आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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जय हो.. :-))
लिहले ’मनुज’ अवतार.. ललन गुलजार कइले ’बखरी’ ..
जय जय भईया :-)))))))
आभार आदरणीय सुनील जी.
वाह बहुत ही शानदार सम्पादन सर
बहुत खूब सुनील जी .. तमाशबीनों के बहुधा यही हश्र होते हैं .. सादर
कहीं हम ही सच में बच्चों को ये घुट्टी में पिलाते हैं कि अपने काम से काम रखो ,किसी पचड़े में मत पड़ो, अथार्त तमाशबीन बने रहो , हिम्मत को हीरो पंथी कहते हैं, और जब खुद पर पड़ती है तो दूसरों की संवेदनहीनता की शिकायत करते हैं इतनी सार्थक कथा से आयोजन का फीता काटने के लिए आपको बधाई
आदरणीय सुनील वर्मा जी प्रदत्त विषय को सार्थक करती इस संदेशप्रद लघुकथा की प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई।
इंसान जब तक बच्चा है तब तक समझो सच्चा है. दूसरा थप्पड़ वाकई उस बच्चे को दुनियादारी सिखा दिया होगा. अच्छी प्रस्तुति आपकी आदरणीय सुनील जी.
आदरणीय सुनील कुमार जी, कथानक बहुत बढ़ीया है आपकी लघुकथा का परन्तु प्रस्तुतिकरण थोड़ा कमज़ोर रह गया जिस वजह से लघुकथा वह प्रभाव नहीं दे पाई जो इस सशक्त कथानक की वजह से उसे देना चाहिए था। /घर का वह सदस्य जो अभी........घर से बाहर भेजा गया/ इन पंक्ितयों में 'घर का वह सदस्य' कथा की सम्प्रेषण शक्ित को कमजोर बना रहा है। यदि वह 'घर का सदस्य' था तो घरवालों का उससे व्यवहार 'अपने मतलब की समझदारी' कुछ अजीब सा लगता है। और उसके बाद जिस युवक के सिर पर पत्थर मारा उसका उस बालक को केवल थप्पड़ मार कर छोड़ देना भी सही नहीं लगता खासकर जब वह वह युवक भरे बाज़ार में एक लड़की से छेड़छाड़ कर रहा हो क्योंकि शरेआम छेड़छाड़ करने वाला तो कोई छटा बदमाश ही होगा, सो उसका व्यवहार भी कुछ हज़म नहीं होता। बाहर से थप्पड़ खाकर आने के बाद पिता का बालक के प्रति कोई सहानुभूति प्रगट करना भी समझ के परे है। पर कथा की अंतिम पंक्ित /अगले ही पल वह कम समझ वाला महानायक अपना दूसरा गाल भी सहला रहा था।/ बहुत ही प्रभावशाली बनी है। कथा का शीर्षक चयन की सराहनीय है। सादर
जनाब सुनील वर्मा साहिब , एक बच्चे के माध्यम से लोगों को आईना दिखाती सुन्दर लघु कथा के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
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