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सपनों को सजा कर देखूँ (ग़ज़ल)// डॉ. प्राची

2122, 1122, 1122, 22

खुद को मिट्टी में चलो फिर से मिला कर देखूँ।
आख़िरी बार सही, रिश्ता निभा कर देखूँ।

उसने सीने में ही बारूद छिपा रक्खा है,
कैसे चिंगारियाँ नफरत की बुझा कर देखूँ?

दर्द अब रूह तलक मुझको न झुलसा डाले,
उफ़! ये लावा मैं कहाँ आज बहा कर देखूँ?

ज़िन्दगी मौत की दहलीज़ पे लाई, फिर भी-
दिल ये कहता है कि सपनों को सजा कर देखूँ।

मुख जो मोड़ा था हकीकत से, हुआ क्या हासिल?
कर के हिम्मत ज़रा नज़रें तो मिला कर देखूँ।

वो हिलाएगा भला कैसे जड़ों को मेरी,
मैं कभी पाँव तो अंगद सा जमा कर देखूँ।

अजनबी बन के डराती थी मुझे तन्हाई
क्यों न हमदम मैं उसे आज बना कर देखूँ?

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by vijay nikore on April 24, 2016 at 4:31pm

एक और खूबसूरत गज़ल के लिए बधाई।


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Comment by rajesh kumari on April 10, 2016 at 9:42pm

अच्छी ग़ज़ल लिखी है प्राची जी दिल से बधाई लीजिये 

Comment by gumnaam pithoragarhi on April 10, 2016 at 1:41pm

वाह खूब वाह ./..............................

Comment by रामबली गुप्ता on April 8, 2016 at 9:06pm
वाह वाह आदरेया बहुत ही सुंदर गजल हुई है। बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें

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