आदरणीय साथिओ,
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तीन-चार छोटे और चुस्त-चुटीले संवादों में विभक्त करने से बात बन जाएगी महेंद्र कुमार जी.
त्वरित मार्गदर्शन हेतु आपका बहुत-बहुत धन्यवाद सर। अपेक्षित सुधार करता हूँ। सादर।
जनाब महेन्द्र कुमार जी आदाब,प्रदत्त विषय को सार्थक करती उम्दा लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
सादर आदाब आदरणीय समर कबीर सर। आपकी इस टिप्पणी के लिए हृदय से आभारी हूँ। बहुत-बहुत धन्यवाद। सादर।
बेहतरीन लघु कथा के माध्यम से भ्रष्ट प्रशासनिक व्यवस्था का उल्लेख,बधाई स्वीकार कीजिएगा सरजी.
आदरणीय अपराध जगत की विसंगतियों पर लिखने का साहस कम ही लेखकों ने किया है, लेकिन आपने इस अति संवेदनशील विषय पर कलम चलाई है तो आपको बधाई देना चाहेंगे। आपने लघुकथा में यह भी बता दिया कि आखिरकार समाज में अपराधों पर नियंत्रण क्यों नहीं लग पा रहा है। साहित्य की अधिक जानकारी नहीं फिर भी कहना चाहेंगे कि संपादक महोदय द्वारा दिये गए मार्गदर्शन उपरांत आपकी लघुकथा और भी आगे तक जाए शुभकामनाएं।
आपकी इस उत्साहवर्धक और समीक्षात्मक टिप्पणी के लिए हृदय से आभारी हूँ आदरणीय आशीष जी। बहुत-बहुत धन्यवाद। सादर।
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया बबिता जी। हार्दिक आभार। सादर।
क्योंकि मैंने गोट ही ऐसी बिछायी है।” थानेदार ने तफ़्सील से अपनी योजना बतानी शुरू की कि वह कैसे उन दोनों के पास अलग-अलग गया और कैसे दोनों के पास चारों विकल्प रखे, “देखो, तुम्हारे पास केवल चार विकल्प हैं। पहला, अगर तुमने यह मान लिया कि तुम दोनों ने मिलकर उस आदमी का ख़ून किया है और अगर तुम्हारे साथी ने नहीं माना तो तुम्हें फ़ौरन छोड़ देंगे लेकिन तुम्हारे साथी को दस साल की जेल होगी। दूसरा, अगर तुमने नहीं माना कि तुम दोनों ने मिलकर उस आदमी का ख़ून किया है और अगर तुम्हारे साथी ने यह मान लिया तो तुम्हें दस साल की जेल होगी और तुम्हारे साथी को फ़ौरन छोड़ दिया जाएगा। तीसरा, अगर तुम दोनों ने ही मान लिया कि तुम दोनों ने मिलकर उसका ख़ून किया है तो मैं ऐसा केस बनाऊँगा कि तुम दोनों को केवल तीन साल की जेल होगी या यह भी हो सकता है कि कोई मुफ़ीद जज मिल जाए तो हम तुम दोनों की सज़ा ही माफ़ करवा दें। और चौथा, अगर तुम दोनों में से किसी ने नहीं माना कि तुम दोनों ने उसका ख़ून किया है तो तुम दोनों को मैं ख़ुद कम से कम सात साल की जेल करवाऊँगा। बाकी तुम ख़ुद समझदार हो। तुम्हारे पास सिर्फ़ सुबह तक का समय है।”
क्या इतना बड़ी स्टेटमेंट ठीक होगी लघुकथा में? सादर
"माँ आप अभी से किचेन में क्या कर रही हैं ? मैं आ गयी हूँ । अब आप बाहर आ जाइए ।" दरवाजे से अंदर आते ही शारदा जी को किचेन में लगी देख कर उनकी बड़ी बहू ने आवाज लगाया ।
"कुछ नहीं आरती, तुम आ रही होगी तो सोचा चाय के साथ थोड़े पकोड़े ताल लूँ । आज बारिश हुई है तो चाय और पकोड़ों खाके का मजा आ जाएगा "
"नहीं-नहीं आप बाहर आइए, अब मैं आ गयी हूँ न, मैं करती हूँ ।"
"अरे दीपाली, तुम्हारी देरी हो रही है, ये काम छोड़ो । तुम जाओ मैं कर दूँगी ।"
"बस दो मिनट मिनट में हो जाएगा मम्मीजी ।" छोटी बहू बोली।
"नहीं नहीं बेटा, तुम निकलो । मैं तो खाली ही बैठी हूँ । मैं कर दूँगी । तुम जाओ – bye ।"
शारदा जी के घर में लगभग हर दिन का यही नजारा होता है । दो बहुओं के साथ शारदा जी का बहुत अच्छा समीकरण था । बहुओं के साथ उनके व्यावहार को देख कर उनके घर आने वालों को सहसा यकीन नहीं होता कि आरती और दीपाली उनकी बहुएँ हैं या बेटियाँ । ऐसे ही किसी मौके पर उनकी पड़ोसन ने उन्हें बोल ही दिया – "शारदा जी आपने अपनी बहुओं को बहुत सर चढ़ा रखा है । इतना ज्यादा घर के कामों में अपने आप को उलझाए रखोगी तो कल को वो लाट साहब की तरह बैठी रहेंगी और तुम घर की नौकरनी की तरह घर के कामों में पिसती रहोगी । आखिर तुम भी तो दफ्तर जाती हो तो तुम्हें भी तो थकान होती होगी ।"
पड़ोसन की बात पर शारदा जी मुस्कराईं । फिर बड़ी सी सौम्यता से उन्होने कहा – "सुशीला जी, आप बिलकुल ठीक कह रही हैं । मैं भी तो दफ्तर जाती हूँ तो थकान तो मुझे भी होती होगी । लेकिन ये भी तो देखिये मेरा दफ्तर घर से बहुत थोड़ी दूरी पर है जब कि उन्हें 28 केएम और 32 केएम का सफर कर के दफ्तर जाना पड़ता है । दफ्तर पहुँचने के लिए मैं उन दोनों लड़कियों के घर से निकालने के बहुत बाद घर से निकलती हूँ और शाम को भी उनके दफ्तर से आने के बहुत पहले घर पहुँच जाती हूँ । इस तरह वो दोनों मुझसे बहुत ज्यादा थकी हुयी होती हैं । फिर ये भी तो सोचिए, मैंने अपने बेटों को जिस तरह उच्च शिक्षा दी है, उनके माँ बाप ने भी उन्हें उच्च शिक्षा दी है । तो अगर मैं अपने बेटों से ये उम्मीद नहीं करती कि वो दफ्तर से आने के बाद घर का काम करें तो बहुओं से भी तो ये आशा नहीं रखनी चाहिए । अगर मेरी बेटियाँ होती तो क्या मैं उनसे भी ऐसी ही आशा रखती । फिर बेटी और बहू में तो मुझे कोई फर्क नजर नहीं आता । मुझे तो वो दोनों ही अपने बेटों जितनी ही प्यारी है ।"
सुशीला जी से फिर कुछ कहते नहीं बना ।
आदरणीय सामाजिक परिवेश में आपने अच्छा लिखने का प्रयास किया है, हमारी शुभकामनाएं हैं कि ये लघुकथा उन परिवारों तक अवश्य पहुंचे और वे सभी जागरूक हों ताकि परिवार में मनभेद, विघटन की स्थिति निर्मित न हो। सभी परिवार सुखी हों, लघुकथा का भी यही उद्देश्य मालूम होता है। बधाई
अच्छी संदेशप्रद लघुकथा है आदरणीया नीलम उपाध्याय जी। हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए। कुछ टंकण त्रुटियाँ हैं जैसे : //बड़ी बहू ने आवाज लगायी।// उन्हें देख लीजिएगा। साथ ही, किलोमीटर देने की भी मेरे ख़याल से कोई आवश्यकता नहीं थी वो भी दोनों के लिए अलग-अलग। शीर्षक शायद जल्दबाज़ी में छूट गया है। एक बार पुनः बधाई। सादर।
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