आदरणीय साथिओ,
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आदरणीया प्रतिभा जी, आपका बहुत बहुत आभार व्यक्त करता हूं। हां,यह सही है कि डिजिटल क्रांति है,जानकारियां उपलब्ध हैं।परन्तु, सही जानकारी या तथ्य को ठीक ढंग से परख लेने के बाद भटकाव की स्थिति कहां आती है?आधी अधूरी जानकारी तथा औरों के बहकावे में आने के चलते स्थिति ज्यादा भयावह हो रही है।देखा तो यहां तक जा रहा है कि आजकल अधिकांश लोग अपने कान की पड़ताल किए बगैर कौए के पीछे लग जाते हैं।लघुकथा के निहित तथ्य पर गौर कर प्रेरणा प्रेषित करने केलिए एक बार फिर से आपका शुक्रिया।
आदाब। नववर्ष की मंगल कामनाओं के साथ देश व संसार के नव निर्माता 'औलाद'को सार्थक परिभाषित करती बढ़िया रचना के लिए हार्दिक बधाई जनाब मनन कुमार सिंह साहिब।
आदरणीय उस्मानी जी,आपका आभार! औलाद,जनमानस व भविष्य का मेल आपने अच्छे ढंग से प्रतिपादित किया है।ये तीनों वस्तुतः एक दूसरे से परस्पर आबद्ध हैं।
असली औलाद तो यही है जो सही राह पर चले और दूसरों का भी ख्याल रखे. बढ़िया अलग कलेवर की रचना विषय पर, बहुत बहुत बधाई इस रचना के लिए आ मनन कुमार सिंह जी
हार्दिक बधाई आदरणीय मनन कुमार सिंह जी।लघुकथा गोष्ठी का आगाज़ आपने एक बेहतरीन लघुकथा से किया है।आपकी लघुकथा का संदेश बहुत प्रभावशाली है।
आपका आभार आदरणीय तेजवीर सिंह जी।आपकी स्नेहिल टिप्पणी मेरा संबल होगी।
आपका आभार आदरणीय विनय जी।
आपका आभार आदरणीय विनय जी।
बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकार कीजिएगा आदरणीय मनन सरजी।
आपका आभार आदरणीया।
जीते जी
यहां उस की उपस्थिति अप्रत्याक्षित थी. वह दौड़दौड़ कर लकड़ी ला रहा था. जब मुखाग्नि दे कर लोग बैठ गए तो उस ने उमेश से कहा,
'' साहबजी ! एक बात कहूं ?''
'' जी ! कहिए,''उमेश ने उस अनजान व्यक्ति की ओर देख कर पूछा, '' मैं आप को पहचान नहीं पाया ?''
'' साहब ! इन मांजी से पहचान थी. कभीकभी मेरे यहां सब्जी लेने आ जाती थी. मेरी पत्नी के पास घंटों बैठा करती थी,'' उस ने कहा, '' मैं उन की निशानी एक शाल ले जा सकता हूं ? ये शमशान में यूं ही पड़ी सड़ जाएगी ?'' उस ने उमेश से धीरे से कहा.
उमेश जानता था कि श्मशान की कोई चीज काम नहीं आती है. यह महंगी शाल भी यही पड़ीपड़ी सड़गल जाएगी. मगर, उस ने जिज्ञासावश पूछ लिया, '' इस शाल का क्या करोगे ?''
'' मेरी एक बूढ़ी मां है. उस को एक अच्छी शाल की जरूरत है.'' वह बड़ी मुश्किल से भूमिका बांध कर बोला पाया.
'' हांहां. ले जाओ !'' उमेश के आंख में आंसू आ गए. उस ने टपकते आंसू भरी आंखों से श्मशान में जलती चिता और उस के पास खड़े बेटे को देख कर धीरे से कहा,'' सभी शाल ले जाओ भाई. किसी को बांट देना. कम से कम शाल की अभाव में कोई मां तो ठण्ड से बेमौत नही मरेगी !'' कहते हुए उमेश ने आंसू को पौंछ लिए.
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मौलिक और अप्रकाशित
बहुत ही मर्मस्पर्शी लघुकथा हुई है आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय जी. आपने इस लघुकथा के माध्यम से न केवल आदर्श सन्तान की ही बात की है बल्कि दाह-संस्कार के दौरान महंगी शालें डालने की कुरीति पर भी कटाक्ष किया है जिससे इस लघुकथा की मार दोधारी हो गई है. प्रदत्त विषय से न्याय कतरी इस लघुकथा हेतु मेरी दिली बधाई स्वीकार करें.
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