आदरणीय साथिओ,
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वाह. वाह.
आस्था किस प्रकार दिखावे की वस्तु बन कर रह गई है उसे क्या खूबी से उभारा आपने. बिना भेदभाव बिना प्रपंच के और सरल शब्दों में.
प्रभावी कथा. बधाई प्रतिभा जी
हार्दिक आभार आदरणीय अजय गुप्ता जी प्रथम उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए
बहरी आडंबर बनी आस्था की वस्तुओं के प्रति करारा कटाक्ष,बेहतरीन रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार कीजियेगा आदरणीया प्रतिभा दी।
हार्दिक बधाई आदरणीय प्रतिभा जी। बेहतरीन लघुकथा ।दिये गये विषय का इतनी सुंदरता से निर्वहन।बहुत बढ़िया।
हार्दिक आभार आदरणीय
हार्दिक आभार आदरणीया बबीता जी
दिए गए विषय को बहुत ख़ूबसूरती से व्यक्त करती हुई बेहतरीन लघुकथा ,बहुत -बहुत बधाई आदरणीय प्रतिभा जी ,सादर
समसामयिक वातावरण पर बेहतरीन शीर्षक और कथ्य के साथ बेहतरीन सृजन। हार्दिक बधाइयाँ मुहतरमा प्रतिभा पाण्डेय साहिबा। कृपया ध्यान दें मेरेे नज़रिए पर भी :
1-/जमे हुए थे/= /सियासी गुफ़्तगू में डटे हुए थे।/
2- /स्पेयर/=/स्पेअर/
3- /थूक गटकता/ =/थूक गुटक कर/ (वैसे इसकी आवश्यकता क्यों है?)
4- /दाँव पेंचों /= /दाँव-पेंचों /
5- /दो तीन/=/दो-तीन/
6- /क़ुरेशी/= /क़ुरैशी/
7- /एक दो/= /एक-दो/
हार्दिक आभार आदरणीय उस्मानी जी
मुह तरमा प्रतिभा साहिबा, प्रदत्त विषय पर सुंदर लघुकथा हुई है मुबारकबाद क़ुबुल फरमाएं l
हार्दिक आभार आदरणीय तस्दीक जी
बढिया कथा, हमारी आस्थाओं में दिखावे के जंग अत्यंत दुखदायी हैं।हार्दिक बधाई आपको
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