आदरणीय साथिओ,
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विनम्र आभार आदरणीया नीलम जी।
आदरणीय टी आर शुक्ल जी, व्यवस्थागत दोषों पर कटाक्ष करती बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है. इस सार्थक प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें. सादर.
विनम्र आभार आदरणीय मिथिलेश वामनकरजी।
हक़ीक़त के आसपास की रचना है आ टी आर शुकुल जी, यही सब हो रहा है आजकल. बहुत बहुत बधाई इस बढ़िया रचना के लिए
विनम्र आभार आदरणीय विनय कुमारजी।
बढ़िया लघुकथा हुई है आदरणीय डॉ. टी आर सुकुल जी| हार्दिक बधाई|
भ्रष्टाचार को बयां करती बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकार कीजिएगा आदरणीय टी आर शकुल सरजी।
भ्रष्ट राजनीति पर उम्दा लघुकथा कही है आपने आदरणीय डॉ. टी आर सुकुल जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
सखा
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इस दूरदराज़ और निर्जन इलाक़े में उसे दोस्तों की कमी बहुत खलती। उदासी के गहरे काले हर समय उसके आसपास मंडराते रहतेl वह अपनी मनपसंद विदेशी विडियो गेम से भी बहुत जल्द ऊब गयाl उसके पिताजी ने उसे महँगा मोबाइल फोन खरीदकर दे दिया। अब तो उसे दोस्तों की कमी और भी शिद्दत से महसूस हुई, वह फिर से उदासी के गहरे सागर में डूब गया। माता-पिता से बेटे की उदासी देखी नहीं जा रही थीI उन्होंने उसे नई बाइक दिलवा दी। वह कुछ दिन हवा की रफ़्तार से बाइक दौड़ाता रहा, उदासियों को दूर धकेलता रहा। उसके चेहरे की लालिमा देखकर पिता ने राहत की साँस ली। लेकिन सुनसान सड़कें उससे अक्सर पूछतीं, 'तुम अकेले क्यों हो? तुम्हारे दोस्त कहाँ हैं?" वह फिर से उदास रहने लगा।
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यह उदासी उसके माता-पिता के दिल पर आरियाँ चलाने लगतीं। उन्होंने दुनिया की हर क़ीमती चीज़ अपने बेटे के क़दमों में लाकर रख दी मगर बेटे की आँखें हर चीज़ में दोस्त तलाशती रहती और उन्हें न पाकर उदासी से लबालब हो जातीं। उस शाम चिंतित माँ ने उसके ह्रदय के अकेलेपन से खुलकर गुफ़्तगू की। माँ को उत्तर ढूँढने में अधिक समय नहीं लगा थाI माँ के चेहरे पर एकदम मुस्कुराहट के फूल खिल उठे थे।
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आज जब उदासी उसकी दहलीज़ पर पहुँची तो कमरे के अंदर आ रही खिलखिलाहट भरी वार्तालाप की स्वरलहरी सुनकर सहसा ठिठककर वहीँ रुक गई। भीतर झाँककर देखा तो वह प्रसन्नचित्त, हँस-हँसकर रंग-बिरंगी किताबों से बातें कर रहा था। उसके अंदर का मुरझाया हुआ फूल अब पूरी तरह खिला हुआ था। उसने अंदर जाने के लिए पाँव बढ़ाया ही था कि किताबों ने उसे घूरकर देखा और चेतावनी भरे स्वर में कहा,
“दूर हो जाओ यहाँ से, अब यहाँ तुम्हारा कोई काम नहीं।”
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(मौलिक और प्रकाशित)
किताबें इन्सान की सबसे अच्छी दोस्त होती हैं ।
बेहतरीन लघुकथा योगराज सर जी ।
हार्दिक आभार आ० कनक हरलालका जी.
जनाब योगराज प्रभाकर साहिब आदाब,प्रदत विषय के साथ पूर्ण न्याय करती,उम्दा लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।
लघुकथा पढ़ने के बाद मुझे ऐसा लगा कि शायद इसे आपने बहुत जल्दी में लिखा है,जैसे मिसाल के तौर पर ये पंक्ति देखें:-
// उदासी के गहरे काले हर समय उसके आसपास मंडराते रहतेl//
इस पंक्ति में "गहरे काले" के बाद "बदल" शब्द छूट गया है,दूसरी बात ये कि इसमें संवादों की कमी भी मुझे महसूस हुई ।
वैसे लघुकथा का कथानक,और उसकी कसावट में कोई कमी नहीं है,एक बार पुनः बधाई इस प्रस्तुति पर ।
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