मे उबल जाते थे तेरे दम से
अब आसपास यहाँ कोई आबजू ही नहीं
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laxman dhami
वो खार खार ही क्या है जो जिश्तरू ही नहीं
वो खूबरू भी भला क्या जो नामजू ही नहीं
जताए प्यार भले ही अवाम से वो बहुत
मगर वो भूप ही क्या है जो तुन्दखू ही नहीं
नगर ये आपका चामका हकों को छीन बहुत
तभी तो गाव को हासिल विकास-ए-सू ही नहीं
जिसे भी मौका मिला यार रौंदता ही गया
जहा में नार की सच है कि आबरू ही नहीं
करेगा क्या वो वफाएं जहाँ में यार बता
वफा की राह की उसको तो आरजू ही नहीं
नहीं है काम का ये तन जो खूबरू है रखा
जहन तेरा जो अगर यार खूबरू ही नहीं
लगूँ किसी को दवा सा कहाँ से यार भला
मेरे बजूद में कायम वा चाकसू ही नहीं
न खूबरू है बदन और जिश्तरू है जहन
मेरी तलाश में मिल जाए तू तो तू ही नहीं
लिपट तो रोज रहे हैं खुली हवा में बहुत
गुलों में आज के यारब हया की बू ही नहीं
जहाँ भी देख रहा हूँ वहीं पे जुल्म दिखे
लगे है यार खुदा आज कूबकू ही नहीं
रखो न आस की होगी हदों की बात सफल
नजर में उसकी तो हमसे बड़ा अदू ही नहीं
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rajesh kumari
बिना रफ़ीक़ तो पीने की आरजू ही नहीं
सुरूर बूँद में जिसकी न हो सबू ही नहीं
चमन में पाक़ मुहब्बत का रंग है ही कहाँ
जवाँ रगो में रवाँ लाल वो लहू ही नहीं
नमाज़ के लिए लिक्खे हुए उसूल यहाँ
है रायगा ये अकीदत अगर वजू ही नहीं
तुझे ख़याल है कितना ये मैंने देख लिया
मेरी तलाश में मिल जाए तू तो तू ही नहीं
जिगर में त़ाब है जिसके वो सामने से लड़ें
कमर पे छुप के करे वार वो अदू ही नहीं
उदास होंगे पैमाने उदास होगी शमा
हुजूर जश्न में गर उनकी गुफ़्तगू ही नहीं
उसी समाज का हिस्सा है ‘राज’ तू भी यहाँ
नजर में जिसके गरीबों की आबरू ही नहीं
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Sachin Dev
जो अब तलक हुआ मैं उससे रूबरू ही नहीं
किसी खुदा की मेरे दिल को आरजू ही नही
अमीर बज्म में अपनी उछाल कर खुश है
नजर में उसकी गरीबों की आबरू ही नहीं
जिसे भी देखा वो रफ़्तार में दिखाई दिया
मेरी नजर में यहाँ कोई फ़ालतू ही नहीं
उसे लगा ये हुआ मामला ख़तम दिल का
मुझे लगा कि हुआ सिलसिला शुरू ही नहीं
किसे कुतर ले सियासत कोई न जान सका
ये वो गली है जहाँ कोई पालतू ही नहीं
पता गली का मुझे अपनी खुद तुम्हीं ने दिया
मेरी तलाश में मिल जाए तू तो तू ही नहीं
जरा सा सोच बहू अपनी ओ जलाने वाले
किसी की लाडली है वो तेरी बहू ही नही
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Dr Ashutosh Mishra
फ़कीर हूँ मुझे महलों की जुस्तजू ही नहीं
तमाम उम्र रही कोई आरजू ही नहीं
लहू ही खौला किये देख जुल्म जालिम के
मगर ये नस्ल कि तन में जरा लहू ही नहीं
वो गुल लगा हमें बेनूर नूर होते हुए
करेगा रूप भला क्या जो उसमें बू ही नहीं
समझ लो रूठे या उल्फत जवां हुयी दिल में
कली भंवर में अगर कोई गुफ्तगू ही नहीं
ख्याल लाख ही ग़ालिब से तेरे टकरायें
लिखेगी तेरी कलम शेर हू-ब-हू ही नहीं
है फलसफा जिसे शाईर ने शेर में यूं कहा
मेरी तलाश में मिल जाये तू तो तू ही नहीं
मचल रहे दो जवां दिल जवान सीनों में
मगर हया ने तो होने दी गुफ्तगू ही नहीं
गया हूँ टूट मैं अब इतना इन अजीजों से
कभी कभी लगे जीने की आरजू ही नहीं
बिखर रहा है अगर घर तो सास भी सोचे
सबब बिखरते घरों का सदा बहू ही नहीं
वो जिन्दगी के सफ़र में चला अकेला ही
हो हमसफ़र की उसे जैसे आरजू ही नहीं
न दर की कोई जरूरत मकाँ में है मुझको
मैं हूँ फ़कीर मेरा कोई है उदू ही नहीं
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Samar kabeer
बिछड़ के तुम से कोई दिल में आरज़ू ही नहीं
तुम्हारे जैसा यहाँ कोई खूबरू ही नहीं
तुम्हारे हिज्र में सब बह चूका है आँखों से
रगें है सूखी हुई जिस्म में लहू ही नहीं
हे उस मक़ाम पे मेरा जुनून-ए-इश्क़ जहाँ
कोई तलब ही नहीं कोई जुस्तुजू ही नहीं
जहाँ तलक भी नज़र जाए रेगज़ार है बस
शदीद प्यास का आलम है आब जू ही नहीं
वो जिस की तान से पानी बरसने लगता था
अब इस जहाँ में कोई ऐसा ख़ुश गुलू ही नहीं
अजीब ख़ौफ़ का आलम है सारी बस्ती में
गली मुहल्ले में बच्चों की हाऊ हू ही नहीं
हमारा दौर मशीनों का ऐसा जंगल है
जहाँ पे दूर तलक आदमी की बू ही नहीं
जनाब-ए-'शाद' ये उक़्दा ही हल नहीं होता
"मेरी तलाश में मिल जाए तू , तो तू ही नहीं"
हर एक शख़्स हिक़ारत से देखता है "समर"
तुम्हारे शह्र में आशिक़ की आबरू ही नहीं
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Dr. (Mrs) Niraj Sharma
जहां में मोह व माया सा तो अदू ही नहीं।
इसीलिए तो खुदा होता रूबरू ही नहीं।
जहां के कोने कोने में तुझे तलाश किया
बची हो कोई जो दुनिया में, कू-ब-कू ही नहीं।
न मिल सकेगा खुदा लाख चाहने पर भी
करो सफा दिलों को भी , फक़त वज़ू ही नहीं।
करो निसार जान-औ`-तन वतन की राहों में
वतन के वास्ते खौले न जो लहू ही नहीं।
मिटी हूं जिसके लिए मैं वफ़ा की राहों में
उसे तो पर कभी थी मेरी आरज़ू ही नहीं।
समझ न आए किया क्या ये तूने सेहर है
मेरी तलाश में मिल जाए तू तो तू ही नहीं।
बड़े अकीदे से दी थी जो तूने रब मुझको
मैं रख सकी वो चदरिया भी मू-ब-मू ही नहीं।
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नादिर ख़ान
न जाने कब से हमारी तो गुफ्तगू ही नहीं
हमें भी मिलने की अब तुमसे आरज़ू ही नहीं
तमाम उम्र की कोशिश, मगर मना न सके
हमीं पे फिर भी है तोहमत के आरज़ू ही नहीं
बहुत मिला है खुदा से बस एक तेरे सिवा
खुदा का शुक्र करूँ कैसे जब के तू ही नहीं
पहुँच गया हूँ मै मंजिल के आस पास मगर
मेरी तलाश में मिल जाए तू तो तू ही नहीं
खुदी को कर लिया ज़ख्मी, खुदी तबाह हुये
हमी हैं ख़ुद के, कोई और अब अदू ही नहीं
दिया है आस से ज्यादा मुझे खुदा ने मगर
मुझे तलाश है तेरी के एक तू ही नहीं
भटक रहा हूँ मै कब से बस एक तेरे लिए
है एक तू के जिसे मेरी जुस्तजू ही नहीं
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मोहन बेगोवाल
नजर मिली है मगर कोई गुफ्तगू ही नही ।
यही लगा हमें मिलने की आरजू ही नहीं ।
ऐ ! जिन्दगी ये है कैसा मकाम लाया तेरा,
हसीं तलाश करे, मेरी जुस्तजू ही नहीं ।
रंग भरें कि ये तस्वीर यूँ ही छोड़ चलें ,
जिसे मिले थे वही शख्स हू ब हू ही नहीं ।
चलों इसे तुझी पे छोड़ जाते हैं ऐ ! खुदा ,
"मेरी तलाश में मिल जाए तू तो तू हो नहीं" ।
उसी कि घर से जो निकले लगा ऐसा था हमें,
रखी हमारी जो उसने वो आबरू ही नहीं।
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shree suneel
है शाद दिल ये बहुत पास पर सुबू ही नहीं
बगै़र मय के रगों में लगे लहू ही नहीं.
अब इश्क़ है तो ज़माने की देख ज़ू़दरसी
वो राज़ जान गया जिसपे गुफ़्तगू ही नहीं.
तुम्हारे शह्र में इक ऐब दिख रहा है मुझे
कि यां तो कू ए सनम सा कोई भी कू ही नहीं.
हजा़र लफ्ज़ हैं उल्फ़त के इस फ़साने में नस़्ब
अ़जीब ये कि कहीं लफ्ज़ 'आरज़ू' ही नहीं.
दो चार गाम पे मंज़िल मिली है किसको यहाँ
मेरे हिसाब से तुमने की जुस्तुजू ही नहीं.
तुम्हीं कहो कि ये मिस़्राअ कह रहा मुझे क्या
मेरी तलाश में मिल जाए तू, तो तू ही नहीं
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मिसरों को चिन्हित करने में कोई गलती हुई हो अथवा किसी शायर की ग़ज़ल छूट गई हो तो अविलम्ब सूचित करें|
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वो आइना है मगर मेरे रू-ब-रू ही नहीं
जो रु-ब-रु तो मेरा अक्स हू-ब-हू ही नहीं
जो काफिला-ए-चमन है तो रंगो-बू ही नहीं
हरेक शै जो मयस्सर, तो आरज़ू ही नहीं
ख़ुशी से खूब बरसते रहे बिला मौसम
उठा जो दर्द तो आँखों में आबजू ही नहीं
तमाम उम्र ये आँखों से इस कदर टपका
रगों में दौड़ने को अब जरा लहू ही नहीं
सफ़र ये अब नहीं आसान वासिते मेरे
वो हमसफर है मिला जिस से गुफ्तगू ही नहीं
किसे थी इतनी भी फुर्सत कि नाखुदा बनता
खुदी से मिल गया तो कोई जुस्तजू ही नहीं
ये शह्र किसलिए इतना बदल गया साहिब
कोई भी दोस्त नहीं कोई भी अदू ही नहीं
जबां को वक्ते-जुरूरत पे खोल, ऐ नादां
लबों के साथ अगर साहिबे-रफ़ू ही नहीं
तेरी तलाश में भटका हूँ उम्र भर लेकिन
"मेरी तलाश में मिल जाए तू, तो तू ही नहीं।"
ये रेगज़ार-ए-जिंदगी अजब सितम करती
कि गर्द-ए-गम तो बहुत कोई दश्ते-हू ही नहीं
ज़बाने-उर्दू के क्या खुश-नवीस बन जाएँ ?
अदब की दुनिया में क्या वैसे आबरू ही नहीं?
(संशोधित ग़ज़ल)
आदरणीय राणा सर, आयोजन की सफलता हेतु हार्दिक बधाई एवं संकलन हेतु हार्दिक आभार. निवेदन है कि आयोजन के दौरान साझा हुई सलाह अनुसार ग़ज़ल में संशोधन किया है. उक्त संशोधित ग़ज़ल संकलन में मूल ग़ज़ल के स्थान पर प्रतिस्थापित करने की कृपा करें. सादर
आदरणीय मिथिलेश जी सेकेण्ड लास्ट शेर का मिसरा ए सानी अब भी बेबहर है| इसे भी दुरुस्त कर लें तो एकसाथ ग़ज़ल प्रतिस्थापित कर दी जाएगी|
आदरणीय राणा सर, सेकेण्ड लास्ट शेर का मिसरा ए सानी की इस तरह तक़्तीअ कर रहा हूँ-
कि गर्द-ए-गम / तो बहुत को / ई दश्ते-हू / ही नहीं
1 2 1 2 / 1 1 2 2 / 1 2 1 2 / 1 1 2
उला मिसरे में संशोधन किया है. सादर निवेदानार्थ-
ऐ रेगज़ार-ए-हयात और क्या सितम बाक़ी?
कि गर्द-ए-गम तो बहुत कोई दश्ते-हू ही नहीं
संशोधित ग़ज़ल
वो आइना है मगर मेरे रू-ब-रू ही नहीं
जो रु-ब-रु तो मेरा अक्स हू-ब-हू ही नहीं
जो काफिला-ए-चमन है तो रंगो-बू ही नहीं
हरेक शै जो मयस्सर, तो आरज़ू ही नहीं
ख़ुशी से खूब बरसते रहे बिला मौसम
उठा जो दर्द तो आँखों में आबजू ही नहीं
तमाम उम्र ये आँखों से इस कदर टपका
रगों में दौड़ने को अब जरा लहू ही नहीं
सफ़र ये अब नहीं आसान वासिते मेरे
वो हमसफर है मिला जिस से गुफ्तगू ही नहीं
किसे थी इतनी भी फुर्सत कि नाखुदा बनता
खुदी से मिल गया तो कोई जुस्तजू ही नहीं
ये शह्र किसलिए इतना बदल गया साहिब
कोई भी दोस्त नहीं कोई भी अदू ही नहीं
जबां को वक्ते-जुरूरत पे खोल, ऐ नादां
लबों के साथ अगर साहिबे-रफ़ू ही नहीं
तेरी तलाश में भटका हूँ उम्र भर लेकिन
"मेरी तलाश में मिल जाए तू, तो तू ही नहीं।"
ऐ रेगज़ार-ए-हयात और क्या सितम बाक़ी?
कि गर्द-ए-गम तो बहुत कोई दश्ते-हू ही नहीं
ज़बाने-उर्दू के क्या खुश-नवीस बन जाएँ ?
अदब की दुनिया में क्या वैसे आबरू ही नहीं?
आदरणीय मिथिलेश जी ग़ज़ल प्रस्थापित कर दी है|
hardik abhar sir
Maaf kijiyega misra e oolaaa be bhr hai
विगत आयोजन की सभी ग़ज़लों का चिह्नित हो कर सामने आना एक बार फिर से आयोजन को जीने के बराबर हो जाता है.
इस प्रयास हेतु धन्यवाद राणा भाई,
आयोजन में शामिल हो पाना गर्व की बात है। इस आयोजन के माध्यम से कुछ कुछ सीखा है, आगे भी बहुत कुछ सीखने की इच्छा है।
मंच संचालक एवं सभी गुनी जनों का आभार, जिनकी उपस्थिति आयोजन में चार चाँद लगा देती है|
आदरणीय राणा प्रताप भाई , एक सफल तरही मुशाइरे के लिये आपको, मंच को और समस्त प्रतिभागियों को दिली बधाइयाँ । संकलन के लिये आपका आभार ।
घटे तो कैसे घटे फासिला दिलों का अगर
रू ब रू मिल के हुई कोई गुफ्तगू ही नहीं
ऊपर लिखा शे र मेरी गज़ल का बे बहर ह गया था उसे , नीचे लिखे अनुसार बदलने की कृपा करें
घटे तो कैसे घटे फासिला दिलों का अगर
मिले हैं जब भी, हुई कोई गुफ्तगू ही नहीं
सादर निवेदन ।
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