आदरणीय साथिओ,
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सादर धन्यवाद आ शशि जी |
आदरणीय कल्पना जी, प्रस्तुत लघुकथा का कथानक बढ़ीया है परन्तु अनकहा विषय को सार्थक नहीं कर रहा। लघुकथा का शीर्षक भी जल्दबाजी में चुना गया लगता है । इस बढ़ीया कथानक का प्रस्तुतिकरण भी बढ़ीया होना चाहिए था। शिल्प की दृष्टि से लघुकथा कुछ कमज़ोर रह गई । आशा है कि भविष्य में आपकी कलम से अच्छी रचनाएं निकलेंगी ।सादर
जी सर प्रयास करुँगी बहतर लिखने का | सादर |
सादर धन्यवाद आदरणीय सीमा जी आपके सुझाव सर आँखों पर | प्रयास करुँगी आपको भी पसंद आये ऐसा कुछ लिखने का |
बढ़िया रचना, और बेहतर हो सकती थी| बधाई आपको आ
अच्छी कथा है ! आ0 कल्पना जी
(कहा-अनकहा)
प्यारे दादा जी,
आज दिल बहुत उदास है, बर्फ से लदी चोटियाँ और चिनार के पेड़ रह रह कर बहुत याद आ रहे हैंI आपने मुझे कहा था कि आपको ख़त लिखता रहूँ, इसलिए कई घटनाओं के बारे में बताने का मन कर रहा हैI
ट्रेन जब यहाँ पहुँची तो लम्बे सफ़र के बाद भूख से परेशान था, इसलिए मैं अपना सामान उठाए बाज़ार में एक होटल पर पहुँचा, होटल वाले ने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा और कुटिल स्वर में बोला:
“मियाँ जी! तुम्हारे वाला खाना यहाँ नहीं मिलेगाI”
उसने मियाँ शब्द इस तरह चबाकर बोला कि वह मुझे ज़हर बुझे तीर की तरह महसूस हुआ, मैं कसमसाकर रह गया थाI खाना खाकर जाने के लिए मुड़ा तो पीछे से होटल वाले की आवाज़ सुनाई दी:
“अबे छोटू! इसके जूठे बर्तन ज़रा रगड़ रगड़ कर माँज लिओ बे!” बेगाना शहर बेगाने लोग, मैं सिर्फ कड़वा घूँट पीकर रह गया थाI
उस दिन होस्टल के हाल में क्रिकेट का मैच देखा जा रहा है, जब हमारी तरफ का कोई आउट होता तो दर्जनों आँखें मुझे घूरने लगतींI उस तरफ का कोई आउट होता तो मेरी तरफ देखकर भद्दे-भद्दे इशारे होने लगतेI दबी आवाज़ में बकी गई गालियाँ मुझ तक पहुँच रही थींI बाकी सब मैच का आनंद लेते रहे मगर मैं अपने कमरे में लेटा हुआ रात भर सुबकता रहा थाI
छुट्टी का दिन था, उस दिन कृष्ण भगवान का जन्म दिन मनाया जा रहा थाI बाज़ार में बहुत चहल पहल थीI लोगों के चेहरे खिले हुए थेI मैं चौक वाले मंदिर के अन्दर जाकर सब कुछ देखना चाहता था, मगर बाहर खड़े पुलिस वालों की जलती हुई निगाहों ने मेरे पाँव जकड़ लिएI
लेकिन आज तो हद ही हो गई दादा जीI टीवी पर दिखाया गया कि एक बम धमाके में बहुत से निर्दोष यात्रियों की जान चली गईI मैं यह भयानक मंज़र देख न पाया और कॉलेज के लॉन में जा बैठाI तभी पता नहीं कहाँ से अचानक बीस पच्चीस लड़के आए और मुझे घेर लियाI कोई माँ-बहन की गलियाँ दे रहा था, कोई हाथापाई पर उतारू हो रहा था और कोई मुझसे नारे लगाने को कह रहा थाI सब कुछ चुपचाप सुनने के इलावा मेरे पास चारा ही क्या था? लेकिन जैसे ही उनमे से किसी ने मुझे “तालिबान” कहा तो लगा जैसे हजारों महीन से कांटे सीधे मेरे दिल में उतर गए होंI मेरा विश्वास डगमगा रहा हैIमन में आता है कि सब कुछ छोड़ छाड़ कर वापिस आ जाऊँI क्या सरहद पार वाले ठीक ही तो नहीं कहते?
(आपकी गांधीवादी विचारधारा को ठेस न पहुँचे इसलिए मैं यह ख़त पोस्ट नहीं कर रहा हूँI)
पत्र के माध्यम से लघुकथा को लिखना , यह भी एक पाठशाला हुई है आदरणीय सर , क्या सरहद पार वाले ठीक ही तो नहीं कहते ? इस प्रश्न ने बहुत कुछ कह दिया है |
आपकी गाँधी वादी विचारधारा को ठेस न पहुंचे इसलिए मैं ख़त पोस्ट नहीं कर रहा हूँ | किस कदर दुखी है यह नौजवान जिसको बेवजह ही परेशां किया जा रहा है | बहुत ही लाजवाब कथा हुई है हमेशा की तरह एक अलग विषय, अलग सोच और अलग शैली में लिखी हुई |
बहुत बहुत बधाई आदरणीय सर आपको |
आपकी उपस्तिथि और स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय तल से आभारी हूँ आदरणीय रचना की इतने हृदयग्राही शब्द में प्रशंसा करने हेतु सच्चे अंतर्मन से धन्यवाद आपको आ० कल्पना भट्ट जी.
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