आदरणीय साथिओ,
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आ. उस्मानी जी किसी किसी की फ़ितरत में ही होता है वे दूसरो को निचा दिखाकर ही सुख का अनुभव करते है. इस विसंगति को दिखती आपकी सहज-सरल भाषा की रचना बहुत कुछ कह गई. बधाई आपको
//"यही समझ लिया होता, तो अपने आप को फिट और मेन्टेन करके रखतीं न!"//
यह एक पंक्ति पूरी कथा की जान है. दरअसल यह कथा एक मर्द और औरत की अतृप्त इच्छाओं के इर्द गिर्द बुनी गई है. अकरम अपनी बात जाहिर तौर पर कह देता है लेकिन उसकी पत्नी वही बात इशारों में कह जाती. उन दोनों का दुःख ही वास्तव में उस ख़ुशी की तरफ इशारा कर रहा है जिससे कि वे दोनों वंचित हैं. अकरम सभवत: "ऐसे ही सदा साझ धज के मेरी आँखों में रहो जवाँ तुम" की सोच का मालिक है, जो स्त्री को महज़ देह समझने की भूल कर बैठा है. समय के साथ सब चीज़ें बदलती हैं, अकरम शायद इस बात से अनजान है. मुझे स्व० राजेन्द्र कौर वन्ता की पंजाबी लघुकथा का बरबस स्मरण हो रहा है, उस कथा में एक सुन्दर महिला बैंक में केशिअर है. बैंक के ग्राहक अक्सर बिना गिने उससे पैसे लेकर जेब में डाल लेते हैं. यह सिलसिला बरसों से जारी था. लेकिन एक वक़्त ऐसा आया कि उसका एक "प्रशंसक" ग्राहक पैसे निकलवाने आया और पैसे लेने के बाद उसने एक बार नहीं बल्कि कई बार उस रकम को गिना. वह महिला परेशान हो जाती है कि ऐसा क्या हुआ कि लोग अब बिना गिने पैसे जेब में क्यों नहीं डालते. तब उसे अपने सफ़ेद होते बाल देखकर सत्य का आभास होता है. उस्मानी भाई की यह कथा भी कुछ कुछ राजेन्द कौर वन्ता जी की कथा वाला फ्लेवर ही लिए हुए है. मुझे यह कथा बेहद पसंद आई, कथानक में नयापन है, सम्प्रेषण उत्कृष्ट है, कहन में सादगी है, कहीं भी कोई बनावटीपन नहीं है, सन्देश एकदम स्पष्ट है. उससे भी महत्वपूर्ण कि रचना प्रदत्त विषय को एक अनूठे ढंग से परिभाषित करने में सफल रही है. गुमशुदा ख़ुशी की तलाश करते दो पात्रों के मनोविज्ञान का बारीकी से विश्लेषण करती हुई लघुकथा हेतु मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें भाई उस्मानी जी.
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