आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
Tags:
Replies are closed for this discussion.
बहुत ही अच्छे विषय को लेकर कही गयी रचना के सृजन हेतु सादर बधाई स्वीकार करें आदरणीय डॉ. विजय शंकर जी सर|
इस प्रभावशाली रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय डॉ. विजय शंकर जी, सादर!
खाली हाँथ
.
अपनी बेग़म को चुपचाप एकटक महल को निहारते देख,बादशाह सलामत ने उनसे बात करने की गरज से पूछा-
"याद है बेग़म!ये खूबसूरत महल हमने आपको किस मौक़े पर दिया था?"
"याद है बादशाह सलामत!अच्छी तरह याद है ।ये उस वक़्त हमारे पड़ोसी राजा की रियासत में था ।जिसपर चढ़ाई करके आपने पूरी रियासत को ही जीत लिया।और फिर ये महल मेरी सालगिरह के मौक़े पर आपने मुझे तोहफे में दिया था ।"
"अरे वाह..,आपको तो आज भी सब कुछ याद है।"
"याद क्यों न होगा ,वो जंग कोई मामूली जंग तो नहीं थी।वो राजा भी बड़ा पराक्रमी और बलशाली राजा था ।बड़ी जबरदस्त जंग हुयी थी।लाखों सैनिक शहीद हुए थे।"
"हाँ वाक़ई बहुत बड़ी तादाद हमारे बहादुर सिपाही शहीद हुए थे। लेकिन मैंने भी ठान लिया था कि उसकी रियासत छीन कर ही दम लूँगा ।फिर आपको ये महल भी तो नज़राने में देना था।"उनकी आवाज में कुछ शोख़ी उतर आई।
"अच्छा, और वो महल याद है तुम्हे,जिसे हमने अपने पहले बेटे की पैदाइश की ख़ुशी में आपको नज़र किया था?"
"हाँ उसे कैसे भूल सकती हूँ ।कितने बेशकीमती जवाहरातों और सोने चाँदी जड़वा के बनवाया था उसे आपने।वो तो मेरे पसंदीदा महलों में से एक था।"
"पसंद क्यों ना आता ,आखिर उसे बनवाने के लिए हमने दोनों हांथो से खजाना लुटाया था ।"
"इसलिए तो बना भी बेजोड़ था ।वो दिन भी खूब थे!लेकिन अफ़सोस ,ज्यादा वक़्त कहीं ठहर के न रह पाये हम। सारी जिंदगी बस उथलपुथल मची रही।साजिशों और जंगों ने औलाद को भी ना बख़्शा।"कहते- कहते बेग़म की आँखें भर आयीं।
"आप रो रहीं हैं?"
"हाँ बादशाह सलामत मैं रो रही हूँ।क्योंकि अब ये नहीं समझ नहीं पा रही हूँ कि इतनी दौलत,इतना ख़ून,किसके लिए और क्यों बहा दिया हमने,जबकि बाक़ी रह जाने वाला कुछ न था।सिवा इन खण्डरों के और चंद यादों के। "
"क्या आप भी ऐसा सोचती हैं?"बादशाह का ये जुमला ,ऐसा लगा जैसे किसी गहरे कुँए से निकला कर आ रहा हो।
"तो क्या आप भी....?"वो इससे आगे कुछ और भी कहतीं,लेकिन बादशाह की ज़मीन में गड़ी नज़र देख,कुछ और कहने की गुंजाईश ही नहीं बची थी। बेग़म ने हमदर्दी से बादशाह का हाथ अपने में लिया और दोनों कुछ दूरी पर बनी अपनी कब्र में समां गए।
.
मौलिक एवं अप्रकाशित
आखिर सब कुछ तो यहीं रह जाना है तो किसके लिए इतना खून खराबा| काश लोगों को ये बात समझ में आती, बहुत बढ़िया रचना विषय पर, बधाई आपको
बहुत खूब प्रिय राहिला जी, लघु कथा बढ़िया सन्देश दे रही है की खून खराबा व जंग से कुछ हासिल नहीं होता नुक्सान ही नुक्सान होता है जिसके लिए आपको बहुत बहुत बधाई|किन्तु लघु कथा के पात्र अफ़सोस जरूर कर रहे हैं प्रायश्चित क्या किया वो यहाँ स्पष्ट नहीं है |
प्रिय राहिला जी, बहुत ही मर्मस्पर्शी ढंग से प्रदत्त विषय प्रायश्चित को परिभाषित किया है इस लघुकथा के माध्यम से। पढ़कर आनंद आया I बेगम और बादशाह की रूहों का यह वार्तालाप दिल को छू गया, बहुत बहुत बधाई इस उत्कृष्ट रचना पर ।
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |