आदरणीय साथिओ,
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आ० उस्मानी जी , आपके प्रयास में सदैव एक कोशिश दिखाई देती है यह कोशिश एक दिन सही दिशा पकड़ेगी ऐसा मेरा विश्वड्स है . कथा का कथ्य अच्छा है पर यह संवादों में कुछ उलझ गयी है . आ०० योगराज जी ने स्पष्ट कर दिया है . अगली बार आपसे बेहतर की उम्मीद करता हूँ . सादर . .
मुह्तरम जनाब शेख शहज़ाद उस्मानी साहिब ,प्रदत्त विषय को परिभाषित करती सुंदर लघु कथा
हुई है , मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ - -
आ.शेख शहजाद जी वरिष्ठ जन काफी कुछ कह चुके हि आपकी रचना पर .आप एक अच्छे उभरते रचनाकार है.बात को गंभीरता से लेगे और रचना को परिष्कृत करेंगे ,ऐसा मुझे विश्वास है.
(ढहते किले का दर्द)
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पूरे घर में उत्सव जैसा माहौल था, पड़ोसियों के इलावा शहर के कई गणमान्य भी बधाई देने पहुँचे हुए थे. बात ही कुछ ऐसी थी, कॉलेज में पढ़ने वाले रोहन को अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट लीग में खेलने हेतु अनुबंधित किया गया थाI इतनी छोटी उम्र में करोड़ों रुपये का अनुबन्ध मिलने से परिवार की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं थाI
"मुबारक हो शर्मा जी! कमाल कर दिया आपके बेटे ने तोI" कोई हाथ मिलकर तो कोई गले लगकर रोहन के पिताजी को बधाई दे रहे थाI "आपका ही नहीं, पूरे शहर का नाम रोशन कर दिया रोहन नेI"
“अरे शर्मा जी! इतनी ख़ुशी का मौका है, आज भी वही पुराना ब्रांड?” हाथ में जाम पकड़े पडोसी ने शिकायत भरे लहजे में कहाI
"अगली दफा आपको विदेशी स्कॉच पिलाऊँगा खन्ना साहिबI" शर्मा जी ने मुस्कुराते हुए कहाI
रोहन की माँ भी अपनी सहेलियों से घिरी हुई थीI
"अब तो तुम्हारा विदेश घूमने का सपना भी बेटा पूरा कर देगा सखीI"
“मैं तो गर्मियों में स्विटज़रलैंड के टूर पर जाऊंगीII” रोहन की माँ उत्साह भरे स्वर में बोलीI
रोहन की बहन जो चहकती हुई घूम रही थी, पास आकर धीरे से बोली:
"अब तो जल्दी से बढ़िया सी कार ले लो ब्रोI"
“तू देखती जा छुटकी, तुम सबके लिए नई गाड़ियाँ आ जाएँगीI” रोहन अभी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि पिताजी ने इशारा करके उसे अपने पास बुलाया:
"सुनो बेटा रोहन, वो रियल एस्टेट वाले का फ़ोन आया हैI तुम कहो तो बंगले की डील पक्की कर लूँ?" रोहन के कान के पास धीरे से फुसफुसाते हुए वे बोलेI
"मैं थोड़ी देर में आता हूँ डैडी! कुछ मीडिया वाले मुझे किसी ऐड के लिए साइन करना चाहते हैंI" दूर खड़ी एक टोली की तरफ तेज़ क़दमों से जाते हुए रोहन ने कहाI
उज्जवल भविष्य की चमक पूरे घर पर छाई हुई थी, जाम टकराने की आवाजों के साथ ही चेहरों पर ख़ुशी दोबाला हो रही थी, पूरा घर ठहाकों से गूँज रहा था,
लेकिन दीवार पर टंगी ओलिंपियन दादा जी की धूल सनी हॉकी स्टिक बहुत उदास थीI
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(मौलिक और अप्रकाशित)
आखिरी पंक्ति ने एक आह निकाल दी, बहुत प्रवाहमय रचना प्रदत्त विषय पर| किस तरह से आखिरी पंक्ति तक रचना में रोचकता बरकरार रखा जाता है, इस रचना से सीखने को मिला| बहुत बहुत बधाई सर इस रचना के लिए
भाई विनय कुमार सिंह जी इस हौसला अफजाई हेतु हार्दिक आभार.
आदरणीय योगराज सर, अपने राष्ट्रीय खेल का दर्जा पा चुकी हॉकी की व्यथा को अभिव्यक्त करते आखिरी वाक्य ने झिंझोड़ कर रख दिया. विश्व में भारत की सफलता के झंडे गाड़ने में सफल रहा यह खेल अब ऐसी स्थिति में पहुँच गया कि ओलिंपियन दादा का वारिस भी अपनी विरासत को भूल गया. कभी 6-6 ओलम्पिक स्वर्ण पदक लाने वाला यह खेल अब कहीं गुम सा हो रहा है. क्रिकेट की चकाचौंध में राष्ट्रीय खेल को जैसे उसके अपने ही भूल बैठे हैं. आपने पूरी कथा में क्रिकेट की चकाचौंध को दर्शाया किया है लेकिन पञ्चलाइन पूरी कथा के मूल भाव तक अचानक से पहुँचाती है और पाठक को एक झन्नाटेदार झटका लगता है. रोचक प्रवाह से सधी शैली में प्रदत्त विषय को सार्थक करती और नव अभ्यासियों को मार्गदर्शन देती इस उत्कृष्ट लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई निवेदित है. सादर नमन
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