आदरणीय साथिओ,
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सुख के बदलते रंग - लघुकथा –
"बाबूजी, आप अपना सारा सामान समेट लो| इस बार मैं और सुधा आपको अपने साथ ही, रहने के लिये, लखनऊ लेकर जायेंगे"।
"अरे वाह, यह चमत्कार कैसे हो गया बेटा अशोक? पहले तो सुधा, मेरा लखनऊ आना पसंद ही नहीं करती थी"?
"नहीं बाबूजी, सुधा को आपसे कोई गिला शिकवा नहीं था। उसे डर लगता था कि आपके वहाँ रहने से बबलू को कुछ ज्यादा ही आज़ादी मिल जाती थी। उसे तो बस बबलू के बिगड़ने की चिंता सताती रहती थी"।
"तो क्या अब नहीं बिगड़ेगा बबलू"?
"अब तो बबलू को नैनीताल हॉस्टल में भेज दिया है"।
" मैं तो बबलू के लिये ही लखनऊ जाता था| अब मुझे वहाँ क्यों ले जाना चाहते हो"?
"बाबूजी, अब आपकी उम्र हो गयी है। आपको पूरे आराम और देख भाल की जरूरत है"।
"वह तो यहाँ भी भरपूर मिल रहा है। तेरा भाई रमेश और उसकी पत्नी मेरा बहुत ख्याल रखते हैं"।
"पर बाबूजी शहर जैसी मैडीकल सुविधायें तो यहाँ गाँव में नहीं मिलती हैं ना"?
"पर मुझे तो ऐसी कोई विशेष बीमारी भी नहीं है"।
"बाबूजी, इसके अलावा शहर में और बहुत सी सुख सुविधायें भी तो होती हैं जैसे टी वी, अखबार, घूमने के लिये पार्क, दर्शन करने के लिये सुंदर मंदिर और सिनेमाघर आदि"।
" टी वी वाले कमरे में तो अधिकतर तेरी बीवी सुधा ही बैठी रहती है"।
"अब तो सुधा भी जॉब करने लगी है बाबूजी"।
तभी वहाँ छोटे बेटे रमेश की लड़की एक लाठी लेकर आगयी।
"दादू, अपने सामान में यह लाठी भी रख लेना"।
"वह किसलिये मेरी गुड़िया"?
"ताई जी मम्मी से कह रही थीं कि बाबूजी हमारे साथ रहेंगे तो चौकीदार भी नहीं रखना पड़ेगा"।
मौलिक एवम अप्रकाशित
अपने स्वार्थ के लिए पिता (अथवा माता) को बहला-फुसला कर ले जाना एक सत्य ही है| सोचने को मजबूर करती इस रचना के सृजन हेतु सादर बधाई स्वीकार करें आदरणीय तेजवीर सिंह जी सर| पहले मुझे सिर्फ चौकीदारी के लिए पिता को बहला-फुसला कर ले जाना ठीक नहीं लगा क्योंकि चौकीदार की तनख्वाह और पिता की जिम्मेदारी के खर्चे में बहुत अधिक अंतर नहीं होना चाहिये, लेकिन फिर देखा कि चौकीदार के साथ "भी" शब्द है जो अन्य कई बातों को इंगित कर रहा है| सादर,
हार्दिक आभार आदरणीय चंद्रेश जी।आपने लघुकथा के मर्म की गहराई को पहचाना।
हार्दिक आभार आदरणीय शेख उस्मानी जी।
हार्दिक आभार आदरणीय समर क़बीर साहब जी। आदाब।
हार्दिक आभार आदरणीय नीता कसार जी।
हार्दिक आभार आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ जी।
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