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आभार तहेदिल से आपका । नमन
आभार तहेदिल से आपका भाई।
कथानक अच्छा चुना लेकिन प्रस्तुति ढीली रह गई, रचना को और समय दिया जाना चाहिए थाI बहरहाल, बधाई स्वीकरें आ० सविता मिश्रा जीI
जी भैया मंथन करते है अपने दिमाग अनुसार...आभार तहेदिल से आपका भैया ...सादर नमस्ते
ईर्ष्य के कारण जाने कितने रिश्ते धूमिल हो जाते है ये तो दोस्ती थी , अच्छी कथा हुयी है बधाई स्वीकारें
प्रदत्त विषय के साथ परिचित मुहावरे को जोड़कर आपने कथा को बहुत प्रभावशाली बना दिया है ,हार्दिक बधाई आपको इस र्रचना पर आदरणीया सविता मिश्र जी
दोस्ती पर कलंक ,बढिय़ा कथा बधाई आदरणीय।
" सच्चा साथी"
हर बार मैं डाक्टर से एक ही सवाल करती.कब तक ठीक होंगे?
"पता नहीं कुछ कह नही सकते.१ घंटा,१ दिन, १माह,१वर्ष कुछ भी हो सकता है.उनके शरीर के बाकी सारे अंग सुचारु रुप से काम कर रहे है.बस मस्तिष्क के कुछ हिस्से मे रक्त प्रवाह ठीक ना होने से ये सब हो रहा है.पेशेंट सर्जरी के हालात मे भी नही है."
किसी को पहचानते नही थे, ना बेटे को ना माता-पिता को.बस जब मैं हाथ थामती तो दो बूँदे आँखो से ढलक पड़ती.यही देख डाक्टर उम्मीद लगाते कहते--
"बेटा! वो लौट आएगा, ज़रुर लौट आएगा."
अस्पताल का वह कमरा वर्ष भर से हमारा घर था. सभी से यथा संभव मदद मिल रही थी किंतु मैं भी स्वाभिमानी बार बार आखिर कब तक...
एक उम्मीद स्वयं से की और सासु माँ की सहायता से बैंक परिक्षा की तैयारी कर एक्ज़ाम भी दे आयी.
तभी कमरे का फ़ोन घनघनाया.उधर से भाई की आवाज़ थी.
"दीदी! मुबारक हो तुम चुन ली गई हो. बस अब एक पायदान बची है इंटरव्यू.."
पुरा वाक्य सुने बिना ही दौडकर सुनील का हाथ थाम कानों मे खुश खबरी सुनाई.आँखो से ढलकने वाली बूँदे अश्रुधारा बन गई.
ईश्वर के आगे शीष झुकाने मुडी ही थी कि सालभर से बेजान सुनील के हाथों मे हलचल हुई. झट हौले से हाथ थाम लिया मेरा.
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