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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-97 "विषय: "साधना''

आदरणीय साथियो,

सादर नमन।
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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-97 में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। इस बार का विषय 'साधना', तो आइए इस विषय के किसी भी पहलू को कलमबंद करके एक प्रभावोत्पादक लघुकथा रचकर इस गोष्ठी को सफल बनाएँ।  
:  
"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-97
"विषय: "साधना" 
अवधि : 29-04-2023 से 30-04-2023 
.
अति आवश्यक सूचना:-
1. सदस्यगण आयोजन अवधि के दौरान अपनी केवल एक लघुकथा पोस्ट कर सकते हैं।
2. रचनाकारों से निवेदन है कि अपनी रचना/ टिप्पणियाँ केवल देवनागरी फॉण्ट में टाइप कर, लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड/नॉन इटेलिक टेक्स्ट में ही पोस्ट करें।
3. टिप्पणियाँ केवल "रनिंग टेक्स्ट" में ही लिखें, १०-१५ शब्द की टिप्पणी को ३-४ पंक्तियों में विभक्त न करें। ऐसा करने से आयोजन के पन्नों की संख्या अनावश्यक रूप में बढ़ जाती है तथा "पेज जम्पिंग" की समस्या आ जाती है। 
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6. रचना पोस्ट करते समय कोई भूमिका, अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल/स्माइली आदि लिखने/लगाने की आवश्यकता नहीं है।
7. प्रविष्टि के अंत में मंच के नियमानुसार "मौलिक व अप्रकाशित" अवश्य लिखें।
8. आयोजन से दौरान रचना में संशोधन हेतु कोई अनुरोध स्वीकार्य न होगा। रचनाओं का संकलन आने के बाद ही संशोधन हेतु अनुरोध करें। 
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मंच संचालक
योगराज प्रभाकर
(प्रधान संपादक)

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स्वागतम 

प्रिविलेज


"गुरुदेव उसने तो पूरी निष्ठा से साधना की थी फिर भी ....?" शिष्य ने प्रश्न किया।
"साधना-साधना में अंतर होता है शिष्य। एक ने गुरु की अनुमति से उनके सानिध्य में साधना की थी वहीँ दूसरे ने गुरु की अनुमति बिना।"
"किन्तु गुरुदेव अपने ही साधक के साथ ऐसा व्यवहार..." शिष्य अपना प्रश्न पूरा भी नहीं कर सका।
"कैसा व्यवहार...? गुरु ने तो केवल गुरु दक्षिणा ही ली थी।" स्वर गुरुतर था।
"किन्तु उसने तो केवल गुरु की प्रतिमा को ही गुरु मानकर साधना की थी। वास्तव में तो उसका आत्मबल ही था जिसने उसे निपुण बनाया।"
"वह आत्मबल भी तो उसे गुरु की माटी की प्रतिमा के कारण ही आया था शिष्य।" गुरुदेव का स्वर विश्वास से भर आया।
"फिर तो अंगूठा भी मिट्टी का माँगा जा सकता था।" शिष्य गुरुदेव के विश्वास से संतुष्ट नहीं था।
"शिष्य उसकी साधना का आधार अंततः गुरु का आश्रय था और साधना में आश्रय का महत्त्व सर्वाधिक है। शास्त्र यही कहते हैं।" गुरुदेव विजयपथ की ओर अग्रसर हो गए।
"क्या शास्त्रों में तर्क या मानवीयता का कोई महत्त्व नहीं है गुरुदेव?" शिष्य के प्रश्न पर क्षणिक ही सही लेकिन एक मौन वातावरण में पसरने को ही था कि गुरुदेव ने अपना निर्णय सुना दिया-
" यही विधि का विधान था। यही नियति थी। नियति बहुत बलवती होती है शिष्य। सब शास्त्र सम्मत था और यही शास्त्र सम्मत है।"

(मौलिक व अप्रकाशित)

आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। उत्तम लघुकथा हुई है। हार्दिक बधाई।

हार्दिक बधाई आदरणीय मिथिलेश जी। 

एक पौराणिक घटना के प्रसंग को वर्णित करते हुए आपने एक बेहतरीन एवं उच्च स्तरीय लघुकथा द्वारा आज की गोष्ठी का आगाज किया। 

एक कहावत है -

"समर्थ को नहिं दोष गुसाँई

आदिकाल से यही होता रहा है। सत्तापक्ष सदैव ही सही ठहराया जाता रहा है। उनके द्वारा किये गये कृत्य या निर्णय, नीतियों को तोड़ मरोड़ कर उचित सिद्ध कर दिये जाते रहे हैं। 

बहुत समय बाद आपकी लेखनी का कमाल देखने को मिला। 

पुनः हार्दिक बधाई।

आदरणीय  लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यवाद, सादर 

आदरणीय  TEJ VEER SINGH  जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यवाद, सादर

साधना में सहमति,एक बड़ा सवाल।लघुकथा के लिए बधाइयां,आ.मिथिलेश जी।

आदरणीय Manan Kumar singh जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यवाद, सादर

सादर नमस्कार। आपकी सधी लेखनी और लघुकथा विधा के लिये सतत साधना का एक और उदाहरण है विषयांतर्गत यह सार्थक लघुकथा। हार्दिक बधाई आदरणीय मिथिलेश वामनकर साहब। बेहतरीन शीर्षक के साथ प्रवाहमय संवादों के साथ संवाद संग अनकहा बयाँ करते वाक्यांश और रचना का समापन सब कुछ प्रभावोत्पादक। समापन इसके विपरीत वाली मारक क्षमता वाला भी हो सकता था मेरे विचार से नवीनतम पंचपंक्ति हेतु।

आदरणीय Sheikh Shahzad Usmani  जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यवाद, सादर

//समापन इसके विपरीत वाली मारक क्षमता वाला भी हो सकता था मेरे विचार से नवीनतम पंचपंक्ति हेतु।// इस पर आप कुछ सुझाएँ. सादर 

तपस्या - लघुकथा - 

सुबह के लगभग नौ बजे सुधा सोकर उठी और सीधे रसोईघर में पहुंची।

लेकिन तुरंत कमरे में वापस लौटी,”सुधीर, ये रसोई में कौन महिला है?" 

"वे सीमा जी हैं।

"वे हमारे किचन में क्या कर रही हैं?”

"वे पिताजी के लिये दलिया बना रही हैं।

अरे वाह, ये काम तो बहुत बढ़िया किया आपने। अब हम दोनों भी एक साथ खा पी सकेंगे।

"नहीं सुधा, यह संभव नहीं होगा। वे केवल पिताजी के खान पान के लिये ही रखी गई हैं।

"अरे, ये क्या बात हुई? जब किसी को रसोई के काम काज के लिये रखा ही है तो सभी के लिए क्यों नहीं?”

"उसकी दो वजह हैं। पहली तो यह कि तुम पिताजी के पसंद के खाने बनाने में आनाकानी करती हो।कभी भी समय से उन्हें खाना नहीं दे पातीं। सुबह की चाय तो वे हमेशा खुद ही बनाते हैं।क्योंकि तुम सुबह नौ बजे तक बिस्तर ही नहीं छोड़ती हो।

दूसरी वजह यह कि मैं सबके लिये रसोइया रखने का खर्चा नहीं उठा सकता।

"तो फिर ये खर्चा भी क्यों कर रहे हो? मैं जैसे तैसे कर तो रही हूँ। धीरे धीरे पिताजी भी आदी होते जा रहे हैं।

"नहीं सुधा, ये परिस्थिति मेरे लिए असहनीय है। मैं तुम्हें समझा कर थक गया। तुम इस उम्र में अपने आचरण को नहीं बदल सकती तो मैं अपने सत्तर वर्षीय पिता को किस मुँह से बदलने के लिये बोलूं?”

"सुधीर, मैं कोशिश तो कर रही हूँ ना?”

"सुधा, मैं जब दो साल का था, मेरी माँ चल बसी थी। मेरे पिता चाहते तो दूसरी शादी कर सकते थे।शादी के लिये उनके ऊपर परिवार का भी बहुत दवाब था। लेकिन उस वक्त उनके समक्ष केवल मेरा जीवन, मेरा लालन पालन और मेरा भविष्य था।उन्होंने  कितना संघर्ष किया जीवन भर। मेरे लिए एक तपस्वी की भाँति जीवन बिताया। मेरे पिता मेरे लिए भगवान है। मेरे रक्त की एक एक बूंद उनकी ऋणी है।"     

 मौलिक एवं अप्रकाशित

आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन।बहुत सुंदर और प्रेरणादायक कथा हुई है। हार्दिक बधाई।

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