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वाह ! अगर तू खाना घर पर बनाता तो आटे के डिब्बे में हमने जो दस हजार रूपये रखे थे..बहुत सुन्दर रचना ,हार्दिक बधाई आ. सुनील जी ! सादर
कथ्य और शिल्प के दृष्टिकोण से खूबसूरत लघुकथा कही है भाई सुनील वर्मा जीI माँ ने सब कुछ जानते हुए भी साथी होने का फ़र्ज़ बहुत बढ़िया तरीके से निभाया हैI प्रदत्त विषय से न्याय करती हुई इस रचना पर मेरी बधाई स्वीकार करेंI
वाह कहे बिना नहीं रहा जाएगा , इसलिए इस कथा हेतु दिल से वाह !! बहुत बहुत बधाई इस कथा के लिए । आजकल के बच्चों पर अच्छा तंज़ कसा है आपने जो घर से दूर पढ़ने के लिए भेजे जाते है , माँ बाप बाप के सपने किस कदर कुचलते है ये उन्हे तब पता चलता है जब समय हाथ से जा चुका होता है ।
ये कथा मुझे ख़ास लगी क्योंकि आज ही मै मुंबई में अपने बेटे जिसकी दो महीने पहले जॉब लगी है , से मिलकर लौटी हूँ ,और खूब समझती हूँ कि जो बच्चे बोलते हैं उससे ज्यादा माँ वो सुन लेती है जो वो नहीं बोलते हैं ,हार्दिक बधाई इस दिल के पास लगने वाली कथा के लिए आपको सुनील जी
वाह, क्या बात है, बहुत ही सुन्दर कथा प्रस्तुत हुई है, कुछ समय पहले सोसल मिडिया पर वायरल हुई एक कहानी याद आ गयी जिसमे बाप ने होस्टल में रह रहे अपने बेटे की खुराफात पकड़ने के लिए तकिया के नीचे प्लेट छुपा दिया था :-)
बहुत बहुत बधाई आदरणीय सुनील जी इस प्रस्तुति पर.
बेवफा (साथी विषय पर आधारित)
" आखिर बात क्या हैं? जब से लौटे हो अत्यंत गुमसुम रहते हो !" मित्र दिनेश से रमेश ने पूछा
" सोचा था पत्नी का पर्याप्त साथ मिलेगा, लेकिन ----- "
" लेकिन क्या ? भाभी तो एक समर्पिता हैं।"
" समर्पिता !" ख़्यालों के सागर में डूबते हुए बड़बड़ा उठे:
" ब्याह के पश्चात वह हमेशा साथ रहना चाहती थी।परन्तु अपनी जिम्मेदारियों की बेड़ियां उसकी बेबसी बना उसके ही पैरों में डाल दी। उसकी सहज बातों से भी मुझे चिढ़ होती।बड़े भैया-भाभी का स्वार्थी रवैया देख शायद मुझे डर था की झुकाव उसकी ओर हो गया तब परिवार का क्या होगा ? धीरे-धीरे उसने बच्चों और गृहस्थी में खुद को डुबो लिया और मैं निश्चिन्त होता चला गया।"
" अब शिकायत क्यों हैं ? उन्होंने तो सारी जिम्मेदारियां बड़ी कुशलता से निभाई हैं।"
" वो तो ठीक हैं, लेकिन अब अपना ही घर पराया लगता हैं।वह कागज-कलम में इतना व्यस्त रहती हैं की जैसे वही उसके साथी हैं।"
" तुम्हारे दिए अकेलेपन को सूद समेत लौटा रही हैं अब।"
" नहीं , मैं एक बेवफा से उर्मिला सी वफा की उम्मीद कर रहा था।"
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मौलिक एवं अप्रकाशित
" तुम्हारे दिए अकेलेपन को सूद समेत लौटा रही हैं अब।" बढ़िया कथा आदरणीया _/\_
जीवन साथी कहने भर को ही साबित हुए एक दूसरे के लिए। आपकी ये कथा एक गंभीर परिस्थिति को इंगित करती है कि कौन कितना सही है। पत्नी ने अपने अकेलेपन से उबरने का सहारा तलाश लिया तो बेवफा हो गयी ! क्या ये वफादारी का सब ठेका स्त्रियों ने ही ले रखा है ? वे अपना किया कैसे भला भूल सकते है। बेहतरीन प्रस्तुति हुई है ये आदरणीया अर्चना जी लघुकथा सन्दर्भ में। हृदयतल से बधाई प्रेषित है।
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