साथियों,
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शुक्रिया...
शायद ग़ज़ल पसंद नहीं आई आपको ;))
वाह वाह आदरणीय नीलेश जी, शेर दर शेर ठाय ठाय है, बहुत बढ़िया, सभी ठाय ठाय निशाने पर लगें हैं, बहुत बहुत बधाई।
राह से वो हटा गया है मुझे ।
तोड़ कसमें, भुला गया है मुझे ।
यूँ ही उड़ता रहा, हवा में मैं
आइना वो दिखा गया है मुझे ।
रोजो-शब उसको सोचता हूँ बस
रोग कैसा लगा गया है मुझे ।
ज़िन्दगी का तराना गाता हूँ
दर्द का साज़ भा गया है मुझे ।
वक्त की ठोकरों में रह रह कर
सब्र करना तो आ गया है मुझे ।
इश्क का रोग 'विर्क' ऐसा लगा
अश्क़ पीना सिखा गया है मुझे ।
मौलिक , अप्रकाशित
आ. दिलबाग विर्क जी अच्छी गज़ल हुई है। हार्दिक बधाई इस प्रस्तुति के लिए
शुक्रिया शकूर साहब
जनाब दिलबाग विर्क साहिब,
अच्छी ग़ज़ल कही, मुबारकबाद आपको,
२रे शे'र के ऊला मिसरे में, "में मैं" की तकरार खल रही है,,
"में" और मैं" की तकरार को "हवाओं में" करके दूर किया जा सकता है.
शुक्रिया अफरोज जी
आ. दिलबाग जी,
अच्छी ग़ज़ल हुई है ..बधाई ..
अन्य ग़ज़लों पर टिप्पणी दे कर सक्रियता बनाएं रखें
सादर
शुक्रिया नीलेश जी
आद० दिलबाग जी बहुत अच्छी ग़ज़ल कही दिल से दाद हाज़िर है
शुक्रिया आदरणीया
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