आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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बेनाम रिश्तों को सही नाम मिला , ,नए आयाम में आपने विषय को परिभाषित किया है हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीया शशि जी
aadrniya shashi ji bahut bhav purn aur samaynukul katha
badhai meri or se bhi
वाह सखी | सुंदर कथा लिखी है आपने | बधाई स्वीकारें |
कुछ रिश्ते गुमनाम ही होते । उन्हें तमाशबीन कआहना ही सही । बधाई अआपको
बहुत ही अच्छी रचना कही है आदरणीया शशि बंसल जी, प्रेम की आवश्यकता सभी को होती है| इस लघुकथा के सृजन हेतु सादर बधाई स्वीकार करें|
लघुकथा : गुरुर
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मैदान में कबाड़ से बनी कलाकृतियों की प्रदर्शनी लगी थी. भीड़ को देख कल्लुआ भी प्रदर्शनी देखने चला गया. एक कलाकृति की काफ़ी चर्चा हो रही थी तथा उसको बनाने वाले कलाकार भोला नाथ को सम्मानित किया जा रहा था.
“अरे यह तो अपना भोलुआ है. कुछ साल पहले तक तो मेरे साथ में ही कबाड़ चुना करता था.”
भोला नाथ को देखते ही एकाएक कल्लुआ पांच साल पीछे अपने अतीत में चला गया.
वह और भोलुआ दोनों प्रभु सेठ के लिए कूड़ा चुना करते थे, दोपहर को खाली समय में सेठ कबाड़ में से ही कुछ चुनकर उसे जोड़ तोड़ करवाता था. भोलुआ तो यह सब कर लेता था किन्तु कल्लुआ को सिनेमा देखना और अन्य कबाड़ चुनने वाले साथियों के साथ मटरगस्ती करना अच्छा लगता था. आखिर एक दिन दोस्तों के बहकावे में आकर प्रभु सेठ के लिए काम करना छोड़ दिया तथा दूसरी जगह काम करने लगा जहाँ कोई रोक टोक नहीं करता था.
“इस सम्मान का श्रेय मैं अपने गुरु प्रभु सेठ को देना चाहता हूँ ......”
माइक से आ रही तेज आवाज से कल्लुआ की तन्द्रा टूट गयी.
“हुँह!! आज बड़ा भोला नाथ बना बैठा है, साला कबाड़ी कही का .....”
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
मोहतरम जनाब गणेश जी बागी साहिब , ,प्रदत्त विषय को सार्थक करती सुन्दर लघु कथा के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
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