आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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आ.चंद्रेश जी ओह क्या बात कह दी आपने.बधाई आपको इस मार्मिक रचना के लिए
बहुत-बहुत आभार आदरणीया नयना (आरती) कानिटकर जी, लघुकथा का यह प्रयास आपको ठीक लगा और अपनी टिप्पणी द्वारा आपने मेरा उत्साहवर्धन किया|
बहुत बढ़िया कथा | बेटे के चक्कर में आदमी क्या क्या खोता है |बधाई आपको इस मार्मिक कथा के लिए
सादर आभार आदरणीया सविता मिश्रा जी, लघुकथा के इस प्रयास पर आपकी उपस्थिति और टिप्पणी ने मेरा उत्साहवर्धन किया है|
बहुत-बहुत आभार आदरणीय राजेन्द्र गौड़ भाई जी, लघुकथा का यह प्रयास आपको ठीक लगा और अपनी स्नेहिल टिप्पणी से आपने मेरा उत्साह भी बढ़ाया|
प्रायश्चित
पिछले वर्षों से उसके लिखे व् कहे भारी भरकम शब्द जैसे समाजिक तब्दीली, इंकलाब और पता नहीं कितने और शब्दों से मुझे लेस कर दिया था।
और अपनी सोच को निखरा हुआ महसूस करन लगा था।
धीरे धीरे मुझे समाज में घटने वाली घटनाओं के बारे भी समझ आने लगी और उसकी कही बातों पर भी विश्वास पक्का होने लगा ।
मगर जब से हमने उसके साथ काम करना शुरू किया।
तब से तो वही कर रहे थे, जो कोई तब्दीली हुई, उससे उसका रास्ता आसान हुआ,अब वे बड़ा आदमी बन चूका था ।
कभी वो मुझे साथ लेकऱ जाते , मगर अब हम में से कोई भी उसके साथ नहीं जाता, उसे ले कर जाने वाले कई और बड़े लोग आ जाते हैं।
मगर उसके इस ऊसर रहें महल में कितने ही मेरे जैसे नींव की ईट बन चुके हैं , मगर इट्टों को कौन जानता है ?
"मगर महल भी कुछ दिन" फिर मैने अपने आप काटते हुए कहा।
आज शहर में जिस फंक्सन के लिए उस को संदेशा आया और उसने कुबूल कर लिया।
ये देख हम सब बहुत हैरान हुए।
हमें लगा कि वो भारी भरकम शब्द कहाँ गुम हो गये हैं मुझे लगा अब, मैं कुछ ज्यादा ही हैरानगी महसूस कर रहा हूँ।
वहाँ बड़े बड लोग इतने बड़े हाल में बैठे थे , मैं और बाकी साथी पानी पिलाने व् खाना बनाने में मदद कर रहे थे,
ये देख कर मेरे मन में क्या ख्याल आया,.मैं पानी पिलाने की सेवा निभानी छोड़ बाहर खुले आसमान की तरफ देख अपने कदम बाहर की तरफ बढ़ाने लगा ।
"मौलिक व अप्रकाशित"
//वहाँ बड़े बड लोग इतने बड़े हाल में बैठे थे , मैं और बाकी साथी पानी पिलाने व् खाना बनाने में मदद कर रहे थे//,
इन्कलाब और बदलाव की बात करने वाले व्यक्ति अपने स्वार्थ की पूर्ती के लिए जिन लोगों का सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करते हैं , ऊंची जगह पहुँच जाने के बाद उस सीढ़ी को ढकेल देते हैं , कथानाक सुन्दर है आपका हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय ... प्रदत्त विषय से जोड़ने के लिए अंत थोडा और प्रभावशाली बनाया जा सकता था
मैडम प्रितभा जी , मैं इस लिए कोशिश करूंगा
उस्मानी जी, मैं इस को और सुधरने के कोशिश करूंगा ,क्यूंकि जरूरी काम होने के कारण में इस बार हिस्सा भी नहीं बन सका
आद० मोहन बेगोवाल जी, आपकी रचना का भी हमें इन्तजार रहता है और आप हैं की इतनी देर से पोस्ट करते हैं | मैं भी प्रतिभा पाण्डेय जी की बात का समर्थन करती हूँ | आपको बहुत बहुत बधाई |
मगर उसके इस ऊसर रहें महल में कितने ही मेरे जैसे नींव की ईट बन चुके हैं , मगर इट्टों को कौन जानता है ? --सच कहा महल बन जाने के बाद ईंटों को कोई नहीं याद रखता जबकी उन्हीं के दम से महल खड़ा होता है |
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