साथियों,
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अजय तिवारी जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया
बहुत उम्दा ग़ज़ल कही है आपने आ.गुलशन जी। वाह वाह
दिनेश कुमार जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया
मेरा माज़ी सजा गया है मुझे
वक़्त मुझ सा बना गया है मुझे.
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सच कहो और साथ सच का दो
हुक्म बस ये दिया गया है मुझे.
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जब ज़रूरत नहीं किसी को मेरी
फिर यहाँ क्यूँ रखा गया है मुझे?
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कितने अहसान उस के मुझ पर हैं
चारागर फिर जता गया है मुझे.
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और अब इम्तिहान क्या होगा
“सब्र करना तो आ गया है मुझे”
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यूँ ही कुन्दन कोई नहीं होता
हर कसौटी कसा गया है मुझे.
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मैं चराग़ों सा था हवाओं को
झौंका आकर बुझा गया है मुझे.
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जम गयी है हर-इक नज़र मुझ पर
वो तमाशा बना गया है मुझे.
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ऐब मुझ में सभी उसी के हैं
जिस के हाथों घड़ा गया है मुझे.
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तीरगी का तिलिस्म झूठा है
“नूर” जुगनू बता गया है मुझे.
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मौलिक/ अप्रकाशित
वाह, वाह।
शानदार अशआर। एक से बढ़कर एक।
शुक्रिया आ. अजय जी
जनाब निलेश नूर साहिब आदाब,
शानदार ग़ज़ल के लिए मुबारक बाद
मक़ते के लिए ख़ुसूसी मुबारक बाद क़बूल करें
शुक्रिया मिर्ज़ा साहब
जनाब निलेश 'नूर'साहिब उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
शुक्रिया आ. समर सर
बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है आ. निलेश सर जी, दिली दाद व मुबारक बाद। इस शेर पर विशेष दाद,,,
ऐब मुझ में सभी उसी के हैंशुक्रिया आ. दिनेश भाई
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