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रंगत (लघुकथा)
"पैंतीस साल की नौकरी के बाद भी न कोई कदर है न कोई इज्ज़तI ये भी साली कोई जिंदगी है? इससे अच्छा तो मौत ही आए, सारा टंटा ही ख़त्म होI" अपना स्कूटर दीवार से साथ लगाकर बाबूजी बडबडाते हुए घर में दाखिल हुएI
दरअसल आज का दिन ही मनहूस था बाबू जी के लिएI सुबह घर से काम पर जाने के लिए निकले तो तो रास्ते में स्कूटर खराब हो गया, सुबह सुबह कोई मैकेनिक भी नहीं मिला तो लगभग तीन मील तक बमुश्किल स्कूटर तो घसीटते हुए कारखाने पहुँचेI जाते ही उस नए अफ़सर ने बिना कुछ सुने बाबू जी को देर से आने पर न केवल डांटा बल्कि नौकरी से निकाल देने की धमकी भी दी थीI दोपहर को पता चला कि तीर्थ यात्रा पर जाने के लिए उनकी छुट्टी मंज़ूर नहीं हुईI यही नहीं अपने छोटे बेटे के दाखिले हेतु जो ऋण की अर्जी दी थी, वह भी अस्वीकार कर दी गई थीI उनका खाना भी आज डिब्बे से बाहर नहीं निकला, और भोजनावकाश के समय वे बीडी पर बीडी फूंकते रहेI
"बाबू जी, पानीI" बाबू जी को देखते ही उनकी पुत्रवधु पानी का गिलास उनके सामने रखते हुई बोलीI
"नहीं बहू मुझे नहीं चाहिए, ले जाओ उठाकरI" बाबू जी के माथे की त्योरियां और गहरी हो रही थीI
"इतने परेशान क्यों हो, तबियत तो ठीक है न? क्या हुआ है तुम्हें ?" बाबू जी की पत्नी भी कमरे में आ पहुंचीI
"कुछ नहीं हुआ मुझे, बस तुम लोग जायो यहाँ सेI" बाबू जी ने उन्हें उँगली के इशारे से बाहर का रास्ते दिखाते हुए कहाI
"बाऊ जी, वो आपके लोन का क्या हुआ?" स्थिति से अनभिज्ञ छोटे बेटे ने कमरे में प्रवेश करते ही पूछाI
उत्तर में बाबूजी ने उसे बुरी तरह घूर कर देखा, उनका यह रूप देखकर सब ने वहाँ से जाना ही उचित समझाI बीडी सुलगाकर वे फिर बडबडाने लगे:
"ये जिंदगी है कि साला नरक?" कमरे की दीवारों का ज़र्द पीला रंग धीरे धीरे उनके चहरे पर उतर रहा थाI और वे एकटक दीवारों को घूरे जा रहे थे, उदासी का सन्नाटा पूरे कमरे में फैल चुका था, तभी नन्ही नन्ही पायलों की छनछन से कमरा गूंजने लगाI
"दादू, दादू जी!!"
इन शब्दों से उनकी तन्द्रा भंग हुई, तीन साल की पोती अचानक उनकी टांगों से आ लिपटी और बाबूजी के माथे से त्योरियाँ कम होने लगींI
"अले अले अले! मेरी गुगली मुगली! मेरी म्याऊँ बिल्ली! कहाँ चली गई थी तू? दादू जी कब से तुझे ढूँढ रहे थेI" नन्ही पोती को उठाते हुए वे पक्षियों की भांति चहक रहे थे, पोती ने भी अपना सर दादा जी के कंधे पर रख दिया I अब धीरे धीरे उनके चेहरे के पीलेपन पर पोती की फ्रॉक का लाल रंग चढ़ना प्रारंभ हो चुका थाI उसके सर को धीरे से थपथपाते पुत्रवधू को आवाज़ दी:
"एक कप गर्मागर्म चाय तो पिला दे बहूरानीI"
(मौलिक और अप्रकाशित)
मोहतरम योगराज साहिब ,दिल पर असर करती बेहतर लघु कथा के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
हार्दिक बधाई परम आदरणीय योगराज प्रभाकर जी!बेहतरीन प्रस्तुति!वैसे तो हम आपकी लघुकथा पर प्रतिक्रिया देने में सक्षम नहीं हैं!मगर एक विशेषता होती है आपकी लघुकथाओं में कि लघुकथा की पहली पंक्ति से आखिरी पंक्ति आने तक पाठक तल्लीनता और एकाग्रता की मूर्ति बना रहता है!लघुकथा का विषय,शिल्प,संवाद और प्रवाह पाठक को अंत तक बांधे रखता है!पुनः हार्दिक बधाई!
रचना पढ़ कर मुग्ध हूँ ,प्रभाकर जी। साली जिंदगी कितनी सहजता से गुगली मुगली म्याऊँ बिल्ली की तरह लाड़ली हो गई , पता ही नहीं चला। यही आपकी रचना की ताकत भी है कि शांत झील सा सुकून देती प्रतीत होती है , किसी अधजल गगरी की तरह शोर मचाती नहीं। माँ की ममता शब्द का पुल्लिंग पूरे शब्द कोष से गायब है , आपकी रचना में दादू का स्नेह देख इसकी कमी और भी खलती है। बधाई स्वीकारें
आदरणीय योगराज सर, बाबूजी की गूगली मुगली म्याऊँ बिल्ली जैसी ही प्यारी लेकिन बहुत सशक्त लघुकथा हुई है. कथानक अद्भुत है जिसमें आपकी शैली का जादू भी स्पष्ट दिखाई दे रहा है. प्रदत्त विषय और शीर्षक दोनों को सार्थक करती इस शानदार लघुकथा पर हार्दिक बधाई निवेदित है. सादर नमन
बहुत-बहुत आभार आदरणीय सर, हम सभी की एक और कक्षा के लिये, एक छोटा ट्रीटमेंट लघुकथा कैसे कर सकती है, आज यह समझने का प्रयास किया| नमन आपको सर|
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