(1).सुश्री नयना(आरती)कानिटकर जी
जड़ें
" अरे दादू! आप यहाँ ? कभी भी बारिश और तेज हो सकती हैं, घर चलो जल्दी.." रघु ने उनका हाथ खींचते हुए कहा। "
वे अपने सर पर हाथ धरे नदी किनारे उकडू बैठे थे। इंद्र देवता की अनुकम्पा से नदी पूरे उफान पर थी। उनसे सावित्री नदी की अठखेलियां देखी नही जा रही थी। नदी धीरे-धीरे रौद्र रूप ले रही थी।
नही सेतु! तुम्हारा अस्तित्व मैं यूँ ही नहीं मिटने दूँगा। तुम तो मेरे गाँव के सर्वेसर्वा हो , जीवन हो हमारा। तुम्हें अभी इस तूफ़ान को झेलना होगा। "--उम्र के चलते वे अपने आप मे बुदबुदा रहे थे।
" बेटा! मुझे चिंता है इस पुल की.. हमे जोड़ने वाली यही तो एकमात्र..."
"लेकिन दादू..."
" कैसे बताऊँ रघु, अरे बेटे ! ये विरासत है हमारी। इसी ने तो हमारे गाँवों को आपस मे जोड़े रखा है।
लकडी से सिमेंट-कंक्रीट मे ढलता यह पूल अब बूढा हो गया है। टनो का भार ढोया है इसने। अब मृत्युशैया के निकट हैं। जीर्णोद्धार चाहता है। गाँव के सरपंच ने काफ़ी कोशिश की थी इसे मजबूत करने की। हर बार गुहार लगाते सरकार से किंतु पैसा यहाँ तक आते-आते इतना ही बचता की उस पर मामूली रखरखाव के पैबंद ही लग पाते। बस यही विडंबना है। "
" चलिए आप पहले घर चलिए पानी तेज हो गया है। बाँध के द्वार खुल गये तो ..."
उफ़नती सावित्री नदी ने तांडव रूप लेते हुए अपने तटबंध तोड दिए थे, और वह भी भरभराकर गिर पडा। पानी के तेज बहाव मे कब गायब हुआ पता ही नही चला। ऐसा लगा मानो माँ ने पुन: अपनी ओट मे समेट लिया हो।
उनकी जीवन रेखा अंतत: उसे लील गयी।
"जल्दी उठिए दादू --
समय ने उसकी जडों को चाहे कमजोर कर उसे खत्म कर दिया हो। अपनी जडों को कमजोर नहीं होने दूँगा।
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(2). श्री समर कबीर जी
(चंडी)
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सीमा पर बहादुरी से दुश्मन का मुकाबला करते हुए और उनकी घुसपैठ को नाकाम करते हुए कैप्टेन गुरसेवक वीरगति को प्राप्त हो गए थेI उनकी वीरता और अदम्य साहस की वजह से उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र देने की घोषणा भी कर दी गयी थी। जैसे ही फौजी सलामी के बाद उनके पार्थिव शरीर को अग्नि के सुपुर्द किया गया, उनकी विधवा पत्नी के विलाप से पूरा इलाका शोक में डूब गयाI लेकिन उनकी इकलौती संतान; उनकी बेटी प्रीत जो एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में उच्च पद पर आसीन थी, अपनी विलाप करती हुई माँ का ढाढ़स बंधा रही थीI
“प्रीती बेटा! ये बहुत दुःख की घड़ी है, लेकिन पूरी भारतीय सेना आप लोगों के साथ हैI” फ़ौज के एक वरिष्ठ अधिकारी ने उसके सर पर हाथ रखते हुए कहाI
“थैंक्यू सर!” रुंधे गले से प्रीती ने आभार व्यक्त कियाI
“हम अगर तुम्हारे लिए कुछ भी कर सकते हों, तो बेझिझक कहनाI”
“सर! एक उपकार कर दें मुझ परI” प्रीती ने अपने आँसू पोंछते हुए कहाI
“हाँ हाँ! बतायो मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूँI”
“मैं फ़ौज ज्वाइन करना चाहती हूँ, प्लीज़ मेरी हेल्प करेंI”
“लेकिन बेटा, आप तो मल्टीनेशनल कम्पनी में बहुत अच्छी जॉब कर रही हैंI” अधिकारी ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए पूछाI
“आपको पता है न कि मेरे परदादा भी फ़ौज में थे और और मेरे दादा भी?”
“हाँ पता है...”
“और मेरे पिता जी भीI”
“हाँ बेटा! मगर फ़ौज ही क्यों?”
पिता की धूधूकर जलती हुई चिता को देखते हुए प्रीती ने दृढ स्वर में उत्तर दिया:
“मेरा कोई भाई नहीं है, इसलिए मैं अपने पिता का बेटा बनकर अपनी खानदानी विरासत की रक्षा करना चाहती हूँI”
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(3). श्री डॉ विजय शंकर जी
विरासत , एक पहलू
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.-साहब आकर बैठे ही थे कि चपरासी ने मिलने को आये लोगों का रजिस्टर सामने रख दिया।
" ये क्या ले आये , रखो इसे आधे घंटे बाद लाना , अखबार लाओ, एक चाय लाओ , अदरक वाली " , साहब ने बताया।
फोन की घंटी बजी , साहब ने फोन उठाया , बोले , " यस सर , सर वही वही , घंटे भर से लगा हूँ , फाइनल टच दे रहा हूँ , सर सारा डाटा खुद ढूंढ ढूंढ कर निकाला है , कोई काम करना ही नहीं चाहता , सर , आप तो जानते ही हैं। कितना कठिन होता है काम कराना। ........ सर ,सर , बस आज ही फैक्स करवाता हूँ। ........ यस सर, सर , बस सर , मेहनत कर लेता हूँ , आपसे सीखा है , बस ऐसे ही आपके पदचिन्हों पर चलता रहूं , सर....... "
बड़े बाबू आये , पंद्रह पन्ने की रिपोर्ट लिए , सामने रखी। फोन की घंटी बजी , बड़े बाबू ने उठाया , बोले , " साहब , घर से है , मेम साब हैं " ,
साहब ने फोन लिया , " हाँ , बोलो , ........ , दफ्तर में हूँ , मौज नहीं कर रहा हूँ , तुम्हारी तरह , काम करता हूँ , हाँ , हाँ , सब याद है।, नहीं नहीं , नाराज नहीं हूँ , नौकरी तुम्हारे लिए ही करता हूँ , अच्छा अब फोन रखो , शाम को करना ".
साहब ने रिपोर्ट को अपनी ओर खींचा , " लाओ , साइन कर दूं।"
बड़े बाबू , " साहब , तीन दिन में बड़ी मेनहत से तैयार की है , देख लेते ".
साहब , " अरे ठीक है , ठीक ही बनाया होगा , वहां ( मुख्यालय में ) कौन देख रहा है।...... रिपोर्ट चाहिए , रिपोर्ट , उसके बाद भी करेंगे अपने मन की। तुम क्या समझते हो ,वो सारी रिपोर्ट रख कर , पढ़ कर निर्णय लेंगे , निर्णय हो गया होगा , जिसको जो बांटना है , बंट चुका होगा , ये तो खानापूरी है " .
बड़े बाबू ने रिपोर्ट उठाई , मुड़े , साहब फिर बोले , " अभी , अभी फैक्स करो इसे। "
मिलने वाले आने लगे। पहले सज्जन , " सर आपने एक हफ्ते बाद आने को कहा था ".
" और आप एक हफ्ते में ही चले आये " साहब तुरंत बोल पड़े।
" जी " बड़ी मुश्किल से वह कह पाये फिर कुछ साहस जुटा कर बोले , " मैं बड़ी दूर से आता हूं सर " .
" अभी तो हम लोग एनुअल रिपोर्ट भेजने में लगे हैं , आप पंद्रह दिन बाद आइयेगा " .
थोड़ी देर बाद फिर फोन बजा , साहब ने उठाया , " अरे वाह , क्या हाल हैं ? " किसी दोस्त का था। हँसते हुए बोले , " नहीं नहीं , बिलकुल खाली हूँ , आ जा, हां हां , तुम्हारे उनके यहां भी चले चलेंगे , श्योर , फ्री हूँ बिलकुल " .
बड़े बाबू को बुलवाया , " रिपोर्ट फैक्स हो गई ? " उनके आते ही पूछा।
" हो जाएगी , अभी तो आपका टी ए बिल बना रहे थे।" बड़े बाबू ने भी उसी लहजे में जवाब दिया।
" ओके , गुड , शाम तक भेज देना , और हाँ देखना मैं बस थोड़ी देर में निकलने वाला हूँ , कुछ पेपर्स हो तो साइन करने भेज दो " .
साहब ने टेक लगाईं, पैर सीधे किये और दोस्त का इन्तजार करने लगे।
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(4).सुश्री राजेश कुमारी जी
‘संवासिनी’
“माता पिता की अचानक प्लेन क्रेश में मौत हो जाने पर १८ वर्षीय सोनम मानो टूट ही गई| कई दिनों तक न खाना न पीना कोई धीरज बंधाता तो अपलक उसको देखती रहती आँखों में आँसू का समंदर मानो सहरा में तब्दील हो गया हो| माँ बाप की इकलौती संतान दुनिया में बिलकुल अकेली रह गई थी| विरासत में करोड़ों की संपत्ति की वारिस से कोई सहानुभूति भी दिखाता तो उसे सिर्फ ये महसूस होता कि वो सिर्फ उनकी संपत्ति की खातिर प्रेम भाव दिखा रहे हैं | जैसे वो बचपन से देखती आ रही थी कि उनके अपने सिर्फ पैसों की खातिर ही उनसे सम्बन्ध रखते थे धीरे धीरे उसके माता-पिता ने उनसे दूरी बना ली थी उस हादसे के वक़्त भी वो सिर्फ औपचारिकता भर निभाने आये थे |
उनकी मौजूदगी भी सोनम को बर्दाश्त नहीं होती थी |उसने स्कूल भी जाना बंद कर दिया था|घर के नौकरों पर भी उसका भरोसा नहीं रहा उन सबको उसने भगा दिया| धीरे धीरे वो विक्षिप्तता की हालत में पँहुच गई और एक दिन घर छोड़ कर किसी ट्रेन में बैठ कर किसी दूसरे शहर पंहुच गई वहाँ स्थानीय लोगों की सूचना पर पुलिस ने उसको नारी निकेतन में भर्ती कर दिया| अब वो सबके लिए अनामिका संवासिनी थी| उसके साथ सभी संवासिनियों जैसा व्यवहार होता रहा|
हर पंद्रह बीस दिन में डॉक्टर लिली उनकी हेल्थ चेकप के लिए आती थी सोनम की हालत में बहुत सुधार आ चुका था फिर भी उसने अपना भेद नहीं खोला| एक दिन डॉक्टर हाथ में न्यूजपेपर लेकर आई जिसमे सोनम के विषय में छपा था अब सभी को पता चल गया की सोनम करोडपति है| उसके बाद से कोई उसे गोद लेने कोई विवाह का प्रस्ताव लेकर आने लगा कोई उसका गार्जियन बनने की चाह लेकर आया|सोनम ने घर जाने को भी मना कर दिया| वहाँ रह रही संवासिनियों से उसकी दोस्ती हो गई उनकी हालत देख कर उसको बहुत दुःख होता सब के सुख दुःख वो बाँटने लगी| डॉक्टर लिली से शुरू से ही उसको आत्मीय लगाव हो गया था धीरे धीरे उसने डॉक्टर को अपनी कहानी भी बताई|
एक दिन डॉक्टर लिली के साथ उसका बेटा जो अमेरिका में नया नया डॉक्टर बना था अधिकारियों की इजाजत से वहाँ आया लिली ने सोनम को बुला कर अपने बेटे से मिलवाया| न जाने उन सब में क्या बात हुई कि सोनम कई दिन तक उलझी उलझी सी दिखाई दी और आज अचानक आप लोगों को बुलवा भेजा| अब इस बच्ची की कहानी तो मैंने बता दी अब ये क्या कहना चाहती है वो सब आपके सामने आ ही रहा है” ये सब मीडिया वालों से कह कर नारी निकेतन की अधिकारी एक तरफ जाकर बैठ गयी |
“आप लोग वही हैं न जिन्होंने पिछले दिनों मेरी विरासत के विषय में लिखा था और यहाँ भी मुझे चैन से रहने नहीं दिया अब आप कल के पेपर में ये लिखेंगे कि मैंने अपनी सारी संपत्ति इस नारी निकेतन के नाम कर दी है मुझे एक पैसा भी नहीं चाहिए दो तीन दिन में सब कार्यवाही पूरी हो जायेगी” सोनम ने कहा|
“अब बोलिए लिली आंटी क्या अब भी मेरे बारे में आपके बेटे की वही राय होगी? पास में बैठी हुई डॉक्टर लिली से सोनम ने पूछा |
लिली के बोलने से पहले ही उसका बेटा बोला “एक विरासत तो तुमने इस नारी निकेतन के नाम कर दी जिससे मेरी नजरों में तुम्हारी इज्जत और ज्यादा बढ़ गई दूसरी प्लीज मेरे नाम कर दो अपनी सीरत अपना मुहब्बत भरा ये दिल”|
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(5).सुश्री सीमा सिंह जी
विरासत
"मालकिन! आज से आपका काम ये करेगीI" कमला अपने साथ खड़ी युवती की और इशारा करके बोलीI
सुबह से कामवाली की प्रतीक्षा में बैठी मालकिन ने मन ही मन चैन की साँस ली, परंतु ऊपर से नाराज़गी दिखाते हुए सख्त स्वर में कहा:
"कमला ये क्या तमाशा है? मैंने तुझे काम पर रखा था, पर तूने चार महीने भी काम नही किया होगा और अपनी जगह अपनी बेटी को ले कर आ गई थी।"
"जी मालकिन, आपका बहुत उपकार कि आपने मेरी बच्ची को हर काम सिखायाI पूरे छः साल काम किया उसने इस घर मेंI" कमला ने कृतज्ञ भाव से कहा।
"वो तो ठीक है मगर अब तू ये नया रंगरूट लेकर आ गई, मैंने क्या ट्रेनिंग सेंटर खोल रखा है?” साथ खड़ी युवती को घूरते हुए मालकिन ने कहाI
"अरे नही नहीं, बिटिया का तो ब्याह तय कर दिया है, अब तो यही...."
"ब्याह तय हो गया है तो क्या अब मैं इसके साथ माथा फोडूं?”
"ये भी जल्दी सीख जाएगी आप बताओगी तो सब करने लगेगी।"
“पर तू अपनी बेटी का काम छुड़वा कर इसको क्यों लगा रही है ये तो बता?"
युवती के कंधे पर हाथ रखते हुए कमला ने उत्तर दिया:
"ये बहू है मेरी! बिटिया तो अपने घर चली जाएगी, तो सब जिम्मेवारियाँ अब यही तो संभालेगी न?“
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(6). सुश्री प्रतिभा पांडे जी
‘रोड़े’
वो पाँच छः बड़े ,खुरदुरे और नुकीले पत्थर थे और उनके बीच में कहीं से लुढ़क कर आ गिरा ये एक छोटा चिकना और गोल पत्थर था I बाकियों के मुकाबले कहीं ज़्यादा जवाँ पर बेहद डरा हुआI
“ क्या हुआ रे ?” एक खुरदुरे पत्थर ने प्रश्न दागा I
“क्या हुआ ii तुम लोगों को डर नहीं लग रहा ?? सामने सड़क पर इतने सारे पत्थर गिरे पड़े हैं I कुछ तो खून से सने भी हैं I इंसान एक दूसरे पर मार रहे हैं हमें “I छोटे गोल पत्थर ने हाँफते हुए कहा I
“हम क्या कर सकते हैं बोल ?इंसान हमें कैसे किस पर फेंकता है या क्या करता है हमारे साथ, उस पर हमारा कोई बस है क्या ? हम तो पत्थर हैं ,रोड़े हैं “I एक ‘नुकीला’ पत्थर बोला I
“पर वो तो इंसान हैं “ गोल पत्थर की आवाज़ काँप रही थी I
“हाँ हैं तो ,पर उनके दिमाग़ पर ‘हम’ पड़े हुए हैं ना i” काले खुरदुरे पत्थर की बात से सारे पत्थर हो हो. कर हँसने लगेI
“आप समझ नहीं रहे हैं I बदनामी तो हमारी है”I गोल पत्थर’ को उन पत्थरों का हँसना अच्छा नहीं लग रहा थाI
“देख” i खुरदुरा पत्थर धीरे धीरे बोलने लगा “ जब ये इंसान ही अपनी विरासत को ऐसे ख़त्म करने पर तुले हैं तो कोई क्या कर सकता है” I
‘’हाँ ,पर तू मत डर I तू तो कितना छोटा और चिकना है I तुझे कोई नहीं उठाएगा फेंका फेंकी करने के लिए” I ‘नुकीले’ ने ‘गोल ’ को हिम्मत दी I
“ये इंसानी बच्चे कितने प्यारे हैं , सच्चे और भोले भी I कभी इतना ही प्यारा था यहाँ सब कुछ”I पास में मिट्टी के घरोंदे बनाते दो बच्चों को देख ‘खुरदुरा’ दार्शनिक होने लगा था I
“ मेरा घर तैयार “ मिट्टी झटकता छोटा बच्चा खडा हो गया “ अपने घर के बाहर ये पत्थर लगाऊँगा I कितना सुन्दर है I" बच्चे ने ‘गोल पत्थर को हाथ में उठा लिया I
सारे बड़े पत्थर ,उस छोटे चिकने गोल पत्थर के लिए खुश हो रहे थे I गोल पत्थर भी बच्चे की कोमल हथेलियाँ महसूस कर रहा था I अचानक दोनों बच्चों में किसी बात को लेकर झगडा हो गया और दोनों लड़ते झगड़ते अपने बनाए घरोंदों के ऊपर जा गिरे I
रोते हुए एक बच्चे ने नीचे गिरे उस गोल पत्थर को उठा लिया और खींच कर दूसरे बच्चे के माथे पर दे मारा I दूसरे ही पल खून में सना वो गोल पत्थर जमीन पर था I
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(7). श्री शेख शहज़ाद उस्मानी जी
'अपनेपन की दौलत
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बहुत ज़िद करने पर सहपाठी-मित्र के जन्मदिवस पर सुभाष बाबू ने बेटे को पड़ोसी मधुर के घर भेज तो दिया था, लेकिन वे चाहते थे कि दफ़्तर से पत्नी के लौटने से पहले वह वापस बंगले पर आ जाये। अंततः वे बेटे को लेने चले ही गये। मधुर के घर पहुंचने पर उन्होंने देखा कि बेटा बड़े ही मज़े से टाटपट्टी पर पंगत में बैठकर बच्चों के साथ भोजन कर रहा था। मधुर की पत्नी स्वयं खाना परोस रही थी और मित्रगण सहायता कर रहे थे। आने-जाने वालों का सिलसिला जारी था। मधुर किसी से 'अस्सलामालैकुम' कहता, तो किसी से 'जय सिया-राम' और लोग उसी तरह जवाब देते और उस परिवार से घुल-मिल जाते! लेकिन लोग सुभाष बाबू को 'नमस्ते साहब' या 'नमस्कार साहब' कहकर किनारा कर जाते। सुभाष बाबू वातावरण को देखकर चौंक रहे थे। वे मधुर को बहुत निर्धन व सामान्य व्यक्ति समझते थे, लेकिन यहाँ तो सुसंस्कृत माहौल में बढ़िया भोज चल रहा था। आने-जाने वालों और उस पुराने से घर के बाहर खड़े हुए मोटर-वाहनों से उसकी लोकप्रियता और व्यवहार का आकलन किया जा सकता था। बेटा अभी भी अपने मित्र की माँ का परोसा भोजन बड़े चाव से खा रहा था। भोजन सम्पन्न होते ही सुभाष बाबू बेटे को ले जाने लगे, लेकिन बेटा विरोध व्यक्त करते हुए अपने मित्र के घर थोड़ा और समय बिताना चाह रहा था।
"छोड़ जाओ सुभाष बाबू, उसे यहाँ अच्छा लग रहा है!"- मधुर ने मुस्कराते हुए कहा।
"वाकई उसे स्नेह और अपनेपन का माहौल अच्छा लग रहा है यहाँ! तुम इतना सुखी जीवन कैसे जी लेते हो मधुर!"- सुभाष बाबू ने भावुक होकर पूछा!
"मेरे पास वह दौलत नहीं जो आपके पास है; मेरे पास व्यवहार, दोस्ती और प्रेम की दौलत है बस! मेरे पिताजी यही सब मुझे दे गए और सिखा गये थे!"
मधुर के ये शब्द सुनकर सुभाष बाबू के कान में बेटे ने धीमे स्वर में कहा- "दादा जी का घर छोड़ते समय दादा जी ने भी तो ऐसा ही कुछ आप से कहा था न!"
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(8). सुश्री अर्चना त्रिपाठी जी
अपना घर
" अरे !वाह !क्या बात हैं, आज सुबह-सुबह? लेकिन चेहरे पर बारह क्यों बजे हैं ? "नीता ने सुधा से पूछा
गृहक्लेश से मुरझाई सुधा नीता के समक्ष रो पड़ी " क्या करूँ ?तुम ही बताओ ? उन्हें लगता हैं जो विरासत नील की हैं उसपर मैं नागिन की तरह कुंडली मारे बैठी हूँ।"
" लेकिन क्या उन्हें नहीं पता की , तलाकशुदा का दंश झेलते हुए भी तुमने नील की पढाई पर कोई आंच नहीं आने दी।यहाँ तक की अपनी बेटी की भी परवाह नहीं की "
" वो तो बड़ी होने के नाते मेरा फर्ज था लेकिन मेरे प्रति किसी की कोई जिम्मेदारी नहीं।"
" शायद इसीलिए लोग कहते हैं स्त्री का पुरुष के बिना कोई वजूद ही नहीं हैं।"
" नहीं नीता, स्त्री को मायका ,ससुराल विरासत में मिलते हैं लेकिन मैं इसे नकार कर अपना घर बनाऊँगी।"
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(9). श्री सुधीर द्विवेदी जी
इंतज़ाम
ज़रूरी कागज़ात ढूँढ़ने के लिए ज्यूँ ही उसने अलमारी के नीचे झाँका तो बाबू जी का पुराना बक्सा दिखते ही उसका दिल बल्लियों उछल पड़ा। आनन-फानन वह बक्सा तोड़ने में जुट गया। उसे यह भी ध्यान नहीं रहा कि इतनी तेज़ आवाज से सब जाग जाएंगे। हुआ भी वही। पत्नी और बच्चे तेज़ आवाज़ सुन कमरे में आ पहुंचे।
ढक्कन खोल कर ज्यूँ ही उसने बक्सा पलटा उसके पूरे शरीर को जैसे लकवा मार गया। धम्म से वह फर्श पर ढह गया। फ़टी-फ़टी आँखों से वह बाबू जी के बक्से को घूरे जा रहा था। लम्बी बीमारी से जूझते बाबू जी के सिधार जाने के कई महीनों बाद आज़ पहली बार बक्सा उसके हाथ लगा था। एक-के-बाद एक उसे सब कुछ याद आने लगा। अच्छी-ख़ासी सरकारी नौकरी थी बाबू जी की। उनके सहकर्मियों की शान-शौकत देख कर उसका मन कभी नहीं मानता था कि इतने मलाईदार विभाग में रह कर भी बाबू जी माल न चीरते हों। हालांकि उसने बाबू जी के ईमानदारी के चर्चे स्वयं सुने थे, जब एक-दो बार किसी काम से वह उनके दफ़्तर गया था। बचपन से लेकर अपनी अंतिम साँस तक बाबू जी इस विषय में रत्ती भर भी न पसीजे थे। पैसे माँगने पर गाहे-बगाहे मिलने वाली फ़टकार से उसे खीझ तो होती थी। पर हर बार वह खुद को यह सोच कर समझा लेता कि अगर पैसे जोड़ भी रहे हैं तो उसी के लिए ही न! उसके सिवाय और कोई और संतान तो है नहीं जो..! इसीलिए उसने कोई नौकरी, धंधा करने की जहमत तक न उठाई।
कंधे पर परिचित स्पर्श पाकर उसकी चेतना लौटी।
"मैं कहती थी न कि बुढऊ सब खा-उड़ा रहे हैं। फूटी कौड़ी तक न मिलेगी, पर आप तो कहते थे कि बाबू जी ...! यह इन्तजाम करके गये हैं तुम्हारे बाबू जी! अपनी औलाद के लिए।" जंग लगे बक्से को देख-देख कर पत्नी भी स्वर्गीय बाबू जी को रोते हुए कोसे जा रही थी। अब उससे सहन न हुआ।
"बाबू जी आप जानते थे कि आपके बाद हम सब रोटी तक को मोहताज़ हो जाएँगे। इसीलिए असहनीय दर्द के बावजूद आपने दवा नही खाई।" हुसकते हुए उसने कपड़ों की परतों से झाँकती दवाइयों के पचासों अनखुले पैकेट को बटोरा और सिसकने लगा। पत्नी हड़बड़ा कर उठ खड़ी हुई।
वह, मृतक-आश्रित कोटे से बाबू जी की जगह नौकरी पा जाने पर बिलख-बिलख कर खुद को कोसते हुए रोये जा रहा था।
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(10).श्री रतन राठौड़ जी
विरासत की रोटियाँ
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" अजी कितनी चपाती बनाऊँ आपके लिए " पत्नी ने रसोईघर से आवाज़ लगाई।
कोई ज़बाब न पाकर वह कमरे में गई और टीवी देखने मग्न पति के हाथ से रिमोट लेकर टीवी बन्द कर दिया।
" अरे, यह क्या किया? "
" कितनी देर से पूछ रही हूँ कि कितनी चपाती बनाऊँ आप के लिये "
" उफ़! ज़रा सी बात है और तुमने टीवी बन्द कर दिया, और पूछ तो ऐसे रही हो जैसे तुम्हें पता ही न हो मेरी चपाती की संख्या के बारे में "
" क्यों न पूछूँ? कभी काम खाते हो कभी ज्यादा "
" अरे तुम औरतें भी कमाल करती हो, हर औरत को पता होना चाहिए कि उसके पति की खुराक क्या है। तीस साल हो गए शादी को अभी तक तुम मेरी खुराक तक नहीं जान पाई? आखिर एक औरत को ऐसे गुण तो बिरासत में ही मिल जाते है "
" जिस दिन सब्जी अच्छी क्या बनी खुराक तो पीछे छूट जाती है, और आप यह विरासत वाली बात मत कहो, एक औरत पर ही लागू नही होती यह बातें "
" हे प्रभु! बचाओ इस औरत से, आज तो यह विरासत की चपातियों से ही पेट भर देगी " पत्नी रमा की बात सुनकर पति राम ने अपना सिर पकड़ लिया।
" क्यों, क्या हुआ? विरासत महँगी पड़ गई?" रमा चहकीं।
" हाँ देवी, हाँ। पड़ गई विरासत महँगी! संस्कार के साथ मिली विरासत! सदा सच बोलो! हमेशा सच का साथ दो! समस्त भारतीय मेरे भाई बहिन है! चोरी नहीं करना चाहिये! बड़ो की इज़्ज़त करो! गुरु का सम्मान करो!...और क्या-क्या गिनाऊँ?" हताशा से भर उठे राम।
" अरे इसमें इतना परेशान होने की बात क्या है " पत्नि बोली।
" क्या हो रहा है आज? तार-तार हो रही है महिलाओ और बच्चियों की इज़्ज़त, हर तरफ झूठ बिक रहा है, सच सलाखों में बंद है। ईमानदारी तेल बेच रही है। प्रवचन बेचने बाले आज कहाँ है?"
" अजी, विरासत को तो मारो गोली, कितनी बनाऊँ तुम्हारी रोटी।"
" सात बनालो, साथ साथ खाएंगे...आखिर सात फेरे जो लिये है, विवाह बंधन भी तो विरासत का ही अंग है, इसको तो सच्चाई से निभा लें " राम ने टीवी चालू करते हुए कहा और रमा मुस्कुराते हुए रसोईघर की ओर चली गई।
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(11). सुश्री जानकी वाही जी
चिराग़
"क्या मैं कोई ऐसी भाषा बोल रहा हूँ जो आप दोनों परिवारों को समझ नहीं आ रही है ?"
डॉक्टर खुशाल की आवाज़ में गहरा आक्रोश था।
" डॉक्टर साहब ! हम हाँ नहीं कर पायेंगे।अभी हमारे बेटे की उम्र ही क्या है।ये बच्चा हमारे लिए एक अनचाहा बोझ होगा। बहु के मायके वाले चाहें तो उनसे बात कर लीजिये।"
डॉक्टर खुशाल की प्रश्नवाचक निगाहें चन्द्रिका के माँ, पिता और भाई की ओर घूम गई।
" डॉक्टर साहब! हमारे दो बच्चे और भी हैं।उनकी परवरिश और शिक्षा हमारे लिए आसान नहीं है। हमने तो कन्यादान करके अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली।अब तो बेटी ससुराल की ही हुई।हम क्या बोलेँ।"
" देखिये ! चन्द्रिका मर रही है। ब्लड कैंसर कब उसे लील जाय कह नहीं सकते।पर आप लोग चाहो तो एक पुण्य का काम कर सकते हैं।और आपका तो वह अंश है।आप कैसे उसे अपने से दूर कर पा रहे हैं?"
खामोश खड़े चन्द्रिका के पति की तरफ देखकर डॉक्टर खुशाल ने एक और कोशिश की।
"मैं अम्मा बाबूजी के सामने क्या बोलूँ।" पति ने आँखे फेर ली।
"देखिये ! हालात ऐसे हैं कि तुरन्त बच्चे को ऑपरेशन करके बाहर निकालना पड़ेगा।इसके लिए आप लोगों की इज़ाज़त चाहिए। कहीं देर न हो जाय और माँ के साथ बच्चा बेमौत न मर जाय।"
मरघट सी खमोशी देख डॉक्टर खुशाल को लगा वे बचपन में सुनी कहानी के संगमरमर के बुतों से बात कर रहे हैं जो दर्द, प्रेम, और इंसानियत को न देख पा रहे हैं न सुन पा रहे हैं और न महसूस ही कर पा रहे हैं।
उधर वार्ड में अपनी और अपने अजन्मे बच्चे की आसन्न मृत्यु से अनजान आठ महीने की गर्भवती चन्द्रिका, इन सब बातों से बेख़बर आज खुशी से फूली न समा रही है।क्योंकि माँ, बाबा, भाई ,अम्मा, बाबू जी, और पति सभी उसे घर लिवाने जो आये हैं।
आख़िरकार वह दो खानदानों को उनकी विरासत सम्भालने वाला चिराग़ जो देने वाली है।
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(12). सुश्री कांता रॉय जी
संघर्ष की विरासत
बड़ा जीवट था। अपने खेत से बहुत प्यार करता था। दिन भर मेड़ों पर ही पड़ा रहता। आज जहाँ धरती पेट भर अनाज नहीं देती, वहाँ ये पागल सोना उगाने की बात करता था। इसी वजह से एक बार लड़के ने पिता पर चिल्लाते हुए उनको सनकी कह दिया था। बेटे के उस व्यवहार से छाती पर बज्र गिरने जैसा महसूस किया था उन्होंने। वह पिता के साथ खेत में काम करने को तैयार नहीं हुआ इसलिये घर छोड़ शहर चला गया। वैसे तो अब गाँव में अधिकतर घरों में बुजूर्ग ही बचे रह गये थे क्योंकि बच्चों को पढ़ लिख कर बाबू बनना था। कई घरों के तालों में जंग - जाले तक लगे हुए है। राख ,गोबर से खेत को दिन भर पटाता , इस बुढ़ापे में अकेले सुबह से शाम तक खटता ,मरता रहता। उसके बेटे के बारे में बात करो तो आक्रोश से भर उठता था। उसके खेत में गेहूँ की जगह इस बार अलग ही प्रकार की फसल बोई गई थी।
"बूढ़ा अनाप- शनाप बोयेगा तो खायेगा क्या?" उस दिन भी कुछ मजदूरों को कटाक्ष करते हुए सुना था उसने।
पिछले कई हफ्तों से कुछ लोग उसके खेत में उगे अजीबो गरीब झाड़ियों को देखने आ रहे थे। गाँव के लोग छिटक कर दूर से ही कौतुहलवश कान लगाये रहते थे।
"यहाँ की मिट्टी में सोना उगा कर चमत्कार कर दिया आपने रामधारी जी ! " खेत की पगडंडी पर खड़े उस अफसर-सा दिखाई देने वाले ने लगभग चिल्ला कर ही कहा था ।
" एक नई कोशिश की है आयुर्वेद की सम्पदा को बचाने की।"
" जी, हाँ, तभी तो इन दुर्लभ जड़ी - बुटियों के खरीदी के लिये विदेशी सप्लायर आये है। कृपया पहले इनसे मिल लीजिये।"
सामने गोरी चमड़ी को खड़ा देख झट से अपनी मटमैली धोतीे में उसने हथेली को रगडा़ और हाथ आगे बढ़ा दिया।
" ग्लैड टू मीट यू ! मीडिया में आपके बारे में बहुत सुना है।"
"थैंक्स,फॉर दिश अप्रीसियेशन "जबाब देते हुए उसकी निगाहें पगडंडी पर अटक गई।
शहर से लौटता हुआ बेटा ! चेहरा चमक उठा। सरसराती हुई हवा के गुजरने से उसका ध्यान सामने गया जहाँ नदी के किनारे तटस्थ विश्वास का वटवृक्ष अपने विस्तार से नई पौध को जीना सिखा रहा था।
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(13). श्री मिथिलेश वामनकर जी
“विरासत”
होरी के गोदान के बाद भी उसके पोते मंगल के दिन नहीं फिरे थे। किसानी ने उसे जीवित तो रखा लेकिन उसकी त्रासदियाँ कम नहीं हुई। कितने ही बिल्डर उससे जमीन खरीदने आये लेकिन उसने अपने बुरे वक़्त में भी बित्ता भर जमीन भी नहीं बेचीं। उस दिन जब मंगल खेत में काम कर रहा था तो उसने देखा कि पेड़ पर एक मैना अपना घोंसला बना रही है और पास ही डाल पर फुदकती गौरैया जैसे उसे समझा रही हो। तभी खेत से लगी सड़क पर कार आकर रुकी और बिल्डर के ख़ास खन्नाजी उतरे।
“अरे मंगल आज भारी बारिश और आँधी-तूफ़ान के आसार है. ऐसे में कहाँ तुम खेत में काम करने आ गए।”
“का करे मालिक! काम नहीं करेंगे तो खायेंगे का?”
“भाई मैंने तो तुम्हें इतना अच्छा ऑफर दिया था...?”
दोनों बात करते-करते उसी पेड़ के नीचे पहुँच गए। मंगल ने देखा कि पेड़ की डाल पर फुदकती गौरैया उस मैना को लगातार समझा रही है कि तुम्हारे बाप दादा भले ही इस पेड़ पर रहे हो लेकिन इस आँधी-तूफ़ान में इस पेड़ का बचना मुश्किल है। मगर वह मैना जैसे सब कुछ अनसुना करते हुए बस अपने काम में मग्न रही।
“क्या सोच रहे हो मंगल?”
“सोच नहीं रहा मालिक, उस मैना को देख रहा हूँ।”
खन्ना जी को फिजूल की बातें वैसे भी पसंद नहीं थी इसलिए उस बात को अनसुना करते हुए बोले:
“अच्छा.. तुमने फिर क्या सोचा है?”
मंगल जवाब देता उससे पहले ही अचानक जोरों हवा चली और आँधी आने लगी. कुछ पेड़ तेज़ हवा को नहीं झेल सके और गिरने लगे। खन्नाजी भी जैसे-तैसे अपनी कार की तरफ भागे। मंगल उसी पेड़ के नीचे खड़ा रहा। जब आँधी थमी तो उसने फिर घोंसले की तरफ़ देखा। मैना घोंसले के कुछ बिखरे तिनके समेटकर फिर उसे संवारने में व्यस्त हो गई थी। मंगल भी फिर खेत में काम करने लगा।
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(14). श्री तसदीक़ अहमद खान जी
जायदाद
मोहसिन के अब्बा के इंतक़ाल का आज तीसरा दिन हैI तीजे की फातहा हो चुकी है, सब रिश्तेदार घर पर मौजूद हैं । ख़ामोशी के माहौल को ख़त्म करते हुए अचानक वकील अनवर जो पड़ोस में रहते हैं, घर आकर एक खत मोहसिन को देते हुए कहते हैं कि आपके वालिद साहिब ने इंतक़ाल से एक महीने पहले मुझसे यह खत लिखवाकर कहा था कि इसे मेरे मरने के बाद सिर्फ मोहसिन को देना। मोहसिन वापस खत अनवर को देकर कहता है कि आप ही इसे पढ़कर सुना दीजिये। अनवर ने खत पढ़ते हुए कहा:
"बेटा मोहसिन तुम मेरे सबसे होनहार ,लायक़ और नेकदिल इंसान हो! तुमने ज़िन्दगी भर मेरी और अपनी मरहूम माँ की खिदमत की, तुमने ही तीन बेटों में पढ़ लिख कर खानदान का नाम रोशन किया। मैं जो कहना चाहता हूँ उसकी वसीयत भी कर सकता हूँ मगर मैं यह अख्तियार तुम को देता हूँI तुम्हारे दोनों भाई किसी लायक़ नहीं, बहन के घरेलू हालात अच्छे नहींI मेरे मरने के बाद तुम सारी जायदाद शरीयत के मुताबिक़ अपने भाई और बहन में बाँट देना खुदा तुम्हें इसका बेहतर सिला देगा, मेरी दुआएं हमेशा तुम्हारे साथ थीं, हैं और रहेंगी।"
खत सुनते ही मोहसिन की आँखें ख़ुशी के आंसुओं से भर गयीं उसने दोनों भाई और बहन को गले से लगा लिया और मन ही मन सोचने लगा कि मैं कितना खुशनसीब हूँ जो वालिद साहिब ने अपनी विरासत की सबसे कीमती चीज़ अपनी दुआएं मुझे अता फरमाई हैंI
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(15). श्री डॉ टी आर सुकुल जी
दिवास्वप्न
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‘‘अब हमारी आन्तरिक सुरक्षा संतोषप्रद हो सकेगी, गुंडे, चोर, उचक्के अब अपराध करने से पहले सौ बार सोचेंगे‘‘
‘‘ क्यों? ऐंसा क्या हो गया जो अभी तक नहीं था?‘‘
‘‘ अरे! तुमने पढ़ा नहीं? न्यूज पेपर में छपा है कि अब पुलिस ने अपने विभाग से भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त करने के लिये कमर कस ली है ‘‘
‘‘ असंभव‘‘
‘‘ देखो! पेपर में, मंत्रीजी ने डीजीपी के माध्यम से सभी जोन्स के आइजी और डीआइजी स्तर के अधिकारियों से सर्वेक्षण करा कर यह पता लगा लिया है कि पुलिस विभाग में किस किस प्रकार के कामों से किन किन क्षेत्रों में भ्रष्टाचार होता है। उनका कहना है कि अब वे इन पर सख्ती से लगाम कसेंगे ताकि पुलिस में भृष्टाचार जड़ से समाप्त हो जाये‘‘
‘‘ हः हः हः हः!‘‘
‘‘ अरे! तुम हॅंस रहे हो?‘‘
‘‘ हॅंसने की तो बात ही है। अरे! डीजीपी या आइजी स्तर पर पहुंचने के पहले क्या ये सज्जन फील्ड में बिलकुल नहीं रहे जो उन्हें यह पता ही नहीं है कि पुलिस भृष्टाचार करने के लिये कहाॅ कहाॅं और क्या क्या हथकंडे अपनाती है ?‘‘
‘‘क्यों नहीं, ये सभी लोग छोटे बड़े सभी पदों पर अनेक स्थानों पर काम कर चुके होेते हैं, उसके बाद ही पदोन्नत होकर इन पदों पर पहुंचते हैं‘‘
‘‘ तो तुम व्यर्थ ही सपने देख रहे हो।‘‘
‘‘क्या मतलब?‘‘
‘‘ अरे! कोई अपनी विरासत को इस तरह नष्ट कर सकता है? इसका तो स्पष्ट संदेश यह है कि सर्वेक्षण में चिन्हित किये गये क्षेत्रों से प्राप्त होने वाला मंत्री का शेयर या तो कम है या पहुंच नहीं रहा है । ज्योंही उसे बढ़ाते हुए पहुंचा दिया जायेगा सब कुछ यथावत हो जायेगा, समझे?"
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(16). श्री शुभ्रांशु पाण्डेय जी
विरासत
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“तुम कौन हो भाई? पहले तो नहीं देखा तुम्हें यहाँ..”, अपने शहर की प्रसिद्ध और बहुत पुरानी लस्सी की दुकान पर उस दिन एक नये लड़के को देख कर मैंने सवाल किया.
“मैं छोटे वाले भाई का लड़का हूँ.”, उसने अपने स्मार्ट फ़ोन पर उँगलियाँ फिराते हुए लापरवाही से जबाब दिया.
“अच्छा…”
दो भाइयों में बड़े भाई दुकान में लस्सी बनाया करते थे, छोटे भाई दूध के सामानों को पीछे बने एक अलग कमरे में बनवाते थे, जिसे वो कारखाना कहते. यानी, दुकान की गद्दी सम्हालने के लिए अब एक नयी पीढी तैयार हो गयी है ! देख कर अच्छा लगा.
“भाई, एक लस्सी दे दो.”
स्मार्ट फ़ोन पर अपनी नजरें गड़ाये वो लड़का वहाँ से उठा और पीछे रखे डीप फ़्रीज़र से लस्सी का एक ग्लास निकाल लाया.
“क्यों बेटे, क्या ताज़ा नहीं बनाओगे ? कुल्हड़ में ?”
“यहाँ तो साहब ऐसा ही है. यहाँ सुबह में ही गिलास तैयार हो कर डीप फ़्रीजर में डाल दिये जाते हैं.”, फेंकती हुई नजरों के साथ गिलास मेरे सामने रखते हुए उसने ज़वाब दिया.
लस्सी की घूँट भरते हुये मैं सोच रहा था, “ओह, क्या स्वाद हुआ करता था यहाँ !.. सही है, विरासत को संभाल पाना हर किसी के बस की बात नहीं है.”
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(17). श्री सुनील वर्मा जी
सिपाही
जब से होश संभाला था, रघुवीर जी ने अपने खानदान की नाक को अपने चेहरे पर चस्पा पाया था। बचपन में उन्होंने अपनी बहन की निगरानी रखते हुए इसे सहेजे रखा तो शादी के बाद अपनी पत्नी को उसकी मर्यादा समझाते हुए।
यदा कदा वह अपनी माँ को भी इसका महत्व समझा देते थे। उन्होंने पुरखों की इस विरासत के सरंक्षण का सिपाही अपने बेटे को भी बनाना चाहा मगर बेटी पर अब भी जिम्मेदारी थी कि वह परिवार की बाकी महिलाओं का ही अनुसरण करे।
बदन में जब तक ज़ोर था, उनके शरीर के सभी अंग इसकी ऊँचाई को बरकरार रखने के लिए उसके हिमायती बने रहे। आँखों के सामने नाक के बड़े आकार ने आवरण का काम किया तो वह सही गलत का फर्क न कर सके। और जब उनकी गल्तियों पर समय चक्र उन्हें धीमे से रोंधता हुआ आगे निकल गया तब वह सँभल भी न पाये। उन्होंने महसूस किया कि नाक को बचाने के क्रम में उनकी कमर टूट चुकी है।
अंतिम समय में उन्होंने परिवार वालों को अपने पास बुलाया। घर की महिलाओं के सामने हाथ जोड़कर अपने किये की माफी माँगी। उनकी अकड़ी हुई लंबी नाक अब पहले से छोटी और सुंदर हो गयी थी। उन्होंने सामने खड़े बेटे को अपने पास बुलाया। घर की महिलाओं के प्रति सम्मान की इस नई विरासत को उसके हाथ में रखा और अपनी आँखें मूँद ली।
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(18). श्री चंद्रेश कुमार छतलानी जी
बंटवारा
हस्पताल की गहन चिकित्सा इकाई में भर्ती उस रोगी ने अपनी आँखें खोलने का प्रयास किया, उसे हल्की सी पीड़ा महसूस हुई, एनेस्थेसिया देने के कारण उसके सिर में भी दर्द था| उसके मुंह से कराह निकल गयी| आवाज़ सुनते ही वहीँ खड़ी नर्स ने वार्ड बॉय को इशारा किया और कुछ ही समय में पुलिस का एक अधिकारी उस रोगी के पास आकर खड़ा हो गया| पुलिस अधिकारी ने उससे पूछा: "आप ठीक हों तो, यह बताएं कि क्या हुआ था?"
सामने की दीवार पर गांधी जी की तस्वीर टंगी थी, उसे देखकर उसने अपनी पूरी शक्ति जुटाई और कहा:
"बापू का स्वप्न था कि हर व्यक्ति का एक हाथ हिन्दू और दूसरा मुस्लिम हो, ताकि... दोनों को गले लगाया जा सके|"
पुलिस अधिकारी को इस बात में कोई रूचि नहीं थी, उसने उसकी बात अनसुनी कर उत्सुकता से पूछा:
"लेकिन आपके हाथ किसने काटे?"
उस रोगी ने मुंह से गहरी सांस ली और कहा:
“दंगे के वक्त कुछ लोग आये थे उन्होंने कहा मुसलमान बन जाओ, मैंने कहा कि मैं इंसान हूँ... फिर कुछ और लोग आये उन्होंने कहा हिन्दू बन जाओ... उन्हें भी यही उत्तर दिया| मैं जब हिन्दू भी नहीं हूँ और मुसलमान भी नहीं तो दोनों तरफ के लोग बापू के श्वेत-श्याम सपनों को रंगीन कर... अपनी-अपनी विरासत लेकर चले गये|”
फिर कुछ क्षण चुप रह कर उसने कहा, "दोनों हाथों को जोड़ने की कोशिश में हर बार हाथ ही तो बंटे हैं|“
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(19). योगराज प्रभाकर
गाँधी का चौथा बन्दर
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"ये नया ठेकेदार और इंजिनियर दोनों बहुत हरामी हैंI दोनों साले मिलकर सरकार को चूना लगा रहे हैंI सुना है कि ये सीमेंट बेचकर मोटी कमाई भी कर रहे हैं, और....."
शायद पिछले वर्ष की ही बात है जब उसके एक साथी कर्मचारी ने धीरे से उसके कान में कहा थाI
इससे पहले कि बात पूरी होती उसने अपने कानो के पर्दों को कई मोटे मोटे तालों में बंद कर दिया थाI उसको ऐसा करते देख, अपने कानों पर हाथ रखकर बैठे बापू का बन्दर मुस्करा उठा थाI यह उन तीन बंदरों में से एक था जिन्हें उसका गांधीवादी बाप उसके कन्धों पर बिठा गया थाI
कुछ हफ्ते पहले ही नए नए बने पुल के गिर जाने से बहुत से लोग मारे गए थेI इस पुल पुल का निर्माण उसी कम्पनी ने किया था जहाँ वह काम करता थाI किसी साथी ने उसे बताया भी था कि कम सीमेंट डालकर घटिया मिक्सचर बनाने का यह काम उसके दफ्तर के पीछे ही हुआ करता थाI वहीँ पैसों का लेनदेन भी होता हैI उसके मन में कई बार सच्चाई को अपनी आँखों से देखने की इच्छा हुई भी, किन्तु अपनी आँखों पर हाथ रखे हुए गाँधी के एक बन्दर ने उसे घूरते हुए बुरा देखने से मना कर दिया थाI
मगर आज तो हद ही हो गई, बाज़ार में तेज़ गति पर मोटर साइकिल चलाते हुए सवार युवक ने उसे पीछे से टक्कर मार दीI वह सड़क से उठा ही था कि यह युवक दनदनाता हुआ उनके सामने आ खड़ा हुआ:
"अबे ओए कांगड़ी पहलवान! साले देखकर नहीं चल सकता क्या?"
“अरे लेकिन मैं ......."
"अबे बकरी की तरह मैं मैं क्या कर रहा है भैण के यार? दूँ क्या दो चार कनटाप?"
"अबे छोड़ यार! बुड्ढा है, मर जाएगा मादर......." युवक के साथी ने उसे खींचते हुए कहाI
गालिओं की बौछार से उनका धैर्य जवाब दे रहा था, क्रोध से नथुने फुलाते हुए वे कुछ बोलने ही वाला था कि बापू के तीसरे बन्दर ने होंठों पर उँगली रखते हुए उसे बुरा बोलने से मना कर दियाI बाकी दो बंदरों ने भी उसकी बात पर सहमति जताईI उसने जलती हुई दृष्टि से देखा तो अचानक वे तीनो बन्दर बहुत ही भद्दे और बूढ़े दिखाई देने लगेI उसने एक झटके से तीनों को अपने कंधों से उतार कर दूर पटक दियाI फिर पास पड़ी हुई ईंट उठाकर पूँछ दबाकर बैठे बंदरों की तरफ हवा में लहरा कर गला फाड़ कर चिल्लाया:
“दफा हो जाओ यहाँ सेI”
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(20). सुश्री नीता कसार जी
"पदक "
'बाबा कह नही पाते,पर तुम तो मुझे समझो ना माँ ?
झन्नाटेदार झापड खाकर भी कमली ज़िद से हटने तैयार ना थी ।
कितनी बार समझाया, तुझे चोरी चोरी कुश्ती देखने जाती है तू ?पराये घर जाना है तुझे ,घर गृहस्थी संभाल,घर के भीतर रहा कर ।
माँ मुझे मौका तो दो देखना नाम रोशन कर सकती हूँ।
मासूम गाल पर माँ की ऊँगलियाँ उछल आई ,पर डबडबाई आंखें हार मानने तैयार ना थी ।
देख कमली हमारी जगहँसाई हो जायेगी ,कि मगन पहलवान की लड़की कुश्ती सीख रही है।
घी,दूध ,दही लड़के के लिये होता है।तुझे कौन सा तीर मारना है।
माँ ने बेटी पर दबाव बनाना चाहा,पर पिता ने लाड़ली की इच्छा के आगे हथियार डाल दिये ।
'ये पदक माँ बापू आपके लिये है।'इसके असली हक़दार आप दोनों है ।
'आज तू ने मेरी विरासत संभाल कर बेटे की कमी पूरी कर दी '
पिता का रूँधा गला इतना ही कह पाया ।
मां की आँखों पर चढ़ा ज़िद का चश्मा टूटकर मुस्कुरा रहा था ।
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(21). सुश्री डॉ वर्षा चौबे जी
विरासत...
"दादी दादी "अमन खुशी से चीखता हुआ अन्दर से घुसा।
"क्या हे रे क्यूँ घर सर पे उठा रखा है ? " दादी ने दुलार मिश्रित डाँट से पूछा।
"अरे दादी आँखें बंद कर " सरप्राइज है।
"ले कर ली अब बता"।
"ये देख दादी मेरा रिजल्ट, मैंने एन.डी.ए. की परीक्षा में टाप किया है, तेरा पोता फस्ट आया है फस्ट"।
दादी ने झटकर पेपर यूँ फेंक दिया मानो किसी ने हाथों में अंगार रख दिया हो।
" क्या हुआ दादी, तू खुश नहीं हुई,देख कल के पेपर में छपेगा एक साधारण किसान के बेटे ने एन डी ए की परीक्षा में टॉप किया और दादी तेरी फोटो भी छपेगी"। खुशी के मारे मानों अमन के शब्दों को भी पर लग गए थे।
और दादी को जैसे काटो तो खून नहीं। धम से सोफे पर निढाल होकर गिर पड़ी थी अमन की बात सुनकर कातर निगाहों से उसे ताकती हुई बोली " तू साधारण किसान का बेटा नहीं है रे, ये गुण तो तुझे विरासत में मिले हैं "।
"ये क्या कह रही हो दादी.... " बात पूरी होने के पहले ही दादी बिजली की भाँति अन्दर गई और बाहर
आई उनके हाथों में दो तस्वीर थी जिनमें दो लोग वर्दी पहने मैडलों से लदे थे।
"दादी ये दादाजी, पिताजी पर...."
"हाँ बेटा तेरे दादा सेना में कमांडर थे, जब तेरे पिता सात बरस के थे तब देश की रक्षा के लिए वे शहीद हो गए, मैंने पति पर गर्व और यादों के सहारे वैध्व्य भरा जीवन तेरे पिता को बड़ा किया और पढलिख कर वह भी सेना में चला गया"। एक गहरी साँस भरकर आगे बोली " बहुत अरमान से तेरे पिता की शादी की किन्तु जब तू होने वाला था तभी तेरे पिता के शहीद होने की खबर आई, तेरी माँ उस गम को बर्दाश्त नहीं कर सकी और तुझे जन्म देते ही वह भी इस दुनिया से विदा हो गई। " दादी के सब्र का बांध टूट गया।
"दादी... "
"हम दोनों का एकदूसरे के अलावा कोई और नहीं था मैं अब तुझे नहीं खोना चाहती थी, इसलिए अपना सू बेचकर दूर इस गाँव में आकर बस गई और तुझे बताया नहीं कुछ। मैं तुझे उस परछाई से भी दूर रखना चाहिती थी, पर....आखिर खून असर दिखा ही गया।"
दादी की बरसों की पीड़ा आंसुओं में बह रही थीऔर अमन अपने पूर्वजों को फक्र से देख रहा था।
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(22). श्री महेंद्र कुमार जी
अभिशाप
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"तुम अभिशप्त हो..." महीने भर पहले देवयानी के कहे गये ये शब्द अभी भी स्वप्निल के कानों में गूँज रहे थे जो मूसलाधार बारिश और तेज़ हवाओं के बीच पिछले एक घंटे से पुराने पुल पर शान्तचित्त खड़ा था।
स्वप्निल के माता पिता नहीं हैं। वह अपने छह भाई और दो बहनों में सबसे छोटा है। जैसे-जैसे बिजली कड़कती गयी वैसे-वैसे उन सभी का चेहरा एक-एक कर उसकी नज़रों के सामने घूमने लगा। सबसे बड़ा वाला भाई सेना में, दूसरे नंबर का एक कॉलेज में साइकोलॉजी का प्रोफेसर, तीसरा चित्रकार और चौथा इंजीनियर था। पाँचवे नम्बर वाला भाई अभी पिछले साल ही एयरफोर्स में भर्ती हुआ है। दोनों बहनें शादीशुदा हैं।
स्वप्निल देवयानी से प्यार करता है। वह उससे शादी भी करना चाहता है लेकिन देवयानी ने इंकार कर दिया।
"मुझे माफ़ करना स्वप्निल लेकिन मैं तुमसे शादी नहीं कर सकती।"
"क्यों?" स्वप्निल ने आश्चर्य से पूछा।
"क्यों? ये तुम मुझसे पूछ रहे हो? अपने आप से पूछो। तुम्हारा एक भाई युद्ध में मारा गया तो दूसरा रोड एक्सीडेण्ट में। एक ने कॉलेज में पाँचवे माले से कूद कर जान दे दी तो दूसरे ने फांसी पे लटके हुए एक आदमी का चित्र बनाकर खुद आत्महत्या कर ली। बड़ी वाली बहन लीवर में इन्फेक्शन से चल बसी तो छोटी वाली पैरालिसिस से। और तुम मुझसे पूछते हो क्यों?"
स्वप्निल थोड़ी देर ख़ामोश खड़ा रहा और फिर बोला― "तो क्या तुम भी ऐसी बातों में विश्वास करती हो?"
"कभी-कभी न चाहते हुए भी करना पड़ता है।"
"अगर सचमुच ऐसा है तो मेरा एक भाई अभी भी कैसे जीवित है?"
"वो अभी बत्तीस साल का नहीं हुआ है।"
इतनी बारिश के बीच में भी उसके माथे से निकलते पसीने को साफ़ देखा जा सकता था। उसे अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था कि उसका आख़िरी भाई भी अब नहीं रहा। वो भी आज, अपने जन्मदिन से ठीक एक दिन पहले? प्लेन क्रैश में? वो शब्द उसके कानों में फिर से गूँजने लगे, इस बार और ज़ोर-ज़ोर से... "तुम अभिशप्त हो स्वप्निल, अभिशप्त! ये उस निर्दोष की हाय है जिसे तुम्हारे पिता जी ने झूठा इल्ज़ाम लगा कर फांसी की सज़ा दिलवायी थी। याद रखो, तुम्हारे पिता जी का वो दोस्त भी बत्तीस साल का ही था!"
अचानक वह पुल की रेलिंग पे चढ़ा और नदी में कूद गया।
थोड़ी देर बाद पुल पर खड़ी कार से एक महिला निकल कर उस ओर बढ़ती है जहाँ से स्वप्निल ने छलाँग लगायी थी। वहाँ पहुँच कर वह नदी की तरफ़ देखती है, फिर अपने दोनों हाथ फैलाती है और आसमान की ओर देख कर धीरे से कहती है― "आपका बदला पूरा हुआ पिता जी!"
वह महिला देवयानी थी।
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(23). श्री मनन कुमार सिंह जी
डिग्री
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यूनिवर्सिटी का हाल खचाखच भरा हुआ है।आज डिग्रियाँ बाँटीं जायेंगी।सभी गणमान्य लोग आ चुके हैं। प्रतीक्षा है मिस भारती के आने की। उन्हें आज इस प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी की सर्वश्रेष्ठ डिग्री से नवाजा जाना है। हाँ, विषय का पता नहीं है। वैसे भी जिनकी विरासत में सत्ता लिखी हो, उनके लिए क्या डिग्री, क्या विषय? यह तो यूनिवर्सिटी वाले भारती के मंत्री पिता का संस्था के प्रति उपकार चुका रहे हैं,किंचित मात्र। मंत्रिजी की भी सदाशयता अकल्पनीय है, नहीं तो कौन इस डिग्री वाले झमेले में फँसता है आजकल। कभी की डिग्री, कहीं कोर्ट में गवाही देती फिरती है। खैर, कृतज्ञता- ज्ञापन का यह ढंग उन्हें भा गया है।वरना भारती कब पढ़ती,कब डिग्री लेने की नौबत आती?
अचानक अपने अफले-तफले के साथ मंत्रिजी का आगमन होता है। गर्व की मुद्रा में भारती उनके साथ चलकर मंच पर आ गई। सब लोग यथा-स्थान बैठ गये। मंत्री जी को माला अर्पित हुई, साथ में भारती को भी। माल्यार्पण कर कॉलेज के प्रधान फूले न समाये। सीना चौड़ा कर बगल में खड़ा हो गये। अब मंत्रिजी के आदेश से डिग्री बाँटने का कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ। सबसे पहले मिस भारती का नाम पुकारा गया। भारती अपने पिता के साथ मंच पर ही थीं, सो विलंब न हुआ। तुरत डिग्री देनेवाले सज्जन के सम्मुख हो गयी। एक ललना ने उन्हें टीका लगाया, दूसरी ने शाल ओढ़ाया। फिर माल्यार्पण के उपरांत डिग्री उन्हें सुपुर्द की गयी। जोरदार तालियों से हाल गूँज उठा। ‘मिस भारती’ जिंदाबाद के नारे बुलंद हुए। भारती की गर्वोन्नत भंगिमा देखने लायक थी। कितना पढ़ने पर यह डिग्री मिलती है, उसे पता नहीं था। बेटी को डिग्री मिलने पर मंत्रिजी से दो शब्द कहने का आग्रह हुआ। मंत्रिजी कह रहे थे, ‘ऐसी बेटी हर घर में हो, यह मेरी कामना है।यह मेरे घर आयी, तो मुझे गद्दी मिली। मुझे गद्दी मिली, तो डिग्रियाँ भी आने लगीं। मुझे गर्व है अपनी लाड़ली पर’। लोग तालियाँ बजा रहे थे, भारती सद्य:प्राप्त उस डिग्री को सीने से लगाये बैठी थी, उसे घूर रही थी। पर बेचारी डिग्री रो रही थी।
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(24). सुश्री शशि बंसल जी
विरासत
भोजन की पुकार लगते ही देवकीप्रसाद और पुत्र अंकित ' डायनिंग टेबिल ' पर आकर बैठ गए । नवब्याहता वधू त्रिशा की ये पहली रसोई थी ।वह सबकी थाली में भोजन परोस रही थी ।सास बनने की ख़ुशी और गर्व से भरी लक्ष्मीदेवी बहु के कुशलता पूर्वक चलते हाथों को देखकर गदगद हो रही थीं । तभी उनकी नज़र पुत्र अंकित पर आकर टिक गईं , जो बड़ी बैचेनी और अन्मयस्कता का भाव लिए पत्नी त्रिशा की ओर एकटक देख रहा था ।लक्ष्मीदेवी ने अपनी दृष्टि त्रिशा की ओर घूमा दीं ।उसकी आँखों में भी बेबसी के स्पष्ट दिख रहे थे ।अनायास ही लक्ष्मीदेवी के ओठों पर मुस्कान तिर आई ।
" बहू ! मुझे तुम्हारे बाबूजी से अकेले में कुछ जरुरी बात करनी है , तुम ऐसा करो , अपनी और अंकित की थाली अपने कमरे में ही ले जाओ ।"
लक्ष्मीदेवी के इतना कहते ही बेटे - बहू के चेहरे मुँह माँगी मुराद से खिल गए ।दोनों के जाते ही देवकीप्रसाद लक्ष्मीदेवी पर झल्ला पड़े , " ओफ्फो , ऐसी भी क्या जरुरी बात थी जो भोजन के बाद नहीं हो सकती थी , कितना प्रसन्न था मैं कि , आज बहू के साथ बहू के हाथ का पका खाऊँगा , लेकिन तुमने ..."
" अजी , आप भी न ससुर बनते ही सठिया गए हैं ।भूल गए वो दिन जब हमारा ब्याह हुआ था और तुम रोज़ नए नए बहाने बनाकर देर तक भूखे रहते थे और मुझे भी रखते थे , सिर्फ इसलिए कि एकांत में हम एक दुसरे को अपने हाथों से खिला सकें ? " लक्ष्मीदेवी ने पति की बात काटते हुए शरारत से मुस्कुराते हुए कहा ।
"हाँ , सच कहती हो लच्छू , उन दिनों की हर बात का आनन्द ही कुछ और था ।" अब देवकीप्रसाद के चेहरे पर भी एक रूमानी मुस्कान छा गई थी ।
" जी , फिर तो ये भी याद होगा कि सासु माँ आपकी चाल समझ गई थीं , और उन्होंने पूरे परिवार के एक साथ भोजन करने की परम्परा के विरुद्ध जाकर अंकित के होने तक भोजन की थाली हमारे कमरे में ही पहुँच वाई थी ? "
" ओह्ह ! अब इस भेजे में बात समझ आई ।"
" जी ,मैं चाहती थी कि रिश्तों में एक दुसरे की भावनाओं को समझने और निभाने की कला की स्नेह रूपी चाबी जो मुझे विरासत में अपनी सास से मिली है , उस विरासत को मैं अपनी बहू को हस्तांतरित कर दूँ ।जिसके आगे कमर में खौंसी इन लोहे की चाबियों का कोई मूल्य नहीं है ।" लक्ष्मीदेवी ने हाथ जोड़ मृत सास को स्मरण करते हुए कहा ।
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(25). श्री मोहन बेगोवाल जी
कैसी विरासत
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दरवाजे की तरफ झांकते हुए महिंद्र उठ कर उसकी तरफ चल पड़ा, धीरे से शरीर को हिला कर उसे उठाने लगा। मगर वह तो पहले ही जाग रही थी, अब दिन रात उस कि लिए एक जैसे ही हो गए हैं । महिंद्र उसे साथ लेकर वाशरूम की तरफ चल पड़ा ।उसको सहारा देकर वो वाशरूम की तरफ लिजा रहा था अचानक ही उसका दायाँ पाँव टेबल से टकरा गया,और प्लास्टिक की भरी पड़ी सभी दवाईयाँ टेबल से नीचे गिर गई । उसे वाशरूम छोड़ कर मैं दवाईयों को इकठ्ठा करने लगा,तब मुझे लगा कि माँ कही बात कि अगर दवाईयों गिर जाए तो मरीज़ ठीक हो जाता । कुछ देर कि बाद उस ने उसने वाशरूम के दरवाजे की आवाज सुनी और रसोई से उस तरफ चला पड़ा । सहारा दे कर उसे लिटा कर वह फिर रशोई में चल गया ।
“कितने दिन हो गए, काके का फोन नहीं आया” उसने लेटी लेटी कहा, और प्लु से ऑंखें पोषने लगी ।
‘न याद करा कर, उड़े पंछी नया टिकाना बना लेते हैं फिर वापस नहीं आते” ।
चाय बना कर महिंद्र उस का पास ही आ कर बैठ गया ।
महिंद्र पास बैठा सोच रहा था,सुगर ने जिस तरह उस को गिरा दिया,लगता नहीं अब कोई उसे उठा पायेगा, ये सोच कर वह खुद को पता नहीं कहाँ ले गया और उसको दिल के दर्द की आवाज़ ने कहा “अब तुम क्या जी रहे हो, अब तो एन जी ओ की मीटिंग में नहीं जा सकता हूँ ।
अचानक उस की जुबाँ से निकल गया, ‘मेरी तो मौत से पहले ही मौत हो गई’,
महिंद्र को लगा कि शांति, और वह, एक लाश दूसरी तरफ देख रही है।
‘मगर .................... “‘उसने शांति की तरफ देखते हुए कहा ।
ये कह महिंद्र उसके रात के कपड़े ले वाशरूम की तरफ चला1 पड़ा ।
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(26). श्री तेजवीर सिंह जी
कर्म प्रधान
आचार्य बेनी प्रसाद शर्मा अपने इकलौते बेटे माधव प्रसाद को अपनी ही तरह किसी विद्यालय का प्राचार्य बनाना चाहते थेl उनका परिवार पिछली सात पीढ़ियों से शिक्षा और ज्योतिष में पूरे इलाक़े में मशहूर थाl लेकिन माधव किसी और ही मिट्टी का बना थाl उसकी पढ़ाई में कोई खास रुचि नहीं थीl माँ के बचपन में ही गुज़र जाने से माधव कुछ भटक गया थाl हालाँकि आचार्य जी ने माधव को सही मार्ग पर लाने के लिये अपना सब कुछ दाव पर लगा दिया थाl जैसे तैसे माधव को शहर के एक अच्छे संस्कृति विद्यालय में दाखिला दिला दिया थाl मगर वह अपने पिता के मंसूबों को पूर्ण करने के प्रति कतई गंभीर नहीं थाl आचार्य जी उसे अकसर अपनी विरासत को आगे बढ़ाने के लिये प्रेरित करते रहतेथेl
लेकिन माधव का एक ही जवाब होता था,"यह सब आपकी खामख्याली और दकियानूसी बातें हैंl विरासत नाम की कोई चीज़ नहीं होतीl सब कुछ कर्म और नसीब होता है"l
माधव अपनी एक सहपाठी सुधा से प्रेम कर बैठाl माधव से प्रेम के बावज़ूद सुधा ने अपनी शिक्षा पर पूरा ध्यान दिया और सदैव प्रथम आती रहीl माधव भी जैसे तैसे पास हो जाता थाl आचार्य जी के लाख समझाने और विरोध करने के बावज़ूद माधव ने सुधा से प्रेम विवाह कर लियाl आचार्य जी ने माधव से संबंध तोड़ दिये क्योंकि सुधा एक धोबी की बेटी थीl सुधा अपनी प्रतिभा की बदौलत एक विद्यालय की प्राचार्य बन गयीl माधव ने एक ड्राईक्लीनिंग का शोरूम खोल लियाl
आचार्य जी को पता चला तो अचानक माधव के शोरूम पर पहुँच गये,"वाह माधव, क्या उन्नति की है,एक कुलीन ब्राह्मण होकर एक धोबी का कार्य कर रहे होl पूर्वजों की विरासत की धज्जियाँ उड़ा दीं"l
" परंतु पिताजी, आपके लिये एक खुश खबरी भी है, आपकी पुत्रबधु तो आपकी ही विरासत को आगे बढ़ा रही है"l
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“ तुझे तो इसी दर्द के साथ जीना हैं मेरी बच्ची. मेरी बात मान. तू 'साधन' लगाना बंद कर दे. ताकि लोगों को भी इस दर्द का अहसास हो, ” अनीता ताई जिस की आँखों से सदा नफ़रत बरसती रहती थी वह आज नम थी. ऐसा आज पहली बार हुआ था. सभी चकित थे. एक दलाल औरत भी इतनी हमदर्द हो सकती है. वो ग्राहकों से रूपए वसूलना छोड़ कर सीमा का सिर गोद में लिए बैठी थी .
“ ताईजी ! इस में उन लोगों का क्या दोष है जो यहाँ पर , हम से दो पल की ख़ुशी लेने आते हैं. इस के बदले में उन्हें दर्द क्यों दिया जाए ?” सीमा बमुश्किल बोल पा रही थी. “कभीकभी मुझे भी लगता है कि इस जालिम दुनिया को सबक सिखा दूं. जो दर्द व तकलीफ इस ने मुझे दी है वही लौटा दूँ. मगर, मन है कि मानता नहीं है. इस में उन का क्या दोष है . वे तो यहाँ खुशियाँ बटौरने आते हैं.”
यह कहते ही वह अतीत में खो गई. ड्राईवर पति और उस के नवजात बच्चे के खुशहाल व खातेपिते परिवार की किसी की नज़र लग गई. एकएक कर के बच्चा व पति काल के गाल में समा गए. काल को जरा भी दया नहीं आई. वह भरी जवानी में दूसरे ट्रक ड्राईवर के प्रेमजाल के बहकावे में आ कर इस कोठी तक पहुंच गई. उसे पता ही नहीं चला. यही उस ने अपनी नियत मान ली थी. मगर समय को कुछ और मंज़ूर था.
आज ही पता चला कि उसे भी वही बीमारी थी जो उस के पति और बच्चे की थी. यह सुन कर उस का हृदय कांप उठा.
“ बेटी ! इस जालिम संसार ने जो तुझे दिया है उसे उन्ही की विरासत समझ कर लौटा दे.” अनीता ताई की यह बात उस के दिमाग में रहरह कर गूंज रही थी. मगर, वह समझ नहीं पा रही थी कि वह अनीता ताई की बात मान कर लोगों को अपना दर्द बांटे या पहले की तरह ख़ुशी बांटती रही.
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(31). श्री विनय कुमार सिंह जी
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एक और सफल आयोजन और उसके त्वरित संकलन के लिए बहुत बहुत बधाई आ योगराज सर| इस बार देर से शामिल हो पाया लेकिन सभी रचनाएँ पढ़ सका, इसकी संतुष्टि है|
हार्दिक आभार आ० वुईने कुमार सिंह जीI वैसे एक गीत के बोल याद आ रहे हैं:
"देर से आना जल्दी जाना, ऐ साहिब! ये ठीक नहींI"
:)))))))))))
मोहतरम जनाब योगराज साहिब , ओ बी ओ लाइव लघु कथा गोष्टी अंक --17 की कामयाब निज़ामत और त्वरित संकलन के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
हौसला अफजाई के लिए दिल से शुक्रिया मोहतरम जनाब तसदीक़ अहमद खान साहिबI
भाई उस्मानी जी, चर्चा का विकल्प तो हमेशा खुला ही रहता हैI
आदरणीय योगराज जी सर, ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी अंक 17 के सफलतापूर्वक सम्पन्नं हेतु आपको और सम्पूर्ण OBO टीम को सादर बधाई|
हार्दिक आभार भाई चंद्रेश कुमार छतलानी जीI
वाह ! गोष्ठी में सार्थक चर्चाओं का दौर गुजरते ही ,तुरंत संकलन का आ जाना हम सबके लिए अपना मार्कशीट मिलने जैसा ही लगता है। यही वहज है कि हम सब संकलन देखते ही उत्सुक हो सबसे पहले अपनी लघुकथा का स्थान देखते है और फिर आश्वस्त हो अपने मित्रों की लघुकथाओं को देखते और पढ़ते है।ये पल हमारे लिए हर्षोल्लास का पल होता है। बधाई सर जी आयोजन की सफलता के लिए। सार्थक लघुकथाओं से पल्लवित इस बाग़-बगीचे के हमारे प्रिय बागवान है आप। अभिनन्दन आपको। __/\__
कल की व्यस्तता ने, आयोजन में आये बहुत सी लघुकथाओं पर मेरे चर्चा का हास किया है अर्थात ये कि मेरा नुकसान हुआ है .
आज आपकी लघुकथा पढ़कर मैं अभिभूत हुई हूँ। अपनी अभिव्यक्ति देने की प्रबल इच्छा हो रही है।
गाँधी का चौथा बन्दर-- वाह ! प्रतीकात्मक शैली में आपने वर्तमान समय को बखूबी परिभाषित किये है अपनी इस लघुकथा के जरिये।
इस विषद समीक्षा से एक नई ऊर्जा का संचार हुआ हैI रचना को अपना बहुमूल्य समय देने और मान बख्शने के लिए तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ आ० कांता रॉय जीI
आद. योगराज जी भाई जी, ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक 17 की सफलता हेतु हार्दिक बधाई एवं त्वरित संकलन हेतु हार्दिक आभार.
नेट ने इस बार बडा दगा दिया. २९ ता. को तो व्यस्तता के चलते ज्यादा पढ भी नही पाई थी. कई रचनाओ पर दो-दो, तीन-तीन बार भी टिप्पणी करने पर भी पोस्ट ही नही हो पा रही थी खासकर ३०/०८ को.खैर. अब संकलन मे आराम से एक-एक रचना को ध्यान से पढकर समझने का प्रयास कर रही हूँ कि आखिर क्या बात है कि मेरे कथानक की भावनाएँ तो सब समझते पर --कसावट कहाँ छूट रही है.आभार आपका
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