आदरणीय साथिओ,
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मुझे यह लघुकथा बहुत पसंद आई । प्रदत्त विषय से पूरी तरह न्याय करती यह लघुकथा आकारगत सीमा का अतिक्रमण करने का भ्रम सा उत्पन्न करती है परन्तु लघुकथा पठन के दौरान इसकी रवानगी देखते ही बनती है। प्रधान संपादक जी के कथन से सहमत कि लंबा संवाद कुछ बोझिल सा हो रहा है । सादर बधाई स्वीकार करें ।
सुरेन्द्रनाथ कुशक्ष्त्रप भैया ,बहुत बढिया सन्देश प्रद लघु कथा हुई श्राद्ध को लेकर जो नित नये आडम्बर जुड़ते जा रहे हैं गरीब लोगों के तो वश में भी नहीं होता इतना खर्चा करना क्या उनके पुरखे स्वर्ग नहीं जाते ? इन सब रूढ़िवादिता व् अंधविश्वास को खत्म कर ने के लिए एक नया विकल्प लेकर आई है ये लघु कथा .दिल से बहुत बहुत बधाई लीजिये .
मेरे मम्मी पापा की पदचाप और आवाज निरन्तर मेरे कानों में गूँजती रहें। वे हमेशा मेरे आँखो के सामने रहें।'// वाह , बहुत सारगर्भित कथा कही है आपने , प्रदत्त विषय को सार्थकता से उभारती हुई हार्दिक बधाई प्रेषित है आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह जी
हार्दिक बधाई आदरणीय सुरेंद्र नाथ "कुशक्षत्रप" जी।रूढ़िवादी रीति रिवाज़ों और थोथे ढकोसलों पर कटाक्ष करती प्रेरक एवम संदेश प्रद प्रस्तुति।
लघुकथा---नसीहत(फरिश्ते )
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घंटी की आवाज़ सुनते ही नरेश ने बेटे सुरेशको आवाज़ देकर कहा"देखो बाहर कौन है "
सुरेश ने पास आ कर कहा "आप मुझ से झूठ क्यों बुलवाते हैं ,पहले नाम और काम पूछो फिर आपसे पूछ कर गेट खोलूं "
नरेश ने सुरेश को डांटते हुए कहा "जैसा कहा जाए वैसा करो " सुरेश ने फिर हिम्मत दिखाते हुए कहा
" झूट बोलना पाप है,बच्चे मासूम फरिश्तों की तरह मन के सच्चे होते हैं ,क्या यह किताबों में हमें गलत पढ़ाया जाता है "
यह सुनते ही नरेश का पारा नीचे उतर गया वह प्यार से बोला "बेटा दीवाली पर दोस्तों से रुपये उधार लिए थे जो
में जुए में हार गया ,वह आ गए तो मुहल्ले में इज़्ज़त खराब हो जाएगी"
सुरेश परिस्थितियों को समझ कर बाहर गया ,उसके कुछ दोस्त गेट के बाहर खड़े थे ,पिता से पूछ कर उन्हें ड्राइंग रूम में बिठा दिया ।माताजी ने बच्चों को मिठाई खाने को दी ,उसके बाद सुरेश के पिता ने आकर जैसे ही बच्चों को गिफ्ट देकर आशीर्वाद दिया ,उन बच्चों में एक बच्चा भी था जिसके पिता से नरेश ने रुपये उधार लिए थे ,वो फौरन बोल पड़ा"एक घंटा पहले मेरे पिता जी तुम्हारे घर आये थे तब सुरेश तुम ने उनसे बोला था "पिता जी घर पर नहीं हैं ?"
(मौलिक व अप्रकाशित )
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