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अबहवा, प्यार मुहब्बत ही बहाई जाए,
आओ मिल जुल के कोई बात बनाई जाए.
बहना की कही, कापी नहीं आई कल से,
रोज़ हलवाई से, बेगम की मिठाई जाए,
रोटी, अम्मी की पकाई ही अटकती थी कभी,
अब तो बीवी की पकी चैन से खाई जाए,
पीते थे कभी दूध को पानी की जगह,
अब तो अहले सहर, चाय पकाई जाए,
दो दिन नहीं बोले, बहन जो बाज़ार गई,
सैर बीवी को हर इतवार कराई जाए,
दो माह से टूटा है, पिदर का चश्मा,
बात, हिम्मत नहीं, बेटे को बताई जाए,
ये मुस्तक़बिल है हमारा, तेरे बच्चे भाभी,
क्यों, इन फूलों पे कोई रोक लगाई जाये।
मेरा घर टूट के, हो जाये ना रेज़ा-रेज़ा,
लिल्लाह 'इमरान' की शादी न कराई जाए.
वाह बहुत खूब कहा इमरान भाई //मेरा घर टूट के, हो जाये ना रेज़ा-रेज़ा,
लिल्लाह 'इमरान' की शादी न कराई जाए.//
टूटे संयुक्त परिवारों की त्रासदी को निहायत ही सहज जुबां में कह डाला आपने. बधाई स्वीकार करें.
इमरान भाई आदरणीय योगराजभाई की आपको एक दफ़ा सलाह मिल चुकी है- जल्दबाज़ी का काम शैतान का.
ग़ज़ल कहने में जो गलती अनायास हमसे हुई है वही गलती मैं यहाँ देख रहा हूँ.
एक उदाहरण, "रोटी अम्मी...चैन से खायी जाए.." .. भाव पक्ष दमदार है मग़र अशआर मशक्कत चाहती है.
//दो माह से टूटा है, पिदर का चश्मा,
बात, हिम्मत नहीं, बेटे को बताई जाए//... ..बहुत खूब ..
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