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उसके गले में गोया सहस्त्रों  केक्टस उग आये हों 

थोड़ी थोड़ी देर में उनको निगलने की कोशिश में

गले की कोशिकाएँ कभी खिंच रही थी

 कभी  फूल रही थी

साँसें नियंत्रण खो रही थी

आँखों में दर्द के लाल डोरे उभर आये थे

मुझे ऐसा लगा मैं बहते दरिया को  बाँध से रोकते हुए  देख रही हूँ

जो कितना तकलीफ देह है

कुछ देर  और देखती रहूंगी तो वो मेरी आँखों

के रास्ते बह चलेगा

क्यूँ नहीं उस दरिया को मुक्त किया जा रहा

भावनाओं पर नियंत्रण का क्यूँ निरर्थक प्रयास किया जा रहा है

बेटी की विदाई के वक़्त भी  

दिल की मजबूती का ये ढोंग!!

आखिर क्यूँ ?

क्या उस वक़्त भी पुरुषत्व ??  

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on April 15, 2016 at 1:16pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी
सुन्दर प्रस्तुति ..भावुक क्षण और बेताबी ..मन तो कठोर करना ही होता है पुरुष तो पुरुष है कठोरता कभी कभी ...
भ्रमर ५

Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on April 12, 2016 at 1:51pm
आदरणीय बहुत सुन्दर विचार
बधाई हो

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