आदरणीय साथिओ,
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गुरू का मान सम्मान इसमें है किशिष्य उनके सपने को साकार करें।बहुत उम्दा कथा है,बधाई आद० जानकी वाही जी ।
हार्दिक आभार आ.नीता कसार जी।
बढ़िया कथा हुई है सखी, ह्रदय से बधाई !
आदरणीय जानकी वाही जी बढ़िया लघुकथा के लिए बधाई .
हार्दिक बधाई ।
आदरणीय जानकी जी, प्रस्तुत लघुकथा विषय को परिभाषित करने के साथ-साथ स्वतंत्र रूप से भी एक उम्दा लघुकथा है । शीर्षक चयन भी बढ़ीया है । / बड़े शहर में पली-बढ़ी थोड़ी भी परेशानी विश्वव्यापी समस्या बन जाती थी उसके लिए। / यह पंक्ित लेखकीय प्रवेश का अाभास दे रही है । इस सार्थक लघुकथा प्रेषण हेतु असीम शुभकामनाएं ।
हार्दिक आभार आ.रवि सर जी, मैं आपकी बात समझ गई उस पंक्ति को बदल दूँगी।इसी तरह मार्गदर्शन करते रहियेग।इससे हमारा भी मनोबल बढ़ता है।सादर
बहुत बढिया लघुकथा कही है आपने सखी जानकी जी | हार्दिक बधाई |
कड़वी हकीकत (लघुकथा)
अस्पताल में बेटियों से घिरे रवि को शुभा ने मोबाइल थमाया। वीडियो कॉलिंग के द्वारा उनका बेटा उनसे मुखातिब होते ही बोल पड़ा
"पापा आप अपना ध्यान रखिएगा। छुट्टी नहीं मिल पाने के कारण मैं नहीं आ पा रहा हूँ। डॉ. साहब से बात हो गयी है। चिंता की कोई बात नहीं है।"
रवि की हालत ज्यादा बात करने लायक न थी, इसीलिए उसने तुरंत मोबाइल शुभा को वापस कर दिया लेकिन उसकी आँखों के सामने पूरा फ्लैश बैक चल रहा था।
चार लड़कियों के पैदा होने के बाद डॉ. ने जब कह दिया था कि शुभा अगर अब माँ बनी तो उसकी जान नहीं बचेगी तो भी एक अदद पुत्र की चाहत में उसने शुभा की जान को खतरे में डाल दिया था। खैर! ईश्वर का शुक्रिया.....।
बेटे को पढ़ाने लिखाने में उसने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। यहाँ तक कि लड़कियों को ज्यादा नहीं पढ़ाया और कम उम्र में ही शादी कर दी, ताकि कम खर्च में सब निपट जाएँ और बेटे के पढ़ाई में पैसे की कोई कमीं न आ पाए। बेटा भी पढ़ने में बहुत अव्वल दर्जे का था। यहीं कारण था कि उम्मीदों को भी पर लग गए थे।
वह अपनी अधूरी इच्छाओं को बेटे के माध्यम से पूरी करना चाहता था। रवि को हमेशा लगता कि उसका बेटा एक दिन जरूर बड़ी कामयाबी हासिल करेगा और हुआ भी ऐसा। बेटे को एम बी ए करने के दौरान ही एक मल्टीनेशनल कंपनी में विदेश में जॉब मिल गयी थी।
जिस दिन बेटे की नौकरी की खबर मिली, उस दिन वह फूले नहीं समा रहा था। पूरे मोहल्ले में जो भी उससे मिलता, बड़े गर्व से अपने बेटे की सफलता की कहानी बताता। मन मे ऐसा लगने लगा कि अब बुढापा बड़ी आसानी से कट जाएगा। बेटे को पढ़ाने में जितनी एड़ियां घिसी हैं, बेटा कामयाब होकर अवश्य उसपर मरहम लगाएगा।
पर हुआ यूँ कि बेटा नौकरी के सिलसिले में जो एक बार विदेश गया, वहीं का हो कर रह गया। अब तो केवल वीडियो कॉलिंग के जरिये ही सप्ताहांत बात हो पाती है। शायद ऊंची उड़ान बेटे को रवि से बहुत दूर उड़ा ले गयी थी।
रवि धीरे धीरे फ्लैश बैक से बाहर आ रहा था और आँखों से आँसुयों की धार भी। इत्तेफाक यह कि उन आँसुयों को पोंछने के लिये बेटे का रुमाल नहीं, बेटियों का आँचल रवि के गालों पर था।
मौलिक व अप्रकाशित
विषयांतर्गत बढ़िया रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी। हालांकि रचना पर और समय दिया जाना चाहिए।
लघुकथा पर आपकी उपस्थित होकर प्रतिक्रिया से नवाज़ने के लिए सादर आभार।
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