आदरणीय साथिओ,
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आदरणीय बबिता गुप्ता जी आप की प्रतिक्रिया मेरी अमूल्य धरोहर हैं. इस हेतु आप का हार्दिक आभार
एक डॉक्टर का यूँ अंधविश्वासी होना मुझे तो बहुत अटपटा लग रहा है। ऊपर से बेटे की ना-नौकर के बावजूद डॉक्टर का बार-बार आग्रह करना भी उचित नहीं लग रहा। डॉक्टर साहिब आखिर ऐसा क्या करना चाहते हैं आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय भाई जी? और वे जो कह रहे हैं उसे करने के बाद भी क्या गारंटी है कि रोगी ठीक होगा ही? जो बेटा डॉक्टर को बार-बार मना कर रहा है, वह अचानक ही राज़ी भी हो जाता है, बात कुछ जम नहीं रही है। रचना में स्पष्टता का अभाव है।
आदरणीय योगराज प्रभाकर जी भाई साहब आप की प्रतिक्रिया और बेहतरीन सुझाव मेरी अमूल्य धरोहर हैं. इस हेतु आप का हार्दिक आभार. इस विषय में जरूर विचार-मन्थन करूँगा.
आदरणीय ओमप्रकाश जी आदाब,
लघुकथा का प्रयास अच्छा है । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
प्लेसबो इफ़ेक्ट पर यह एक अच्छी लघुकथा हो सकती थी आदरणीय ओमप्रकाश क्षत्रिय जी पर स्पष्टता की कमी के कारण ऐसा नहीं हो सका। अस्पष्टता का कारण?
1. प्लेसबो इफ़ेक्ट का लघुकथा में कोई भी हिंट न होना।
2. प्लेसबो इफ़ेक्ट का लघुकथा में प्रभावी प्रयोग न होना।
3. डॉक्टर मरीज़ को कहाँ भेजना चाहता था, इसका लघुकथा में कोई भी उत्तर न होना।
4. लघुकथा का शीर्षक भी साधारण है। इसकी जगह यदि आप इसका शीर्षक "प्लेसबो इफ़ेक्ट" रखते तो यह कहीं अधिक प्रभावी होता।
सादर।
आस्था के चक्रव्यूह
"आहा! देशी घी की खुशबू! तुम लोग हलवा खा रहे हो!" हॉस्टल के कमरे में घुसते ही श्रद्धा की नाक से शुद्ध घी के हलवे की महक जा टकराई, ललचाई नज़रों से सखियों के हाथ ताड़ती श्रद्धा को देख सभी लड़कियाँ हँस पड़ी।
"असली बामन है मीठे की महक कोसों दूर से सूंघ लेती है।" एक ने कहा और बाकी सब ठहाका मार कर हँस पड़ीं।
"पता भी है ब्राह्मण कुल में जन्मते ही मीठा खाना नैतिक दायित्व हो जाता है।" श्रद्धा ने खिलखिलाते हुए कहा और हलवे पर टूट पड़ी।
"गुरुद्वारे से आया है तेरा धर्म भ्रष्ट तो नहीं हो जाएगा?" उसका हाथ मुंह तक पहुंचने से पहले ही कलाई से पकड़ कर यशलीन शरारत से मुस्कुराई। तभी देर से हलवा खाने में जुटी हुई तब्बसुम ने श्रद्धा का हाथ छुड़ाया और गम्भीर स्वर में बोली,
"खाने का कोई मजहब नही होता है। खाने का एक ही मजहब है वो है भूख और जुबान की तसल्ली।"
ठहाकों के बीच पूरा हलवा लगभग चट हो चुका था। घेरा बनाकर बैठी लड़कियों में से ही एक ने जूँठें दौने पैर मार कर परे कर दिए।
जिसे देख यशलीन की आँखों में गुस्से की लकीर डोल गई।
'पैर क्यों लगा रही है यार उसमें प्रशाद था।"
"था! अब तो नहीं है।"
"कुछ दाने तो होंगे न! पैर लगाने का क्या मतलब?" यशलीन के कर्कश स्वर से मस्ती के बादल छटने लग गए।
लड़कियाँ उठकर अपने अपने कमरों की ओर बढ़ने लगी।
"वैसे तो बहुत बड़े दिल वाली बनती है ज़रा सा पैर लगाने से कितना भड़क गई।"
"है तो आखिर सरदारनी ही न!" मुंह बना कर एक ने मन की बात बोल ही दी।
"हम लोग तो ऐसे कट्टर नहीं हैं होस्टल दूसरा घर है हमारा।" कहते हुए तब्बसुम ने अपने गले में लटकते स्टॉल से सिर ढका और अपने कमरे की ओर जाने लगी।
"अरे आ जाओ मेरे कमरे में बैठ जाओ तुम लोग भी।"
साथ वाली लड़की ने अपने कमरें के सामने उनको रोकते हुए कहा।
"नहीं नहीं, अज़ान हो गई है अब, बाद में मिलते हैं।"
साथ ही खड़ी शमा का हाथ पकड़ते हुए लपक कर अपने कमरे की ओर बढ़ गईं।
मौलिक एवं अप्रकाशित
बहुत सुंदर रचना विषय पर आदरणीय सीमा जी,बधाई आपको ,सादर
वाह !सीमा जी आपने बहुत ही बड़ी विसंगति की ओर ध्यान केंद्रित किया हैं।हमजिस धर्म को मानते हैं उसका पूर्ण सम्मान चाहते हैं इसके विपरीत अन्यों के धर्म का अपमान करने में जरा भी ग्लानि नही महसूस करते।हार्दिक बधाई आपको
हार्दिक बधाई आदरणीय सीमा सिंह जी। वाह, लाज़वाब प्रस्तुति।आस्था तेरे कितने रूप।किसी की आस्था हलुए में, किसी की दौने में और किसी की अजान में।बेहतरीन लघुकथा।
विषय और शीर्षक के साथ न्याय करती बेहतरीन लघुकथा।
वास्तव में ही हर व्यक्ति दूसरे की दृष्टि से जगत को देखना ही नहीं चाहता।
बहुत खूबसूरती से उकेरा गया कथानक। बधाई आपको।
प्रदत्त विषय 'आस्था' और आपकी कथा के शीर्षक की सही से व्याख्या कर रही है लघुकथा। वास्तव में ये भी एक विसंगति है हमारे समाज की, कि हम दुसरे पक्ष को उसकी दृष्टि से देखना ही नहीं चाहते. उम्दा प्रस्तुति के लिए बधाई देना तो बनता है सीमा जी...सादर
मुहतरमा सीमा सिंह जी आदाब,प्रदत्त विषय को सार्थक करती अच्छी लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
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