आदरणीय साथिओ,
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आपकी इस मुक्तकंठ प्रशंसा के लिए तह-ए-दिल से आपका शुक्रिया अदा करता हूँ आ० मनन कुमार सिंह जी.
आदरणीय योगराज प्रभाकर सर, लघुकथा के लिए आपने हमेशा ही एक नए विषय पर अपनी कलम चलाई है और एक नए दृष्टिकोण से आप लिखते आये हैं, जो हमें प्रभावित करती हैं, मैं अपने लिए तो यह कह ही सकती हूँ|
सच लिखा है आपने अकेलेपन का सच्चा साथी किताबें ही होती है, और होनी भी यही चाहिए| आपकी रचना पर क्या कहूँ, इतना समर्थ नहीं हूँ| हार्दिक बधाई आदरणीय|
आपनी गुणग्राहकता को नमन आ० कल्पना भट्ट जी.
आदरणीय योगराज जी बहुत सुंदर रचना के लिये ढेर सारी बधाई स्वीकार करें सादर
दिल से शुक्रिया आ० आसिफ जैदी जी.
किताब से बढकर कोई साथी नहीं होता, बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकार कीजिएग योगराज सरजी।
हार्दिक आभार आ० बबिता गुप्ता जी.
बेहद सूक्ष्म और शानदार लघुकथा है सर. निश्चित तौर पर अकेलेपन को दूर करने के लिए किताबों से बढ़कर कोई दूसरा साथी नहीं है. आपकी लघुकथा पढ़कर जौन एलिया साहब की पंक्ति याद आ गयी : मेरे कमरे में किताबों के सिवा कुछ भी नहीं. इस उम्दा लघुकथा के लिए दिल से ढेर सारी बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
रचना क मर्म तक उसे सराहने हेतु स्नेहिलआभार भाई महेंद्र कुमार जी.
समाधान
अकस्मात हुई ट्रेन दुर्घटना हुई जनक्षतिग्रस्त परिवारों को राहत राशि की घोषणा की,जिसमें म्रतको में लक्ष्मी भी थी.परलोक सिधारी लक्ष्मी की माँ बेहाल थी,दादी रोते हुये समझा रही थी, ‘भगवान को यही मंजूर था,तेरा तो बोझ हल्का कर गई……जाते-जाते दो जून की रोटी का इंतजाम कर गई........’
दादी की बातों में अफसोस की जगह संतोष झलक रहा था,ऐसा सुन लक्ष्मी की माँ खीझ कर चिल्लाते हुये बोली, ‘तुम सब के लिए बोझ थी,पर वो हमारे कलेजे का टुकड़ा थी.’
सिर पर हाथ रखे दुखित घीसू का मन ,लक्ष्मी के साथ की गई उपेक्षा को याद कर,आत्मग्लानि से भर गया.उसकी आँखों के सामने,दौड़कर आती लक्ष्मी पानी का गिलास लाते दिखने लगी,जब वो काम से लौटकर आता था,कैसे वो पैरों से लिपट जाती और कुछ देने के लिए हाथ फैला देती.
घीसू की सबसे छोटी औलाद,दो बेटी और एक लड़के के बाद की,राम-लखन की जोड़ी बनाने का,दादी का ज़ोर, परिणाम लक्ष्मी का जन्म,सुनकर पूरे घर को साँप सूंघ गया,सिवाय लक्ष्मी की माँ के.दादी की मुराद पर घड़ों पानी पड़ जाने पर,नवजात शिशु ने दुनियाँ देखने के लिए आंखे भी ना खोली थी,कि कोसने लगी, ‘लो,पहले ही क्या दो-दो का बोझ कम था,सो एक और चली आई.’
पास बैठी बुआ सास भी नाक-भौ सिकोड़कर अपनी बात से जले पर नमक छिड़ककर,एक लंबी सास लेकर कहने लगी, ‘बिचारा,दुखियारा बाप,दो वक्त की रोटी की कैसे तो जुगाड़ कर पाता हैं,फिर कैसे,तीन-तीन को व्याहेगा?’
घीसू भी लक्ष्मी के पैदा होने में,अपनी पत्नी,सुम्मों को दोषारोपित करते हुये कहता, ‘मरे ना,माछों दे.’
सब की कटुभरी बातें सुन लक्ष्मी को सीने से लगा सुम्मों चिल्लाते हुये कहती, ‘तुम सब की जुवान जले.मेरी लक्ष्मी,अपने नाम जैसा काम करेगी,देखना.’
घीसू,सुम्मों की कही बात की खिल्ली उड़ाते हुये,उपहास भरे शब्दों मे कहता, ‘खोटे सिक्के कभी चले हैं,बड़ी पंडिताईन बनती हैं........’
अपने में ही खोये घीसू की आँखों से आँसू बहते देख,दादी ने उसे झकझोरते हुये कहा, ‘जाने वाले के लिए रोकर,दान में मिली लक्ष्मी को नहीं ठुकराते.’
अपने आप से बड़बड़ाता हुआ घीसू अपनी पत्नी की कही बात याद करने लगा,कि लक्ष्मी,लक्ष्मी ही थी,जैसा नाम......,वैसा ही काम........... ओ
मौलिक व अप्रकाशित
बढ़िया लघुकथा बबीता गुप्ता जी ।
आभार, कनक दी।
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