आदरणीय साथिओ,
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आदरणीय सिंह साहब जैसे आपको मेरी रचना पढ़ कर अनुभूति हुई ,वैसी ही आपकी टिप्पणी पढ़ कर मुझे हुई।सादर आभार
आदरणीय राहिला जी बहुत सुंदर रचना. बधाई .
बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय ओम प्रकाश सर जी! सादर
आद0 राहिला जी प्रदत्त विषय पर बेहतरीन लघुकथा कही आपने, बधाई हाजिर है
***नीड़ की ओर ***
शीर्षक आधारित
""""अपने पराये """"
“ खाना लगा दूँ आपका “ घुटनों पर हाथ रखे थकान को अपनी बनावटी मुस्कान के पीछे छिपाते हुए उमा ने श्यामदास जी से पूछा |
“ अब तो मान जाओ उमा , माना नजर कमजोर है मेरी लेकिन तजुर्बा नहीं मै फिर कह रहा हूँ रूबी वैसी नही है जैसी तुम उसे समझ रही हो “ अखबार को एक तरफ रख श्यामदास जी ने अपने चश्में पर लगी धूल साफ़ करते हुए कहा |
“ सारी दुनिया एक सी नहीं होती जी , बचपन से जानती हूँ उसे ,सगी मौसी से ज्यादा मानती है मुझे वो ” अपनी नज़ारे छिपाते हुए उमा जी ने जवाब दिया |
“ अच्छा....यही बात जरा नजर मिला कर बोलो मुझे, तुम खुद भी जानती हो लेकिन मानना नहीं चाहती " श्यामदास जी ने उमा के चेहरे को घूर कर देखा l
" आप तो नाहक ही ...." कुछ बोलने ही लगी थी उमा जी कि श्यामदास जी फ़िर बोले,
"मौसी मौसी बोल कर जिस झूठे प्यार का दिखावा वो करती है ना.. उसका पर्दा एक दिन जरुर हट जायेगा तब पता चलेगा तुम्हे “ श्यामदास जी की आवाज क्रोध के कारण तेज हो गई थी |
उमा जी ने शब्द उनके भीतर कही दब से गए पर दो मोती आँखों से लुढक कर चुगली कर गए |
असपष्ट स्वर फूटे उमा जी के मुंह से “ यहाँ रुबी की बेटी के साथ मन लग जाता है जी वहां तो कोई भी नहीं बचा अब ...“ |
" जानता हूँ उसकी बेटी का मोह रोकता है तुम्हे “ श्यामदास जी ने अपने क्रोध पर काबू करते हुए कहा |
उमा ने कुछ जवाब न देते हुए बस अपना सर झुका लिया |
श्यामदास जी ने उनका हाथ अपने हाथो में ले कर कहा “ अपना इकलौता बेटा पराया कर दिया इस शहर की आबो हवा ने , जब अपने खून को हम देहातीयो को अपनाने में शर्म आती है तो रूबी तो तुम्हारी दूर की भांजी है, सोचो वो हमें अपना इतना खर्चा कर यहाँ शहर मे क्यों लाएगी " श्यामदास जी को बस गीली आंखो से देखाती रही उमा जी l
" उसको तो बस एक मुफ्त की आया की जरूरत थी जो उसके और उसके पति के ऑफिस जाने के बाद उनकी बेटी को संभाल सके " कहते हुए श्यामदास जी कुर्सी पर बैठ गये l
"देखना जी समय आने पर अपना बेटी वाला फर्ज निभायेगी वो " ऊमा जी ने एक और प्रयास किया l
" हाँ हाँ...जब वो बेटी के बीमार होने पर माँ का फर्ज निभा सकती है तो तुम्हारे बीमार होने पर बेटी का फर्ज कैसे भूल सकती है , तभी तो इतने तेज बुखार में भी तुमको काम की हिदायत दे चली गई ऑफिस “|
श्यामदास जी का स्वर व्यन्गात्मक था l
इतना सुनते ही लाख कोशिश से रोका हुआ आंसुओ का बांध उमा की आँखों से हार गया और श्यामदास जी के कंधे पर टूट गया |
उन्होंने उमा के आंसू पोंछते हुए कहा “ आओ उमा, लौट चलते है अपने छोटे से नीड़ की तरफ वापस गाँव जहाँ परायों में भी सच्चा अपनापन बाकी है बनावटी नही , वहां परायो में प्यार बाटेंगे और अपने हिस्से का प्यार सम्मान कमाएंगे “|
रेणुका
मौलिक एवं अप्रकाशित
प्रदत्त विषय पर सुन्दर कथा ,कसे हुए शिल्प के साथ हार्दिक बधाई आदरणीया रेनुका जी
आडंबर और हक़ीक़त चित्रित करती बुज़ुर्गों की पीड़ा उभारती बढ़िया रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया रेणुका चित्कारा जी।
हार्दिक बधाई आदरणीय रेणुका चितकारा जी।बहुत लाज़वाब लघुकथा।
प्रदत्त विषय पर अच्छी लघुकथा कही है आपने आ. रेणुका जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. वैसे मेरे हिसाब थोड़े से संपादन और शब्दों को कम करने की गुंजाईश मौजूद है. सादर.
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