आदरणीय साथिओ,
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हार्दिक बधाई आदरणीय डॉ टी आर सुकुल जी।बेहतरीन लघुकथा।
आदरणीय शुक्ल जी आपने विषयानुकूल बहुत ही आकर्षक रचना पटल पर रखी है बहुत बहुत हार्दिक बधाई
जड़ों की ओर--
उसने उठने के बाद अपने फोन को चेक किया, कोई मिस्ड काल या मैसेज नहीं था| मन फिर से उदासी के भंवर में गोते लगाने लगा, पता नहीं कितने दिन और ऐसे ही बिताना पड़ेगा| वैसे दीदी ने तो कहा था कि बाबा भी तुम्हें उतना ही याद करते हैं जितना तुम करते हो, लेकिन उसे अपनी तरफ से कहने की हिम्मत नहीं थी| आखिर पिछले कुछ महीनों में उसने बाबा की कई फोन कॉल्स को लिया ही नहीं था| लेकिन अब गुस्सा शांत हो रहा था और सबसे बड़ी चीज थी गाँव छोड़ते समय माँ का उदास चेहरा, जो उसे अब बेतरह साल रहा था|
"तुम्हारे साथ के पढ़े सभी लड़के कहीं न कहीं नौकरी कर रहे हैं लेकिन तुम क्यों गांव पर ही रहना चाहते हो? इस खेती में कुछ नहीं होगा"| बाबा के इस सवाल का जवाब देने की उसने कई बार कोशिश की लेकिन उन्होंने सुनने से इंकार कर दिया| बाबा को शायद अपना अतीत दिखता था और उसके गांव में ही रहकर कुछ करने की इच्छा उनको छलावा ही लगती थी|
"तुझे पालने में कितनी दिक्कते हुई हैं, तू चाहता है कि तेरे भी बाल बच्चे उसी तरह पलें| हमारी चिंता का बहाना बनाकर यहाँ मत रुक, जाकर कोई अच्छी भली नौकरी ढूंढ़ और फिर अपनी गृहस्थी बसा", बाबा ने अपना फैसला सुना दिया था| आखिर क्यों वह गांव पर ही रहकर कुछ नहीं कर सकता, उसे समझ नहीं आता था|
उस दिन सुबह उठते ही बाबा ने टोक दिया तो उसने अपना आपा खो दिया "आप यही चाहते हैं न कि मैं आपकी नज़रों से दूर हो जाऊँ| ठीक है, आज ही मैं निकल जाऊँगा और फिर वापस नहीं आऊँगा"| और वह उस दिन निकल गया लेकिन बाबा उसके सामने नहीं आये, शायद उसके सामने अपने आप को कमजोर नहीं करना चाहते थे|
"अब तो तू कुछ करने लगा है, एक बार गांव जाकर माँ बाबा को देख आ", दीदी के फोन ने उसे अपनी हिचक तोड़ने पर मजबूर कर दिया | अब उससे रहा नहीं गया और उसने बाबा को फोन लगा ही दिया| बाबा के फोन पर बजती हर घंटी जैसे उसे उनके पास, बहुत पास लेती जा रही थी|
मौलिक एवम अप्रकाशित
आदरणीय विनय कुमार जी, बहुत सुंदर भावों को व्यक्त करती रचना के लिए हार्दिक बधाई.
बहुत बहुत आभार आ ओम प्रकाशजी
उत्कृष्ट ! पूरी तरह विषय से न्याय करती अ० विनय कुमार जी . मेरी राशि राशि बधाई
बहुत बहुत आभार आ डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी
जनाब विनय कुमार साहिब ,प्रदत्त विषय पर सीख देती सुन्दर लघुकथा हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं।
बहुत बहुत आभार आ मोहतरम तस्दीक़ अहमद खान साहब
आदरणीय विनय कुमार जी आदाब,
कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है । प्रदत्त विषय का भली-भाँति चित्रण करती लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
बहुत बहुत आभार आ मोहतरम मोहम्मद आरिफ़ साहब
गांवों में रोज़गार की समस्यायों और बुज़ुर्गों की चिंताओं के बीच युवाओं की दुविधाओं को विषयांतर्गत उभारती बेहतरीन रचना के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद मुहतरम जनाब विनय कुमार साहिब।
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