आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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सुंदर सन्देश देती हुई गूढ़ अर्थ से परिपूर्ण इस कथा के लिए बधाई आदरणीया कान्ता जी ।
किसी भी दृश्य के तमाशबीन दृश्य देखकर अपने अंदर झाकने लगते है, तो कुछ नवप्रयोग में नकारात्मक सोच रखते हुए दोसने लगते है | आखिर तमाशबीन है उनका क्या | लघुकथा में नया पण है इसके लिए बधाई आदरणीया कान्ता रॉय जी
कुछ कुछ कह सवाल बने लोग अब अपने भीतर की तमाम गंदगी उलीच रहे थे,कथा के ज़रिये लेखन में कूड़े करकट का पहाड़ उस पर देशप्रेम का प्रतीक,क्या कहना चाहा है,मेरी अल्प बुद्धि के ऊपर से निकल गया ।बधाई आपके लिये आद० कांता राय जी
बार बार पढने के बावजूद इस वैचारिक लेख को लघुकथा कैसे समझूँ ...यही समझ में नहीं आ रहा. कौन सृजन किया, कैसे सृजन किया, क्यों सृजन किया और क्या सृजन किया ...इस पर कई कई बार मंथन हुआ किन्तु नतीजा सिफ़र रहा. कुछ कहते नहीं बन रहा, बस ....निशब्द हूँ आदरणीया कांता जी. सादर.
भइया गनेस जी.. आपके निश्शब्दवा केतना मुखर है जी ! लेकिन ईहो देखिये, जो आपको नहीं बुझाया, हमको नहीं सुझाया, ऊ केतना लोगन को चमत्कार जैसा लउका है. उनके चमत्कार को नमस्कार... हम खुदे नत हैं.
जय हो..
ओइसे आदरनीया कन्ताजी, अब से निकहा लिखने का कसम खाइन हैं.. आगा का उनका ऊ कूल्ह पोस्ट देखियेगा जो ऊ हमको लिखिन हैं.. त आपको भी बुझायेगा. हमभी उनका ई कूल्ह कहले प उन्न-मुन्न हैं .. !
सो अबहीं उनका दूध-भात में हर्दी-गुर्दी है... :-))))
ओतने नहीं न, साथे-साथे सात हाथ पगहवो ले गयी न !! .. असली बवाल त इहाँ है....
;-)))
आदरणीया कान्ता रॉय जी प्रदत्त विषय पर परोक्ष रूप से कटाक्ष करना आपकी कलम का कमाल है। प्रदत्त विषय की गहनता को उजागर करती इस लघु कथा की प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई।
प्रतीकों के माध्यम से बहुत गूढ़ कथा कही है आदरणीय आपने।जंहा तक समझ पाया हूँ, एक समान्य व्यक्ति भीड़ से अलग दिखने के लिए असामान्य चारित्रिक विकृति उत्पन्न कर गंदगी के पहाड़ पर खडा हो कर परचम लहराता
है,तमाशबीनों के मन में जो आयगा वही तो उगलेंगे ,भले ही कोई महिमा मंडित करे ।असामान्य के विशलेषण की आवश्यकता के महत्व को रेखांकित करती कथा हेतु बधाई आदरणीय कांता राय जी।सादर ।
कांताजी पहले आप बहुत सरल लिखती थी पर अब ओबोओ मे बहुत गहन लिखने लगी है। आप की कथा को बार बार पढ़ने के बाद मुझे लगा कि मेरे जैसे सामान्य पाठक के लिए ईसे थोड़ा सरल करने की आवश्यकता है। सार्थक प्रयास के लिए बधाई हो आ.कांताजी.
आदरणीय कांता जी, मैं कल से कई बार आपकी कथा पढ़ चुकी हूँ. पता नहीं मुझे कुछ क्यूँ नहीं समझ आ रहा है. कृपया प्रतीकों और बिम्बों को स्पष्ट करने हेतु कुछ क्लू दें. मुझे महसूस हो रहा है आपने हाल के नए उभरे छात्र नेता पर लिखा है जो
"चरित्र में उग आये टेढ़ेपन की वजह से भीड़ में अलग , अपनी तरह का वह अकेला व्यक्ति है " से लग रहा है.
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