आदरणीय साथिओ,
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आ. लक्ष्मण लडीवाला जी बढ़िया रचना विषय पर, बधाई आपको
अच्छी लघुकथा है आ. लक्ष्मण जी. मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. आ. योगराज सर की बातों से मैं भी सहमत हूँ. सादर.
अच्छा प्रयास विषय पर, बधाई आपको आ लक्ष्मण लड़ीवाला जी
"ट्रायलरुम"
मॉल के ट्रायलरूम में खड़ी वह अपने नितांत सौंदर्य को निहार रही थी..अपने पसंदिता शॉर्ट टॉप और शॉर्ट स्कर्ट में। उसके कानों में माँ के साथ संवाद के शब्द बार-बार टकराने लगे...
"अब चाहे कुछ भी हो, मैं भी नये फैशनेबल कपड़े पहनूँगी ही पहनूँगी. मैं चाहे कितना भी अच्छा काम कर लू ऑफ़िस में सब लोग मुझे गाँव की गवार से ही नवाज़ते हैं." सोना ने माँ से कहा था।
"हूsss"
"ये सिर्फ़ हूsss क्यों? मेरी रूम मेट्स को भी देख रही हो ना आप. उनके घर में कोई कुछ ऐतराज नहीं करता" सोना ने नाराजी से कहा था।
"आज तक सादगी ही तुम्हारी पहचान रही है बेटा और हमारी मर्यादा, हमारे संस्कार... सुधा मूर्ति को जानती हो ना.." माँ ने सादगी से कहा था किंतु उस पर तो धुन सवार थी फैशन की। वह भी अपनी जीद पर अड गई।
शब्द काहे के माँ की दी जाने वाली वार्निंग ही थी वो तो। वह जानती थी कि माँ उसके भले के लिए ही कहती है फिर भी उसे ये सब सुनना हमेशा चुभता था। कई बार विद्रोह कर उठने का मन किया था उसका किंतु अपने पर निश्छल प्रेम करने वालों का दिल दुखाना उससे नहीं बन पाया.
इसी के साथ उसे कॉलेज के कोने पर खड़े होकर लड़कियों की तरफ़ विकृत नज़रों से निहारते आवारा लोगों की गैंग भी याद आ गई। अपने संपूर्ण ढके शरीर पर घूमती गंदी नज़रों को याद करते हुए उसने अपना सलवार-कमीज फिर से पहना और बालों को कस कर पिछे बाँध लिया।
मन ही मन उन्हें एक-एक तमाचा जडने का भी प्रण करते हुए ट्रायल रूम से बाहर निकल आई..!!
मौलिक व अप्रकाशित
बढ़िया प्रेरक रचना विषय पर, बधाई आपको आ नयना जी
हार्दिक बधाई आदरणीय नयना(आरती)कानिटकर जी। अच्छी लघुकथा।
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