आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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मोहतरम जनाब गणेश बागी साहिब, डोर और पतंग के माध्यम से प्रदत्य विषय को परिभाषित करती अच्छी लघु कथा के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
सराहना युक्त प्रतिक्रिया हेतु बहुत बहुत आभार जनाब तस्दीक अहमद खान जी.
आ.बागी जी सार्थक प्रतिकात्मक लघुकथा हुई है,लेकिन साफ़गोई से बात करु तो मुझे यह ज्यादा विस्तृत लगी.आप अन्यथा ना लेंगे.हालांकि मुझे इससे प्रस्तुतिकरण का पाठ अवश्य मिला है.
आदरणीया नयना जी, मेरी कई लघुकथा चार-छे पक्तियों की है किन्तु इस लघुकथा में विस्तार देना कथा की आत्मा को बनाए रखने हेतु मुझे आवश्यक लगा. इस साफगोई से की गयी प्रतिक्रिया हेतु हृदय से आभार.
बहुत बहुत आभार आदरणीय मनन कुमार सिंह जी.
आदरणीय गणेश भैया, पतंग, धागा और हवा को ले एक एक सुन्दर कथा कही है. सादर.
सराहना हेतु बहुत बहुत आभार प्रिय शुभ्रांशु भाई.
कागज़ी पतंग का अपना कोई आस्तित्व नहीं होता है , जब तक डोर है तभी तक वो है . पतंग को वरगलाने वाली बात भी आपने बहुत खूब लिखी है आदरणीय गणेश जी 'बागी ' जी हमेशा की तरह अनुपम लघुकथा हुई है आपकी , बधाई प्रेषित है .
आदरणीया कांता जी, आप स्वयं एक अच्छी लघुकथाकारा हैं, आपसे सराहना युक्त प्रतिक्रिया पाना एक उपलब्धि है, बहुत बहुत आभार,
आदरणीय बागी सर, प्रदत्त विषय षड्यंत्र को प्रतीकों के माध्यम से शाब्दिक करती यह लघुकथा इतने बड़े फलक पर खुलती है, देखकर मुग्ध हूँ. बाकी पाठक पर छोड़ दिया गया है कि कथा को वह किस सन्दर्भ में खोलना चाहता है. मैं सामाजिक-ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देख रहा हूँ जहाँ प्रतीक सटीक बैठते है किन्तु यह भी सही है कि इस लघुकथा को किसी सन्दर्भ में बांधना उचित नहीं है और वैसे भी यह पाठक की वैचारिक पृष्ठभूमि पर निर्भर करता है. बहरहाल इस शानदार प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई और धन्यवाद
आदरणीय भाई मिथिलेश जी, प्रतीकों और बिम्बों में कही बात में यह स्वतंत्रता होती है कि पाठक उसे किस रूप में लेते हैं, आपकी समीक्षात्मक प्रतिक्रिया हेतु बहुत बहुत आभार.
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