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इस अतुकांत कविता के माध्यम से बहुत से पहलुओं को छुआ गया है जिससे इसका प्रभाव बहुगुणित हुआ है भाई उस्मानी जी. हार्दिक बधाई स्वीकार करें.
मेरी इस कविता पर समय देकर अनुमोदन और हौसला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब योगराज प्रभाकर साहिब। क्या आप इस पर ख़ूबसूरत ग़ज़ल कहकर हमें लाभान्वित करेंगे?
आद0 शेख शहज़ाद उस्मानी साहब सादर अभिवादन। बहुत बेहतरीन अतुकांत।विषय को पूर्णतया परिभाषित करती। बहुत बहुत बधाई आपको
मेरी इस अतुकान्त कविता के अनुमोदन और हौसला अफ़ज़ाई के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप ' साहिब।
खेत खलिहान को प्रतीकों के रूप मे लेकर कई सामयिक मुद्दों पर कटाक्ष करते हुए प्रभावशाली अतुकान्त लिखा है आपने हार्दिक बधाई आदरणीय उस्मानी जी
"गजल"
22 22 22 22
खेत गये,खलिहान गये हैं
बिकते ढ़ेर मकान गये हैं।1
रोजी-रोटी आँख मिचौनी
शह्ऱ पहुँचकर जान गये हैं।2
माँ-बहनों के गहने बिकते
पुरखों के सामान गये हैं।3
ढ़ोते झोली, पिटते भी हम
कितने सब अरमान गये हैं।4
ढ़ोढ़ा-मंगरू कहलाये थे
कुछ हैं हम,सब मान गये हैं।5
"मौलिक व अप्रकाशित"
आदरणीय मनन कुमार जी आदाब,
बहुत ही प्यारी ग़ज़ल । हार्दिक बधाई स्वीकार करें । बिक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे ।
आदाब आदरणीय आरिफ जी,शुक्रिया।
जनाब मनन साहिब ,अच्छी ग़ज़ल हुई है ,मुबारक बाद क़ुबूल फरमाएं।
ग़ज़ल के हर शेर का विषय अलग अलग होता है ,खेत और खलिहान का
ज़िक्र सिर्फ मतले में ही हुआ है ।
आभारी हूँ आदरणीय तसदीक जी।रोजगारोन्मुख शख्स की व्यथा-कथा के एक पायदान पर खेत और खलिहान भी हैं।
आदरणीय मनन जी कम से कम शब्दों में बहुत बेहतरीन रचना के लिए बहुत बहुत बधाई
आभारी हूँ आदरणीय छोटेलाल जी।
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