आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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पीर का पर्वत कितना बड़ा हो गया होगा जो ज्वालामुखी में तब्दील हो गया और ऐसे वक़्त फूटा ...
वाह प्रदत्त्विश्य को सार्थक करती बढ़िया लघु कथा ..हार्दिक बधाई प्रिय अर्चना त्रिपाठी जी
हार्दिक बधाई आदरणीय अर्चना त्रिपाठी जी! बहुत सुंदर रचना! आक्रोश में रिश्ते भी धूमिल हो जाते हैं!
दिल दिमाग़ को झंकझोरती लघु कथा है आपकी आदरणीया अर्चना जी , हार्दिक बधाई प्रेषित है आपको इस रचना पर
आपकी इस कथा के क्षण -विशेष पर इतना ही कहूँगी कि काश ,वो अपना आक्रोश उसके जीवित रहते में दिखा पाती ! नारी की मानसिकता ही उसकी कमजोरी है .एक मृत शरीर पर आक्रोश ना व्यक्त करके उसके जीवित रहते ही अगर संग्राम छेड़ देती ,मान -मर्यादा के नाम पर कलेजे में अंगार ना सुलगाती तो संभावना थी कि उसका जीवन मखमल सा मुलायम भी होता . अन्याय को सहना भी अपराध को बढ़ावा देना होता है इसलिए अपने स्तर पर ,जितना बन सके मर्यादा का चोला उतार कर संतुष्ट जीवन की कामना करे .जहां तक बात है गृहस्थ जीवन में सहचर्य की तो अकेली स्त्री का निभाना ही धर्म नहीं है . एक पहिया साथ दे तो बहुत अच्छा नहीं तो अकेले ही घिस कर ,टूट कर उसको खींचने की बिलकुल भी जरुरत नहीं . कथा मन को विचलित कर गयी है ,इसलिए ये तय है कि लघुकथा का कथ्य बहुत स्तब्ध करने वाला है . लघुकथा की बुनावट को लेकर जरा और सतर्कता बरतियेगा आप . लघुकथा बढ़िया है . ढेरों बधाई आपको आदरणीया अर्चना जी .
बहुत बढ़िया ढंग और कुशलता से प्रदत्त विषय के साथ न्याय करती हुई लघुकथा कही है आ० अर्चना त्रिपाठी जीI दुःख की ऐसी घड़ी में भी यदि एक महिला के मुंह से ऐसे शब्द निकलते हैं तो कितना उबाल और कितना आक्रोश भरा होगा उसके अन्दर? वाह !! हार्दिक बधाई स्वीकार करेंI
मोहतरमा अर्चना साहिबा , प्रदत्त विषय को परिभाषित करती सुन्दर लघु कथा के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
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